मुक्ति का मार्ग
डा० जी० भक्त
मेरे विचार से सुख में संतुष्टि मात्र ही सुखद मार्ग है । सुख का विपरीत भाव दुःख है । सुख – दुख जीवन के दो छोर हैं । जन्म लेना भी कष्टकर दृष्टिगत होता हैं क्योंकि जन्म लेते समय शिशु रोता है । मृत्यु भी कष्टकारी है । अगर हम जन्म को सार्थक समझते है तो जीवन की जिम्मेदारी हमें पूरी करनी होगी । पूर्णता में ही सफलता या सार्थकता निहित है । अगर अभाव में जीवन जीना पड़ा तो सुखद कैसे माना जाय क्योंकि अभाव में सन्तुष्टि कैसे मिल सकेगी ? वहाँ पर धैर्य धारण ही सुखद और संतुष्टिदायक माना जायेगा ।
मानव जीवन में भी अकेला नहीं , उसका संबंध किसी भी तरह से समाज से जुड़ा है । उसका जुराब ममता से जुड़कर जटिल जीवन बन जाता है । अतः जीवन से आत्मा का संबंध विच्छेद सम्भव नहीं , वह बन्धन साक्ति होता है । उससे परतंत्रता का भाव पैदा होगा , जो न सुखद है न संतुष्टिदायक ही । अगर समष्टि बोध में एकात्म भाव , निजता या प्रेमापन्नता सिद्ध हो तो एकता में समरसता भी सन्तुष्टि लायेगी ।
मानव जीवन में आवश्यकताएँ भी अर्जक एवं सर्जक भाव की अपेक्षा रखेगी । उसमें दायित्त्व बोध आयेगा । इन जिम्मेदारियों में कदाचित वह सफल न होकर शोक , दुख या ग्लानि से ग्रसित होकर भी सफलता से सुखानुभूति एवं संतुष्टि पाये तो श्रेय होगा । इससे आगे वह संग्रह का भाव रखने लगे तो स्वार्थी होगा किन्तु उसमें त्याग फले तो श्रेय पायेगा । जब उसकी आत्मा स्वान्तः सुखाय जीवन से मुक्ति न चाहकर भी जीवन की दुस्वारियों से मुक्त तो हो जायेगा । यहीं उसका सही ज्ञान माग मुक्ति का दृढ़तर मार्ग होगा । सर्व साधारण के लिए भी यह मार्ग सर्व श्रेष्ठ होगा । कर्म क्षेत्र में उसकी परिपूर्णता ग्रार्हस्थ जीवन की सर्व सुलभ निष्कामता साबित होगी ।
जीवन से पलायन मुक्ति नहीं कही जा सकती , वह सन्यास भी तो नहीं , सन्त महात्मा जो जंगलों में आश्रन्य लेकर एकाकी जीवन जीते , ज्ञान मार्गी बनते , वे कर्म से दूर रहकर निवृत्ति मार्ग को अपनाते है संभवतः जीवन मुक्त नहीं होते । चाहे फलाशा का त्यागी सत्यार्थी हो या फल का जन हितार्थ त्याग करे तो वैसा जीवन मुक्ति का आकांक्षी न होकर कल्याणकारी श्रेय का अधिकारी अवश्य होगा । आचार , विचार और सहकार पर ही जीवन की गाड़ी बढ़े । चाहे मोक्ष पाये या परम पद किन्तु चाहेगा कि सृष्टि के कल्याण से जुड़कर जीना तो कभी भी दुखद नहीं और न चिन्ता सतायेगी न मोक्ष की प्रत्याशा ही जगेगी । हम ऐसा जीवन जीना सीखें कि सबकुछ सुन्दर सुखद और सुलभ हो पाये ….किन्तु संतोष और त्याग की भावना कभी नहीं ।
ज्ञान और कर्म विपाक से ही संस्कार बनता है जो परम सिद्धि ही पूर्ण और पूज्य होते हैं , उन्हें ही भग्वदतत्त्व की प्राप्ति होती है ।
दाता माना जाता है । ऐसे लोग कोई कह सकता है कि यह कोई कल्पना है । इसकी प्रायोगिक अथवा योजनात्मक सत्यता प्रमाणित तो नहीं होती , किन्तु ज्ञान और कर्म की शुचिता सदा से महनीयता का सृजन करती आयी है । यह संसिद्ध सत्य है । हाँ , एक बात वर्तमान युग में अवश्य ही सर्वत्र और प्रायः सबों में सामान्य रूप से देखा जाता है कि ज्ञान योग और कर्म योग की सत्यता की ओर प्रवेश भौतिक बाढिता की भाँठ को तोड़ पाना आज कठिन अवश्य है । प्रवृत्ति की निष्पति इन्द्रियों का जो प्रबल प्रखर और प्रत्यक्ष पोषक बन गया है , वह बध , बंधन , ग्लानि और वेइन्साफी कबूल कर भी आज का युग मान चुका है । जो युग बोध ग्रहण करने से पूर्व अपने मानस में स्वीकार कर चुके है कि ” दुनियाँ आज ऐसी हीं है तो मेरे में परिवर्तन से क्या बनने वाला है । ” ऐसी रुढ़िवादिता हमें आज मानवता से दूर ले जा रही है । रोग बनकर असाध्य हो रहा और निदान का मार्ग भी अवरुद्ध कर रहा । संस्कृति मिट्टी में मिल रही और भविष्य अन्धकार मय ।
विचार में बदलाव लायें । संतोष , सबल और धीरज अपनायें ।।