राजनीति का मनोविज्ञान
डा० जी० भक्त
मैंने अबतक कइयों के मुँह से सुन चूँका-
“मुझे अपनों ने लूटा औरों को क्या दम था।
मेरी कस्ती वहाँ डूबी जहाँ पानी ही कम था।।”
यह कथन है एक चिन्तनकार का। जो सचमुच ज्ञान है मनोविज्ञान से निःसृत। ज्ञान इस लिए कि यह अनुभूत सत्य है। विज्ञान छिपा है।
“अपना कौन ? और कौन ? इसमें मन का मनुष्य अबतक जो सीखा है मूर्खा से। मूर्ख ने ही किसी को चेतना की जगाया है। चिन्तन से ज्ञान छन कर आया है। “निगमागम”। निगम और आगम आदि काल में युगों के चिन्तन से उपलब्ध संकलित मूल मंत्र, सूक्त। वह आरम्भ में श्रुति थी जो वेद रचा गया ह श्रुति सम्मत था। ऐसा माना जा सकता है। इसमें जब संकलन है तो रचयिता अनेकों हो सकते है। संदेह नहीं। हम कितना विश्वास करें। समष्टि की सम्मति या सर्वसम्मत नही, एकीकृत। यह मैं कहता हूँ। क्या मैं सम्पूर्ण हूँ ? क्या वही, और उतना ही है? सर्व है? सर्वदा है? सब में है ? ..जो मैं कहता हूँ
आज आप सबके मन की सुनते है। अपनी ओर से भी। आपने जो सुनी और स्वमती साझा कर दी। वह भी जो आपका Self explanatory है। अपने विचार। समष्टि सम्मत ? कही न जा सकती। नोवेल पुरस्कार पाने वाले एलेक्जिस कैरल ने अपनी कृति “MAN THE UNKNOWN” में कहाँ Man is Knowable, Not Known.
आज सम्पति हमारे संसद, विधान मंडलों मे सत्र सम्वाद चल रहे है। चला करते हैं। पक्ष विपक्ष शब्द सामने आता है। दोनों ए.वी.एम. से छन कर आये है। अलग-अलग पार्टी के है लेकिन विजेता है। फिर अलग-अलग खेमें से जुड़े होने से भिन्न सराहे जाते है “विपक्ष.. ..किसका विपक्ष ?
सैद्धान्तिक रुप से विपक्ष राष्ट्रीयता के छन्ने से छन कर निकली राजनैतिक पार्टी की स्वीकृत संस्था के सदस्य नं0-1 और चुनाव के अँखाड़े से जीत पाकर पहुँचे नेता नं0-2। जब सत्ता विश्वास खोने पर कदाचित जरुरत पड़ी तो जोड़ने का विधान अधिकार निहित होने से सत्ता को शक्ति प्रदान करने वाले विपक्षी। क्यों न विभेद पैदा हो (यह मेरा विचार है)।
मैंने कहना (लिखना) शुरु किया था कि हम मूर्खा से सिखते ह होशियार (ज्ञानी) तो आज सजे सजाये विवेकी (चालाक) तथाकथित ज्ञानी होते है। हम उनपर क्या विश्वास करें (राम चरित मानस उत्तर काण्ड में श्री रामचन्द्र जी की उक्ति) हम जो समुदाय के बीच भाव व्यक्त करते हैं उसे प्रमाणित या रामचन्द्र जी ने अयोध्या वासियों से ग्रामीण धोबी द्वारा अपने पर आरोप लगाये जाने के संबंध में सीता को बनवास भेजने के प्रस्ताव को उचित अनुचित सिद्ध किये जाने का भार सौंपे तो कोई अपना मत व्यक्त नही किया। परिणाम सीता का बनवास ।
राम राज्य पर चर्चा होती है। अब बताइए राजनीति का मनोविज्ञान क्या है? शायद सृष्टि की विविधता पर विचारे तो मानव का मनोविज्ञान क्या बतलायेगा वह सबके हृदय का मर्मसर्शी नही है न सर्वान्तर्यामी है। रामजी को अन्तर्गामी जरुर कहा गया है। सम्भव है आयोध्यावासी क्या कहना चाहते थे उसके भावों की अन्तर्हित जानकारी। उन्होंने सीता को निर्वासित किया होगा।
…….तो हम राजनीति के मनोविज्ञान का पहल किस तरह प्राप्त कर सकते हैं ? शायद इस कारण ही जनतंत्र कमजोर पड़ता जा रहा है। जैसे सतयुग से त्रेता, त्रेता से द्वापर और द्वापर से कलियुग। अब क्या होगा ?