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मानवीय प्रवृत्ति , हमारा विश्वास और विचारधारायें

 डा ० जी ० भक्त

 हम सृष्टि के एक अंग है इस धरती पर । इस धरती ( पृथ्वी नमाक ग्रह ) पर सृष्टि की जो सत्ता काम कर रही है . उसके दो स्वरुप माने गये – जड और चेतना । वैज्ञानिकों की पहुँच और हमारी दृष्टि में सृष्टि की सम्भावना वही पायी जाती है जहाँ जल प्राप्त हो । जल को दो गैसीय पदार्थ – हाइड्रोजन ( H2 ) और ऑक्सीजन ( O2 ) द्वारा संगठित यौगिक माना जाता है जो जीवन के लिए जरुरी है । वैज्ञानिक विचार धारा में साफ – साफ बताया जाता है कि इन दोनों तत्त्वों की उपस्थिति जहाँ सम्भव होगी . वह क्षेत्र जीवन के लिए उपयोगी माना जायेगा । इस प्रकार मानव ( वैज्ञानिक ) ब्रह्माण्ड के ग्रहों उपग्रहों पर अपने यात्रा अभियान में जल की सम्भावना की खोज कर अनुमान लगाते है कि वहाँ पर जीवन सम्भावित है । अर्थात उसका यह तात्पर्य लिया जाता है कि वहाँ कभी जीवन रहा होगा अथवा वहाँ जीवन स्थापित किया जा सकता है । अगर कहीं ऐसे योगिक पदार्थ मिले जिनमें H2 , एवं 02 , वर्तमान हो । आक्साइड , हाइड्रोआक्साइड , कार्बोनेट तथा हाइड्रोकार्बन में ये तत्त्व विद्यमान पाये जाता हैं ।

 हमारी चाह , खोजने , पाने , सोचने , अनुमान करने , सम्भावना दर्शाने के भाव ही हमारी प्रवृति है । अबतक का हमारा अनुभव ही विश्वास के कारण रुप ज्ञान है । इसी विश्वास पर विचारधारा बनती और तदनुरुप काम करती है जिसे हम खोज अनुसंधान कहते है । यहाँ खोज एक विचारधारा का निर्माण तथा प्रयोग कर किसी नये पदार्थ का निर्माण हमारा अनुसंधान कहलाता है । आज दुनियाँ के वैज्ञानिक धरती पर अनपेक्षित घटनाएँ जो जीवन के लिए खतरा साबित हो रहे हैं , इससे सृष्टि का विनाश सम्भव है । इस हेतु ब्रह्माण्ड में इतर लोक की खोज प्रारंभ है जहाँ धरती जैसा जीवन बसाया जा सके । जीवन का विकल्प बने ।

 ठीक इससे मिलती जुलती समस्या जीव जगत के लिए उसके अस्तित्त्व की समाप्ति की संभावना को लेकर वैज्ञानिकों में चिन्ता व्याप्त है । चिकित्सा विज्ञान पर मानव का भरोसा ( विश्वास या अटूट विश्वास ) अब टूटता सा नजर आ रहा जब कोरोना पर विजय पाने में विफलता पायी जा रही है उसके कारणों की खोज होनी चाहिए । इसके लिए प्रभावी दवा चाहिए या अपने अबतक के ज्ञान में , या चिकित्सा प्रणाली में छिपे दोषों को ढूढ कर उसके निवारण के तरीके और साधन जुटाकर समाधान निकाला जाय इसकी भी आवश्यकता तत्काल आवश्यक प्रतीत हो रही है ।

 आज 208 वर्ष पूर्व जर्मनी में डा ० हनिमैन ने अपनी एलोपैथिक प्रैक्टिस में दवा के प्रयोग को रोग निवारक नहीं पाया । उसे मात्र रोग लक्षणों पर अस्थायी रूप से प्रभावी या रोग लक्षणों को सामयिक रुप में घटा देना ( आराम दिलाना ) मात्र पाया एवं अपने प्रयासों से एक नवीन चिकित्सा सिद्धान्त की खोज कर ली एवं उसको विधिवत स्थापित कर विश्व को आरोग्यकारी चिकित्सा विधान सौंप गया । आज वह विश्व के 200 देशों से अधिक में अपनी सेवा दे रही है जबकि उसके विपरीत अब भी एलोपैथी में आरोग्य करने के लक्ष्य पर कोई सफलता नहीं मिली है बल्कि उसकी जगह आजीवन रुग्न विकलांग , निकम्मा , दवा का गुलाम बनकर जीने के लिए लाचार बना रही है । रोग जटिल और असाध्य रुप ले रहा है । धन का क्षण , कर्ज , परतंत्रता , कष्ट भरा जीवन और भविष्य की चिन्ता बढ़ाने की एक कमजोर कहे या कठोर व्यवस्था बन कर रह गयी है । उसे वे समझ रहे हैं । कि चिंतित भी हैं । इस कोरोना काल में घुटने टेक चुके हैं । कर्त्तव्य विमूह बैठे वैक्सिन की प्रत्याशा पाले चुप हैं । किन्तु अपनी जगह पर कायम है । उन्हें पोषण मिल रहा है । वे स्वयं अपनी भूमिका को कमजोर कर रहे है । उस समय भी हनिमैन ने अपनी दवा को स्वयं पर प्रयोग कर फिर वाद में स्वस्थ मानव समूहों पर प्रयोग कर ही दवा चलायी । आज वैक्सिन के परीक्षण पर भी सहमति न बन रही । चिकित्सक आगे आना नहीं चाह रहे । उनमें भय व्याप्त है । मानव समाज चिन्तित है । पूरे विश्व में यह स्थिति है । होमियोपैथ भी सक्रिय नही हो रहे । विश्व की सरकारें भी इस दिशा में मौन है । कारण का पता नहीं चल रहा । जो सरकारें अपने को कोरोना का योद्धा करार कर रखी थी , पीछे हटकर अर्थव्यवस्था सुधारने में लग गयी । जब आप अपने को स्वस्थ मान रहे थे तब तो आपकी विषम अर्थव्यवस्था चल रही थी । अब लॉक डाउन तोड़कर आप ने दिशा बदली तो कोरोना का ग्राफ उठने लगा । आप चुनाव और अर्थ व्यवस्था की ओर बढ़ रहे । सत्यता और सही समाधान क्यों नही खोज रहे ?

