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पुत्री और संस्कृति

पुत्री और संस्कृति भाग-क

– डा ० जी ० भक्त

आज के चुग में हम पाते हैं कि एक व्यक्ति के मन में कुछ भला करने का भाव जगता है । वह कुछ वैसा करना शुरू कर देता है । उसे सफलता की ओर बढ़ने का अनुमान होता है । वह उत्साहित होकर कार्य में तत्परता से जुड़ा रहता है । उसे अपने विचार के अनुरूप हो सकारात्मक फल मिलता है । उससे उसका अपना , अपने परिवार का और साथ – साथ उसके पास पड़ोस वालों को भी लाभ मिलता दिखाई पड़ता है । उसे उत्तरोत्तर साहस बढ़ता जाता है । अपने अनुसंधान को वह उद्योग के रूप में विकसित करना चाहता है ताकि दुनियाँ इसका लाभ पाये और मानव समाज को भविष्य में अनवरत लाभ मिलता रहे । आज जो हमारी सभ्यता और संस्कृति है , वह ऐसे ही विचारों का फल है । इस प्रकार मानव , प्रकृति और विश्व को विकास का श्रेय प्राप्त होते रहने का क्रम चलता रहता है ।

सच्चाई जो हो , हमारे समाज में ऐसा सुना जाता है कि सृष्टि इस धरती पर ईश्वर द्वारा खड़ी की गयी । हमें कहीं भी मानव जैसा ईश्वर कहलाने वाला प्रत्यक्ष ईश्वर रूप न कोई बतलाता है कि प्रारंभ में ऐसा ही हुआ हैं ।

जब प्रमाण नहीं मिलता तो अनुमान – चिंतन काम आयेगा । भारतीय संस्कृति में बेद ही ऐसा प्रामाणिक ग्रंथ बताया गया है । महर्षियों के चिन्तन में ऐसा प्रमाण सुझाया गया है जिसे हम आसानी से समझ सकते हैं । धरती पर पाये जाने वाले छोटे बड़े जीवों के उत्पन्न होने और उनके विकास और अवसान तो सामने नजर आ रहे हैं । मानव सबसे बाद में धरती पर आया । आया तो अपने में अन्य पेड़ पौधों और जीवों से विशिष्ट गुणों के साथ चेतना के साथ अन्य विकसित अंग , मेघा , स्मृति , सोच , चिन्तन वाली भाषाई अभिव्यक्ति आदि से परिपूर्ण भी ।

आज धरती पर मानव , और अपने ईर्द – गिर्द के वातावरण में दीखने वाले दृश्य के बीच उन्ही संसाधनों के प्रयोग से पोषित , कल्पित निर्मित उत्पादित और सजी – सजाई पृथ्वी जिसे हम प्रकृति के रूप में पाये , वह मानवकृत अनुसंसधानों को पाकर नई दुनियाँ बन चुकी । आज प्रकृति के बीच विश्व में मानव सृष्टि के साथ शक्ति के रूप में उभर कर आया ।

सृष्टि के विधान में प्रकृति और परमेश्वर , इन दो शब्दों को ध्यान में लाते हैं । उसे जड़ और चेतन सत्ता के रूप में स्वीकारते हैं । पुरूष और प्रकृति के रूप में माता और पिता इसके जीवन्त उदाहरण हमारे सामने हैं । समझने और ध्यान में लाने के लिए नर – नारी में विषय वस्तु का प्रतिनिधित्त्व ( नर , पुरूष ) चेतन सत्ता और नारी ( प्रकृति ) जड़ सत्ता के रूप में ) कार्य करता आ रहा है । हम सर्वत्र बिखड़े या भाव रूप में प्रकृति म व्याप्त हैं । एक महत्त्वपूर्ण विषय है । जानने समझने , ज्ञान रूप ग्रहण करने अपने आप पर विचारने , चिंतन ( सोंच जगाने ) के लिए , सृष्टि के चलने के लिए संस्कृति के अनवरत विकास के लिए हम नर – नारी के जीवन को उत्कर्ष दिलाने एवं दुर्गुणो से दूर एक पावन संस्कार का सृर्जन ।

को दिशा देने के लिए हम युवा विद्यालय विश्वविद्यालयों में मेजे जाते है पवित्र उद्येश्य है । विकास का लक्ष्य है । माता – पिता की मनोकामना सिद्धि का ध्यान है । व्यक्तिगत चरित्र निर्माण की चिन्ता है । स्वस्थ विकसित परम्परा के पोषण का प्रश्न है । अपनी गरिमा भी अपेक्षा है । निजी अपेक्षाओं की प्रतिपूर्ति से जीवन को सजाने सँवारने समाज एवं देश के नव निर्माण , गौरव के उत्थान में अपने को खड़ा उतारने का लग्न भी होना चाहिए ।

हम आज की परिस्थिति पर ध्यान देते हुए अपने चिन्तन को आगे बढ़ाते हुए युवाओं के बीच पुत्रियों को पुत्रों से कमतर नहीं मानते और उस युग को नारी उत्थान का ही प्लान लेकर बढ़ने का विधान किया है । अतः उन नवोदित अध्ययन रत्त युवा अपने भेद – भावों , विषमताओं , दुर्वासनाओं , सामाजिक विसंगतियों या पारिवारिक क्षमताओं- दीनताओं , असुविधाआ पर दृष्टि डालते हुए अपने अध्ययन के लक्ष्य को विशेष लगन , परिश्रम के साथ जीवनादर्शों के पालन के अनुकूल शिक्षा ग्रहण को प्राथमिकता दें ।

” कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन । ”

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