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 मन – प्राण की आँख मिचौनी में स्वास्थ्य – चर्चा

( डा ० जी ० भक्त )

विधाता ने मानव का शरीर रच कर पंच ज्ञानेन्द्रियों को विकसित कर भेजा जो महान लक्ष्य लेकर धरती पर अपना पॉव तो रखा लेकिन जगत की माया में वह बुरी तरह जा फँसा । उसकी चेतना में मन अधिक सम्वेदनशील है । बुद्धि की भूमिका ज्ञानात्मक और निर्णयात्मक है तो विवेक नियंत्रण करता है । ये तीन मानस के पृथक क्षेत्र होने से अति चेतन सृष्टि का शिरमौड़ बना ।
 कर्मेद्रियाँ भी अपना भोग चाहती है , ज्ञानेन्द्रियाँ भी । यहाँ इन्द्रियाँ भोग के मात्र माध्यम रुप में काम करती है जबकि उसकी तृप्ति मन के माध्यम से होती है । अब सारे भोगों का आनंद अनुभव कर वह किन वस्तुओं से ज्यादा सन्तुष्टि पाया वह उसकी पसन्द बनी । जब उसकी पसन्दगी पखान पर चढ़ी तो वह उसी के पंजे में जा फँसा । उसकी वैसी आदत बन गयी । उसका व्यसन बना । इस प्रकार भोग की मानसिकता देह और प्राण से खिलवार किया । मनोबल उन दोनों की प्रयोजनीयता पर भारी पड़ा । बुद्धि एवं विवेक दोनों ही का पराजित होना जीवन पर संकट तो लायेगा ही । शरीर अपनी क्षमता से ज्यादा या समय के सापेक्ष विविध कष्ट प्रकट होकर उसे क्षीण , शक्तिहीन एवं सुरक्षातंत्र को भी कमजोर भूमिका में लाकर मृत्यु का आहान बना । परिणाम यह हुआ कि अपना स्वार्थ , उसकी ममता , और उसके भोग की प्रत्याशा उससे मुक्ति न चाहकर कष्टकारक होने के बावजूद उसे आमरण ही अपनाता रहा . अब बताइए उसकी अन्तिम गति क्या हो सकती हैं ।
 ऐसी कितनी बातें होगी जो स्वास्थ्य समस्या का कारण बनेगी । दैनिक दिनचर्या के विधान में व्यवधान आना । जीवन स्तर में अप्रत्याशित परिवर्तन , विषम भोजन , ऋतुचर्या का पालन न होना , मौसम के प्रभाव , दैनिक जीवन के अव्यवस्थित कार्यकलाप , आदतें , दुर्व्यसन , यात्रादि के विशेष प्रभाव भी शरीर पर असर लाते हैं । कुपोषण या पैतृक रुप से रोगों के प्रसार , दुर्घटनाएँ आदि शरीर को जर्जर बनाते एवं दूरस्थ प्रभाव डालते हैं । कुपथ्य सेवन विविध प्रकार के रोगों को निमंत्रित करते एवं प्रेरक बनते हैं । ऐसी परिस्थितियों के प्रति हमारा सतर्क और सचेष्ट रहना रोगों से बचाता है साथ ही स्वास्थ्य की रक्षा होती है।
 कुछ लोग स्थायी रोगी पाये जाते हैं । उन्हें सदा सतर्क रहने , संयम बरतने , अनुभवी चिकित्सक के सुझाव पर दवा का नियमित सेवन आवश्यक होता है । हमारी भारतीय जीवन पद्धति में आयुर्वेद के सिद्धान्त पर आहार , निद्रा और ब्रह्मचर्य पालन , पथ्यापथ्य का ख्याल . भारतीय व्यंजन और स्वास्थ्य के नियमों के अनुसार मौसम , काल और शारीरिक क्षमता एवं प्रकृति का ध्यान रखकर बरतना हितकर ही नहीं , आयु , मेघा , स्मृति तथा पुष्टता , बल , कौशल के साथ जरा , मृत्यु एवं काल पर विजय पायी जा सकती है ।
 धर्मार्थ कानमोक्षानां प्राणः संस्थिति हेतवः ।
 तन्निधता किं न हतं रक्षता किं न रक्षित ।।
 विद्वानों का कथन है कि धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ये सभी प्राण की स्थिति जब तक शरीर में है , अर्थात जब तक जीवन है उपरोक्त फलों के दाता है । इन प्राण और देह की रक्षा करने वाले क्या न पाये तथा इसको असुरक्षित रखकर क्या न गवाए ? अर्थात अपना ही विनाश किये ।
 शरीर ईश्वर अंश आत्मा का निवास है उसकी रक्षा हमारा परम धर्म और जीवन का महान श्रेय दिलाने वाला है । शारीरिक और मानसिकशुचिता आत्मा का सम्मान और भक्ति भाव है । यही इस लोक में मुक्ति का द्वार खोलने वाला भक्ति मार्ग है । यही विष्णु ( भक्ति से पूरित ज्ञान और कर्म ) भगवतत्रयी मंत्र कहलाता है ।

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