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भारत का सांस्कृतिक गौरव और राजनैतिक चरित्र

 मुझे तो अबतक किसी वैसे व्यक्ति से भेंट नहीं है जो त्रिकालदर्शी कहे या माने जाते हों । ऐसा इसलिए भी कहा जा सकता है कि मैंने कोई लम्बी आयु नहीं बितायी है । न मैंने इतनी उम्र में भौगोलिक यात्राएँ हीं की है । न समष्टि का साथ मिला है न सुनने समझने का अवसर ही पाया हूँ । अगर शिक्षा पाने की बात ली जाय तो अबतक में इतना ही सुन पाया हूँ कि शिक्षा कम्पलसरी हो गयी है । कई प्रकार के सिलेवस बन गये हैं , उनका अनुशीलन चल रहा है । अब तो विद्यालयों में इतने छात्र है कि अपेक्षानुकूल शिक्षक नहीं जो पढ़ा पायें । इसलिए शिक्षा का प्राइवेटाइजेशन ( निजीकरण ) स्वतः आसमान छूने लगा । पढ़ाई ऐसी चल रही है जैसे डिफिकल्ट रेस ( कठिन दौड़ ) । जहाँ दिक्कत हो फांद लगादें । कठिनाइयों को किनारे लगाते चलें । व्याकरण पर ध्यान देने की जरुरत नहीं । उच्च विद्यालयों के शिक्षक आज प्रैविटकल कराना नहीं जानते तो होता भी नहीं । बिना प्रैविटकल की परीक्षा दिये उत्तीर्ण होंगे । छात्रों की संख्या अपार हो गयी , कॉपी देखा जाना निर्धारित समय में सम्भव नहीं । बिना कॉपी देखे परीक्षाफल घोषित । कितनी सरल हो गयी व्यवस्था । इसको कहते है विकास की धारा वह चली । जरा प्राप्तांक के प्रतिशत पर तो ध्यान दीजिए । परीक्षाफल की मर्यादा ” टॉपर ” शब्द में निहित है । आज के प्राप्तांक का मानक सबसे सस्ता 99.99 है । तब तो भाषाई लेखन में जो हस्त एवं दीर्घ इकार उकार विधान आदि सन्धि के नियमोंकर्ता के चिन्ह के प्रयोग ” इक ” एवं ” ईय ” प्रयोग के प्रयोग के व्युत्पन्न पर ध्यानादि को भाषा की गरिमा से विच्छेद कर डाला जा रहा है । यह सब ऐसा लगता है जैसे वस्त्र की शालीनता में नग्नता को स्मार्ट माना जा रहा है । इस दिशा में युग को तराराने वाले डिजाइनर निजता के प्रदर्शन को अत्याधिनिकता ( अल्ट्रामोवीही ) की संज्ञा मानी गयी है । रुप की निखार को उसको एक्सयोज करना ही अभिप्रेत है । इस प्रकार सांस्कृतिक गरिमा के विकल्प के रुप में दूषण को विभूषण की तरह देखा जा रहा है । ऐसी विपरीत सोच मानव के मानस में घुस चुका है । आदि काल से मानव में सृजनात्मक विधान पनपा जिसका सम्बल पाकर उसकी तत्परता में पवित्रता के साथ उत्थान के लक्ष्य कार्य करते थे दृढ़ता और संयम की प्रवल शक्ति कार्य कर रही थी । इसमं संदेह नही । यह हमारा अपना देखा हुआ नही , उसका अनुभव भी नही , किन्तु वैचारिक चिन्तन से इसकी शतप्रतिशत पुष्टि होता है । उसके प्रमाण और कीर्तिमान दोनों ही हमें प्राप्त है । उन पर आज भी शोध होते हैं । विश्व उन्हें देखकर अनुप्राप्ति होता है ।

 उसका इतिहास है । उसका विज्ञान है । तब तो उसकी गरिमा अक्षुण्ण है । यह सब चेतना चिन्तन प्रयास , युक्ति और कर्म कौशल का प्रकाश फैला तो हम विकास का पथ निर्माण का पाये । उसका दान जगत के लिए वरदान साबित हुआ । एक मार्ग निर्धारितहुआ उत्तम जीवन पथ पर बढ़ने का । इससे एक नया स्वरुप निखर पाया सभ्यता और संस्कृति का । एक पहचान बनी मानव जाति की या मानवता का मार्ग प्रशस्त हुआ । क्रमशः दुनियाँ वाले अपने संसाधन और कौशल का प्रयोग करवे हुए अपने आप को सुरक्षित सुगठित और समृद्ध बना पाये । इस तरह विश्व के धरातल परएक मानव का सौर्य गौरवमय इतिहास रच डाला । कला शिल्प , ज्ञान , विज्ञान , कृषि , उद्योग , बाजार , यातायात , जीवन के नूतन साधन सामग्री जुट पाये । मानव उसका अधिकारी बना । आज देखिए सम्पूर्ण जगत पर मानव का साम्राज्य छा गया । आकाश और सागर भी उसकी कर्म स्थली बने । आज विज्ञान की तेज रफ्तार में दुनियाँ की दूरी सिमट कर तलहथी पर दीख रही है । किन्तु एक दिक्कत भी खड़ी नजर आ रही है , वह यह कि उसके उपर ध्यान चोरो का है । सीधे लोग धोखा भी खाने लगे है । चलिए , हम तो ऑनलाईन है ।

