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 भारतीय जनतंत्र पर जाति धर्म और भाषा का जादू आर्थिक विषमता और स्वार्थ से सनी हुयी है ।

 उसे समाप्त कर ही सुधार सम्भव हो सकता है ।

 जब तक विश्व में राजतंत्रीय व्यवस्था चलती रही , धरती पर धर्म , ज्ञान , कला और संस्कृति की अपनी पहचान थी । उस समय राजतंत्र का विस्तार वादी आयाम सम्राज्य वाद आया कभी धर्म की कट्टरता जोर पकड़ी तो कभी धर्म रक्षार्थ युद्धा धर्म , कला और संस्कृति का विस्तार भी राजनैतिक आयाम लेकर निखरा । इससे मानवता विस्तार पायी । इससे भौगोलिक और सांस्कृतिक संबंध कायम हुआ । व्यापारिक संबंध बढ़ने से संस्कृतियों का आदान प्रदान भी मानव को जोड़ पाया ।

 कालान्तर में पाया गया कि प्राचीन काल में भी जाति और वेशों की राजनैतिक सत्तात्मक परम्परा अपने आदशों के साथ चिरकाल तक स्थायी रही तो उस वंश में कंस जैसे कट्टर राजा अपने परिवार का सत्यानाश कर डाला । कोई अपने भाई , तो कोई पिता को ही मारकर अथवा कैद कर राजगद्दी अपनायी । इसी परिप्रेक्ष्य में एक नया परिदृश्य सामने आया चक्रवत्तीत्व संबंधी एक राजा अपनी सेना के साथ राज्यों पर आक्रमण कर उससे अपनी अधीनता स्वीकार करवाते हुए विश्व विजय का अभियान लेकर बढ़ता हुआ चक्रवर्ती सम्राट बनता था । उस काल के युद्ध में नैतिकता की कुछ सीमाएँ बरती जाती थी । युद्ध सामना – सामनी होता था । आज भी सीमा है । घोषित युद्ध क्षेत्र में ही आकाश से बम बरसाये जा सकते है , लेकिन सीमा का उल्लंघन भी होता है ।

 आज युद्ध में प्रयोग के लिए ऐसे मारक युद्धास्त्र चल चुके हैं जिनका प्रयोग भौगोलिक मानचित्र से राष्ट्रों का नामोनिशान मिटाया जा सकता है । जब अपार जन संख्या और बेरोजगारी की अवस्था में मशीनों की तो बात छोड़े रोबोट से काम लिया जा रहा है । क्या हम इसे मानवता का शोषण नहीं कह सकते ? विज्ञान और तकनीकि विकास को मानव का हित का भी ही नहीं हितकारी होना चाहिए । सृष्टि के साथ छेड़ – छाड़ सर्वथा अनपेक्षित माना जाना चाहिए । मानव का विकल्प निकालकर हम वही कर सकते है जो मानव जाति की समाप्ति से होगी ।

 जहाँ मानव द्वारा मानव पर संकट वरपाये जाने के षड़यंत्र या परोक्ष रुप में प्रहार होता है वहाँ गतिरोध , विरोध या संघर्ष की विचार धारा भी वैचारिक क्रान्ति ही है किन्तु इसका लक्ष्य सुधार वादी है । मानस परिवर्तन , वाक्य प्रहार ( धमकी देना ) दबाव जताना , अप्रिय या कठोर वादी का प्रयोग , अनार्य प्रवृति है । मानव द्वारा मानव की अवहेलना या प्रताड़ना संस्कृत प्रयास नहीं । कदाचित हमारे लेखन शैली एवं भाषा की शब्द रचना समाज को उत्तेजित या अपमानित करती हो , तो उसका परिष्कार भी जरुरी है । जब हमारी धार्मिक संस्कृति बताती है कि जब धरती पर अधर्म फैलता है , तब सृष्टिकर्ता स्वयं अबतार लेकर उसकी रक्षा करने पहुंचते हैं । कैसे पहुँचते है ? नर उप में हीं । अब बतलाइए कि आपकी विद्यायिका में पहुंचने वाले 93 % करोड़पति है , तो गरीबों का प्रतिनिधि कौन है ? और नेतृत्व वही ले रहा जिसका जनमत गिरा है । ये सारे विषम विचारणीय है । और , ..यह चुनाव जनता से नेता तक , पक्ष और प्रतिपक्ष को भी चुनाव आयोग से लेकर न्यायपालिका तक को , कि पहले इस गृत्थी को सुलझा लिया जाय अगला चुनाव कैसे सुधरा हुआ एजेण्डा लेकर उतर सकता है एवं उसके उम्मीदवार कौन और कैसे लोग हो सकेंगे , पूर्ण युगान्तकारी और जनहितकारी । उन रहस्यों की पारदर्शिता की स्पष्ट झलक अगर इस पंयवर्षीय चुनाव की अवधि में जागरुकता की झलक विकास के फलक पर गूंज पायी नियंत्रण , अनियमितता और शोषण पर प्रतिबन्ध के साथ विभागों संस्थानों का विविधत क्रियान्वयन सहज परिलक्षित हो पायेगा । सुधार समाचार पत्रों एवं पोस्टरों में नहीं , धरातल पर दृष्टिगत होगा । अब यह कहना कदापि उचित नही होगा कि हमारे पास कोई जादू की छड़ी नहीं । अब तो अवसर हाथ से छुटने वाला है ।

 डा ० जी ० भक्त

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