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 मानव दुखी क्यों ?

 विश्व के बहुतरे सन्तों ने सृष्टि को दुखों का अपार सागर ( भवसागर ) कहा या माना । इस भव सिन्धु को पार पाने का मार्ग ईश्वर भक्ति बताया । ईश्वर तथा ईश्वर की पहचान , मान्यता और विश्वास , मुक्ति के रुप और विधान को लेकर नाना पुराण और निगमागम वेदों शास्त्रोपनिषदों की रचना हुयी । एक दुर्गम मार्ग ओर छुद्र जीवन की बाधाएँ और विधाएँ भी अपरम्पार है जिसमें प्रवेश तो कठिन है ही , उसकी परिणति पा लेना कितना दुष्कर है , शायद इसी विकट प्रश्न को लेकर जीवन को दुखमय मान लेना पूर्णतः युक्ति संगत नही लगता । एक छोटा सा तर्क मेरा कि यह सृष्टि जब चिर सच्चिदानन्द परमश्वर की रचना है तो दुखद मानना सर्वथा विचारणीय नहीं लगता ।

 जिसे हम परमेश्वर की रचना मानते हैं वह अणु रुप दो भौतिक सत्त्वों के संघात से जुड़कर संसेचित और विकसित होता है । यह संघात दो पंच भौतिक काया की विपरीत सत्ता के सम्पर्क से है जिसे प्रकृति पोषण दती है और एक भी पंचभौतिक काया ( देह ) संतान जन्म लेती है तथा प्राणहीन देह छोड़कर पंचतत्त्व मे मिल जाती है । कुछ लेकर नहीं आती है न कुछ लेकर जाती है । कुछ देकर तो जरुर जाती है वह इसी देह द्वारा अर्जित या वशीयत में प्राप्त सम्पत्ति या निधि होती है ।

 इस प्रकार जिस परिवार में वह जन्म लेता है अपनी आवश्यकताओं के सन्दर्भ में उसे कर्म करना पड़ता है । उससे अर्जन होता है । जरुरत की पूत्ति के अतिरिक्त भी जीवन में धन लाभ पाता है । भरणोत्तर भी अपनी तरह अपने परिवार के उत्तराधिकारी को सम्पत्ति छोड़ जाता है । आवश्यकताओं की भी सीमा नहीं । उनकी स्पर्धा में वह विपुल धन पाने का प्रयत्न करता है । धनी बनने , सुख पाने , ऐस्वर्य जुटाने , दान , परोपकार तीर्थाटन , यश कमाने आदि के लिए उसके प्रयत्न चलते रहते हैं । उसी बीच कभी वह नकारात्मक दिशा पाकर अपनी अर्जित सम्पत्ति को बर्वाद कर देता है । भोग , व्यसन रोग आदि में धन बर्वाद होता है । जिसके कारण गरीबी ग्रसित करती है । पाप से पश्चाताप , गलती पर शोक , अपमान से ग्लानि , अपराध से दंड आदि भागना पड़ता है । ये सारे विषय दुखद हैं ।

 प्राणियों में देह के रक्षार्थ भोजन चाहिए । परन्तु भोजन कई भागों में विभक्त जाना जा सकता है । मन की भूख , इन्द्रियों की भूख और शरीर की आवश्यकता पूर्ति की भूख । मन की भूख तो अनन्त है । इन्द्रियों की भूख अपनी – अपनी है । शरीर की भूख परिस्थितिवस आती – जाती , धरती – बढ़ती है । इन्द्रियों को भूख से इन्द्रियों की तृप्ति होती है । मन को अनुभूति मिलती है । सुखद एन्द्रित अनुभूतियों से मन व्यसनी हो जाता है । कुछ व्यसन संस्कारगत प्रवृत्तियों से इन्द्रियों को प्रभावित करता है । अतः इन्द्रिय निग्रह से ही संयम आयेगा ।

जन्म से प्राणी प्राकृतिक है । परिवेश पाकर इसकी प्रवृतियाँ चयनात्मक होती है । चेतना या बुद्धि से प्रवृत्यात्मक कर्म पर नियंत्रण होता है । चेतन प्राणियों में ज्ञान और कर्म पर प्रवृत्तियों का प्रभावी होना भी संयम की अपेक्षा रखता है । अगर वह स्वेच्छाचारी , महत्त्वाकांक्षी , व्यसनी और अविवेकी हो तो उसे सारे नकारात्मक भाव प्रकट होंगे और दुगुणों का प्रवेश होगा । अतः चेतना का परिष्कार ज्ञान से सम्भव होगा । ज्ञान में संयम और नियम अपेक्षित है । ज्ञान पर मोह का प्रभाव न पड़े तो दुर्गुण से बचा जा सकता है । मोह से बचने के लिए माया का परित्याग आवश्यक है । जिसके ज्ञान सात्विक प्रवृति के होगें तथा जो स्जोगुणी एवं तमोगुणी होंगे उन्हें योगम्यास से परिवर्तित किया जा सकता है । अतः पूर्ण निष्ठा ( श्रद्धा तथा विश्वास या आस्था के साथ ) प्रतिबद्धता और धैर्य से ही सम्भव हो सकता है ।

