प्रभाग-08 बाल काण्ड रामचरितमानस
फिर इसके आगे राम जन्म की कथा का सविस्तार वर्णन प्रारंभ कर शिवजी न पार्वती जी को समझाया कि अयोध्या के जो राजा बनकर भाईयों सहित धनुषवाण धारण किए और मुनिवेश में जंगल में विचारते हुए उन्हें देखकर तुम जो सती रुप में उस कल्प में मोहित हुई जिसकी छाया आज भी तुम पर है हीं । उनका चरित्र सुनने पर ही तुम्हारा यह रोग मिटेगा । जो जो लीलाएँ प्रभु ने की , उसका सविस्तार वर्णन करूँगा ।
सृष्टि के आदि पुरुष स्वयंभुव मनु एवं उनकी पत्नी सतरुपा , जिससे यह सुन्दर सृष्टि विकसित हुई , वे दाम्पत्य धर्म का पालन करते हुए शुभाचरण से मर्यादित थे । वेदों में चर्चा हुयी । उनके पुत्र का नाम उत्तान पाद था । उन्हें ध्रुव नाम का पुत्र जन्म लिया । उन्हें द्वितीय पुत्र भी हुए जिनका नाम प्रियवत हुआ । उनकी भी वेदों में चर्चा है । ऐसा कवि मानते हैं । उन्हें एक पुत्री भी हुयी देवहुति , जो कर्दम मुनि की पत्नी बनी । उसी देवहूति के गर्भ से कपिल मुनि का जन्म हुआ जो सांख्य शास्त्र रचे । वे तत्त्व ज्ञानी थे । राजा मनु चिरकाल तक राज्य किये । अपने नाती ( द्रौहित्र ) द्वारा रचित शास्त्रोक्त आदेशों का पालन करते घर रहकर चौथा पन व्यतीत हो चुका किन्तु मन में विराग नहीं उत्पन्न होने से सोचते हुए बहुत कष्ट हुआ कि बिना भगवान की भक्ति किए आयु समाप्त होने पर आ गयी । उनके पुत्र राजपद लेना नहीं चाहते थे किन्तु बरवश उन्हें राज्य सौंप कर सपत्नी नैभिषारण्य के लिए प्रस्थान किये । वह वन महान तीर्थ जैसा साधकों के लिए सिद्धि दायक और पवित्र ह । मार्ग में चलते समय दोनों वैसे लगते थे जैसे ज्ञान और भक्ति दोनों ही शरी धारण कर चुके हो । उस जंगल में सिद्ध मुनियों के समूह बसते ह । जब वे गोमती नदी के किनारे स्नान किए तो उनसे मिलने के लिए वन से मुनिगण पहुँचे । यह जानकर कि राजा मनु राजर्षि ह । वन में जहाँ – जहाँ सुन्दर तीर्थ थे , मुनियों ने उन्हें दर्शन करवाये ।
उनका शरीर क्षीण पड़ गया था । मुनियों जैसे वस्त्र धारण करने और पुराणों की कथा सुनने लगे । उन्होंने 12 अक्षरों का वासुदेव मंत्र ” ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ” का सप्तेम जाप प्रांरभ किया , फिर श्री हरि को प्रसन्न करने हेतु तपस्या करनी प्रारंभ की । मूल – फल का आहार त्याग कर मात्र जल पीकर रहने लगे । हमेशा अपने मन से प्रभु को अपनी आँखों से देखने की अभिलाषा रखी । जैसा राम चरितमानस में वर्णन है , मनु दम्पति 23 हजार वर्ष तक पानी हवा और फिर श्वांस रोधकर एक पैर पर खड़ा होकर तपस्या करते रहे । इस बीच कइ बार श्री हरि आकर उन्हें वरदान देने पहुँचे किन्तु इनका ध्यान नही टूटा । शरीर सूख कर अस्थि मात्र बच गया था । थोड़ा भी कष्ट का उन्हें अनुभव नहीं हो रहा था । आकाशवाणी हुयी कि वरदान मांगिय । जैसे – जैसे आवाज कान से होते हुए दोनों तपस्वियों के हृदय में पहुंची , उनका शरीर पहले जैसा हो गया । अमृतमय बचन सुनकर परम प्रफुल्लित हो प्रभु को दण्डवत किया । अपनी इच्छा निवेदित करते हुए मनुराजा ने कहा कि जिस स्वरुप को काक भुशुण्डिजी अपने मन में बैठा चुके हैं उसी रुप में मैं आपको दखना चाहता हूँ । इस आवाज को सुनकर श्री हरि प्रकट हुए । कृपा निधान भगवान ने पुनः वर माँगने को कहा । मनुजी ने कहा कि आपके दर्शणों से मेरे सब कार्य पूरे हो गये , किन्तु एक अभिलाषा बच गयी है , उसे आपसे छिपाना नही चाहता । वह है कि अपके ही समान मुझे एक पुत्र हो । ऐसा सुन कृपा सागर ने एवभस्तु करते हुए कहा कि अपने समान क्या , मैं ही आपका पुत्र बनकर आऊगा । फिर सतरुपा को दखकर उनसे भी वरदान मांगने को कहा । सतरुपा ने प्रभु से इतना ही कहा कि आप अपने जनों को जो अलौकिक सुख और परम गति प्रदान करते है वही सुख , वही गति , वही भक्ति , वहीं प्रीति , वही ज्ञान और वही रहन – सहन हमें दीजिए । प्रभु ने उसे सहर्ष स्वीकार किया । फिर मनु भगवान ने कहा कि जैसा प्रेम पिता और पुत्र के बीच होता है वैसा ही हमारे आपके बीच हो चाहे संसार मुझे मूर्ख ही क्यों न कहे । ऐसा कहकर प्रभु के चरण पकड़े रहे । श्री हरि ने सप्रसन्न एवमस्तु करते हुए अनुमति दी कि आप इन्द्र की राजधानी में जाकर निवास कर । कुछ कालतक वहाँ रहकर सब सुख ग्रहण करे । तब , जब आप अयोध्या के राजा बनेंगे तो मैं आपका पुत्र बनकर जन्म लूँगा एवं आदि शक्ति भी वही अवतार लेगी । इस कथा को भगवान शंकर पार्वती से कहे थे । याज्ञवल्क्य मुनि , भारद्वाज जी से कहते हैं कि रामावतार की आगे की कथा सुनें ।