 ” जब हम सब कुछ पा गये ” ऐसा मन में आभास हुआ तो अहंकार के बादल मोटे होने लगे और स्वयं के प्रकाश को रोक पाये तो मानव अपनी सोच की दिशा बदलनी प्रारंभ कर दी । उसकी विचार धारा में अस्मिता महत्त्वाकांक्षा , साम्राज्यवाद पूँजीवाद , उपभोक्तावाद की गरमाहट में गरीबों के खून पसीने बने । अमीरों के घरे में धी के छौक लगे तो गरीबों की कराही में फोड़न का गणित गड़बड़ाया । गनीमत है कि हम सबसिडी अनुदान और आरक्षण के अधिकारी बने टकटकी लगाये जी रहे थे । एक सुधरी सी सरकार मिलने की प्रत्याशा है ।

 बदलती सोच में संस्कृति को सिक्का टलहा दीखने लगा और और आर्थिक समृद्धि जोड़ पकड़ी । यह युग 16 वीं सदी का वैज्ञानिक अविष्कारों का था । पूरा रोकने औधोगीकरण पूरे विश्व में अपना बाजार फलाकर उपर उपनिवेशवाद की नींव जमी । स्वाभाविक ही था कि व्यस्तावादी । रोजगार पैदा हुआ । आर्थिक लाभ की दिशा मिली । व्यवसाय को एक विस्तृत आयम मिला । विश्व संस्कृति में भौतिकता को सुदृढ़ता के साथ अपनाया जाने लगा । बढ़ती आय , सुखापयोग के साधन और वैभव विलास की प्रवृति को संग्रह की लालसा सताने लगी । भोग और व्यसन की मानसिकता अमानुषिक दिशा पकड़ी । तो मानव अब दानव क्यों न बने ?

 इतना तो सबों के लिए विचारणीय रहा कि राजतंत्रीय व्यवस्था में जबतक साहित्य कला , धर्म और आध्यात्म का प्रचलन पाया गया उसकी शुमिता बनी रही किन्तु भौतिकता में जुड़ते ही उसकी जड़ कमजोर पड़ने लगी अब सांस्कृतिक गौरव पर ग्रहण लगना स्वाभाविक पाया जा रहा है राजनीति मानवता को पोषक कभी न रहा । सौद्धान्तिक नीतिवाद व्यवहारिक रुप में धोखा ही साबित होता रहा ।

 जरा विचारणीय ग्रंथों से हमारी लगाव हटा और रुचि भी मृत्प्राप्त हो गयी । सत्संग का समय नहीं । शुचिता संयम , धीरज , सहनसीलता की जगह पर उदातता आदेश दुराव घृणा , अकर्मलता , अनुदरता , असंतोष , लोभ और परिग्रह पालते पार्द्धक्य प्राप्त कर गये । इसके लिए जनतंत्रात्मक व्यवस्था की नीव पड़ी । आशा बंधी कि अपने लिए अपने सरकार बनेगी तो विश्वबन्धकत्व और मंत्री भाव के साथ सामाजिक सरोकारों को निर्वाह हो पायेगा किन्तु जिसे पोषक होना चाहिए था , जन आकांक्षाओं को आदर मिलना जिसका लक्ष्य था वही उसका शोषण और दोहन प्रारंभ किया । आज उसकी गरिमा जाती रही और जनतंत्र कमजोर पड़ता गया । हमने सुना , जनवाद , धनवाद , न्यायवाद जिसमें मानवता की स्पष्ट झलक मनवचन और कर्म में लक्षित स्वाभाविक सरल सुगम और सुलभ है । इस युग में तो सहज प्रतिक्रिया , अपेक्षा आक्रोश , असहजता बर्वरता हिन्सा और अत्याचार का प्रावल्य है । भय आतंक और सुरक्षा का वातावरणर्ता जहाँ मानवता संत्रस्त है । सोच और अभिव्यक्ति पर दिशे स्वाभाविक है वहाँ जनतंत्र एक मुलावाही फिर सुयोज्य नागरिकता का प्रदर्शन संभव हो सकता है । जनतंत्र में नागरिकता का पाठ पढ़न और समझना ही राजनीति होनी चाहिए राजनयिक अपने आप को राजा जैसा ही मान बैठे तो वे कभी जनतंत्र के रक्षक नहीं हो सकते । उनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा की जगह जनआकांक्षा को आदर चाहिए ।

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