 ये सारे विधान आत्मिक शुचिता के साधन बनते हैं । अगर हम सुख को भोग मानते है तो वह कदापि श्रेयकारक नही , उसे संतोष दायक होना चाहिए नहीं तो भाग रोग कारक ही साबित होगा । मानव प्राकृत प्राणि होने से सामाजिक तो है ही , चेतन होने से वैश्विक भी है । उसमें प्रेम , दया , क्षमा , कृपा , दान , त्याग , परापकार आदि जागतिक कल्याण के साधन और पारमार्थिक लक्ष्य की सिद्धि हेतु सद्भाव सहयोग , एकता , समरसता , समृद्धि , शान्ति , स्वतंत्रता , भ्रातृत्त्व आदि का समावेश उसे श्रेय , सम्मान , नेतृत्त्व और सदाशयता दिलाने वाला है ।

 जिस प्रकार नकारात्मक चरित्र विधान मानवता का दूषण बना वैसे ही असंयमित कर्म , असंयमित व्यवहार , नकारात्मक भाव , और अनीति का प्रचलन समाज और राष्ट्र के विकास में बाधक बनता है । राजनैतिक अपकर्ष और वैश्विक आतंक , वैदेशिक कूटनीति और मानतावादी सिद्धान्तों का पतन या मानवाधिकारों पर शिकंजा भी विश्व में अशान्ति का आमंत्रण बनता है ।

 वैज्ञानिकों , राष्ट्रवादी संगठनों , सुरक्षा तन्त्रों , व्यावसाइयों और अतिवादियों के द्वारा राष्ट्र और विश्व को एक दूसरे से पृथक समझकर चलना विध्वंसक मानसिकता की तैयारी कही जा सकती है जैसा आज महाशक्ति राष्ट्रों द्वारा अपनाया जाता है । ऐसी परिस्थिति सृष्टि को विनाश की ओर ले जाने वाली है और वह ब्रह्माण्डीय एकता पर धातक प्रहार होगा । इसकी तुलना कभी भी लंका के राम – रावण युद्ध या महाभारत के युद्ध , प्रथम या द्वितीय विश्व युद्ध आ गया है । इसलिए आज मानव की जो दुखद स्थिति है वह रावण या कंस के अन्त से नही सलट सकता । उसके लिए मानवतावादी लड़ाई की जरुरत समझी जा रही है ।

 भौतिकवादिया का विचार वैभव विभीषण जैसा विमोहित है । उस जगह राम द्वारा दर्शाये गये आयुधों पर ध्यान टिकाना ही अभिप्रेत है । भक्ति और भगवान पर आस्थावान होना ही पड़ेगा । अवका युद्ध नागासाकी जैसा नहीं होगा जिसमें पूरी मानवता की नाक कान कट रही है । सम्भव है कि राष्ट्रा से मानव ही विलुप्त हो जायें ।

जीवन का सार श्रेय या यश अथवा आत्मिक सन्तुष्टि का मूल्य हमारा चरित्र निर्माण होना चाहिए । लेकिन हमने चरित्र पाला । हमारी संस्कृति का यह एक दूसरा पहलू है । हमने अपनी संस्कृति को खोया नहीं है , उसके कुछ अंश को लोग बचाकर रखते है । उसका प्रयेग दूसरों को छलने के लिए वैसे करते है जैसे चिड़िया को फँसाने के लिए धोखा की टट्टो सोधे चलता है सत्य और इमानदारी ये दो शब्द अवश्य वैसे लोगों को याद है जिसका प्रयोग वे कसमे खाने मात्र के लिए करते हैं । सत्यतः उन शब्दों का उनके जीवन से कोई सम्वन्य नही होता । यही रह गया है हमारे चरित्र में । यह बिल्कुल शोधा हुआ चरित्र है । इतना ही मात्र हमारे विश्वास की कसौटी है । जो कसम खालिया वह भवसागर तर गया । अब तो दुख नही होना चाहिए । हम चरित्र वान तबतक है जबतक दो ही व्यक्ति अवगत हो । जब तीसरा पुरुष जान गया तो चरित्र में बचा क्या । सच कहूँ तो ऐसा लगता है कि जो दुख गरीबी से हमे नही होता वह हमे मनुष्य की कुचरित्रता से होता है । क्या इस मूल्य पर हम विश्व प्रेम को परिभाषित कर सकते हैं ? या ईश्वर के स्वरुप को अपने हृदय में बैठा सकते है ? यह भी दुख का कारण है । हमारे विश्वासों , व्यवसायों और लोक संबंधो में अपने मन के ईश्वर पलते हैं , पूजे भी जाते हैं । किन्तु निष्ठा में ईश्वर कहाँ टिक पाते और इतने पर भी उन्हें कोई परवाह भी नहीं , ऐसा भी हम हो चुके हैं । बिलकुल विमुख , तो विश्राम कहा , चैन कहाँ और शान्ति कहाँ ? इसीलिए मानव दुखी है । प्रकृति की अवहेलना हो रही है । दुख का कारण ईश्वर की उपेक्षा नहीं , आत्मीयता पर कुठाराधात है । हम अपनों को भूलकर , भुलाकर भी भ्रमित और संसकित हैं । अन्यथा ,

 यह जगत स्वर्ग है , चारों फलों का प्रदाता । ..आखिर हमें अपने को , हृदय को भी तो पहचानना चाहिए कि उसकी धड़कनों में कौन – कौन है , लेकिन हम तो आवारा की तरह भटक रहे हैं ।

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