 हम स्वस्थ रहेंगे । आपको हमारा साथ मिलेगा । अवसर , समाने खडा है । विवादित और अनुपयुक्त औषधि पर क्यों टिके हुए है । होमियोपैथी को ट्रायल में क्यों नहीं ला रहे । बड़े – बड़े चिकित्सक अपनी सेवा भरने के भय से छिपकर कर रहे है । सरकार अबतक उन्हें सम्मान दे रही है । मेरे विचार से होमियोपैथी सस्ती सुगम , सरल , सुविधा जनक है , निरापद भी है । उसे आजमाने में क्या भय है । भयभीत योद्धा शब्द किस डिक्शनरी में मिला था ?

 जब सरकार ही अपनी जिम्मेदारी अपनी व्यवस्था पर ही निर्भर रहकर रही है तो वैकल्पिक पद्धतियों को भी उत्साहित करनी चाहिए । उसकी उपयोगिता की पहचान होने से कल्याण भी हो सकता था । सरकार के हाथों ही विश्व में कोरोना का उपचार चल रहा है मरने वाले रोगियों के सभी शर्यों का पोस्टर्माटम करके शव का दफन होना चाहिए । कोई मेडिकल समस्या या कमी मिलने पर शोध होता । कारण सामने आता । उपचार चलता । भविष्य के लिए मार्ग खुलता ।

 आप आज स्वीकार कर रहे हैं कि पूर्व के मरीजों , असाध्य पड़े रोगियों को कोरोना ज्यादा प्रभावित कर रहा है । मृत्यु पर ( विश्व की ) इतनी समृद्ध व्यवस्था में इतने मरने वाले रोगी क्यों पाये जा रहे । ये पहले आपकी चिकित्सा और व्यवस्था का लाभ क्यों नहीं पाये । असुरक्षित आरोग्य नामक शब्द कहाँ से आ रहा ? ये सारे सबाल हम चिकित्सकों पर आ रहे हैं । इस पर चुप्पी क्यों ? अगर सेवा नहीं , आरोग्य नही तो सम्मान किसी गुणवत्ता पर हमे दिया जा रहा है । ये सारे सवाल मानवता को समर्पित करते हुए विचारणा और सम्वेदित होना आज की गम्भीर सोच का आवाहन करता है । विश्व के विचारक और मानवतावादी जन अपने सुविचारों , सुझावों द्वारा जागृति लाये चुनाव और सरकार का क्या मकशद है स्वस्थ आवादी से देश चलेगा कि रुग्न सरकार से । सरकार को जनता खड़ी करती है । देश से कानूनन लॉक डाउन टूटा है । व्यवहार में चालू है सरकार ही कहती है तो मतदाता कैसे रुग्नव्यवस्था में बाहर निकलेंगे । आप जरा इस पर भी अपना मत साझा करें ।

 यही होगी सयोग्यता , समाज सेवा और कर्मठता की पहचान । जिस पर चलता है आपका चुनाव अभियान ।।

 उसे आप कोरोना काल की करुणा पुकार माने या देश भक्ति दर्शाने का आह्वान । उस अस्तव्यस्तता के बीच हमें देश के हित का भी विचारकों का सकारात्मक योगदान चाहिए वयानों को तीर नहीं ।

 यह एक देश भक्त की पुकार है । दिनरात अपने विचार आपके सामने सविनय निवेदन करता आ रहा है । भारत की धरती से मानवतावादी चिकित्सा प्रणाली से इतना ही चाहता हूँ कि चिकित्सा वैज्ञानिक का विधान ही अपनाएँ ।

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