Fri. Apr 19th, 2024

रामचरितमानस के परिचयात्मक सोपान

                                                                                                  Dr. G. Bhakta

भाग-2

 भारत वासियों के लिए राम चरित मानस और गीता दोनों ही सर्वतोमुखी विकास के साधन है । राम ने समदर्शी की भूमिका से अपना नेतृत्त्व प्रारंभ किया । उनके समय में मानव मात्र ही नहीं , देवताओ धरती के देवता कहे जाने वाले ज्ञानी नैष्ठिक बाह्मण , गौ और धरती , ऋषि गण तथा अन्य दीन समुदाय एवं वन्य जीवा पर हो रहे अत्याचार की पराकाष्ठा पायी गयी । राम ने अपने बालकपन में विश्वामित्र के शब्द-

” प्रभु अवतरेउ हरण महिमारा ” को चरितार्थ किया । राक्षसों को मारकर उनके यज्ञ की रक्षा की तथा गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार किया । तारका , सुवाह आदि का अन्त उनके प्रथम प्रयत्न थे , जिस छवि को लेकर मिथिला की राजकन्याओं के बीच अवध के दोनों राजकुमार राम और लक्षमण मर्यादित , प्रसंशित और चर्चित रहे । उनकी वीरता की विरुदावलि और रघुकुल की मर्यादा का यशोगान जनकपुरी में आयोजित सीता स्वयंवर के धनुष यज्ञ में उभर कर लक्ष्मण परशुराम संवाद में पूर्णता पायी ।

 चौ ० राम रमापति कर धनु लेहू । खैचहु मिटै मोर संदेहू ।।

 देत चापु आपुहि चलि गयउ । परसुराम मन विसम्य मयउ ।।

 दो ० जाना राम प्रमाउ तब , पुलक प्रफुल्लित गात ।

 जोरि पानि बोले बचन हृदय न प्रेमु समात ।।

 चौ ० जय रघुवंश बनज बन भानू । गहन दनुज कुल दहन कृसानू ।।

 जय सुर विप्र धनु हितकारी । जय मद मोह कोह भ्रम हारी ।।

 विनयशील करुणा गुन सागर । जयति बचन रचना अति नागर ।।

 सेवक सुखद सुभग सब अंगा । जय सरीर छवि कोटि अनंगा ।।

 करौ काह मुख एक प्रसंसा । जय महेश मन मानस हंसा ।

 अनुचित बहुत कहेउँ अज्ञाता । छमहु छमा मंदिर दोउ भ्राता ।।

 कहि जय जय जय रघुकुलकेतू । मृगुपति गये वनहि तपहेतू ।।

 अपमयँ कुटिल महीप डराने । जहँ तहँ कायर गवैहि पराने ।।

 आज हमारे यहाँ माखिक और दिखावटी धर्माचरण और ज्ञान गरिमा पराकाष्ठा पर है किन्तु व्यावहारिक और आचारिक नहीं । किंचित धर्मावलम्बी और साम्प्रदायिक नेता हैं जो नेपथ्य से झांकते हैं ऐसी परिस्थिति में दोहरा चरित्र वं व्यक्तित्त्व कदाचित सम्मान नहीं पा सकता । यहाँ मानवता धोखा में पलती है और कुत्सित जीवन जीने को अभिशण्ता पायी जाती है । हमें ज्ञान को सूझ और समझ की ओर बढ़ाना है तथा विवेक को विस्तार देकर बुद्धि को प्रखर बनाना है । उपरोक्त परिस्थितियाँ हमें लौकिक परतंत्रता से मुक्ति दिलाने में असफल साबित हो रही है । इस हेतु वैचारिक परिवर्तन को पंख प्रदान करना मानव का सही धर्म होगा ।

 अगर हम क्रमागत रुप से राचरित मानस को विश्लेषणात्मक श्रेय के साथ झाँके तो वैचारिक श्रृंखला हमें स्पष्ट रूप से प्रबन्ध काव्य की गरिमा की ओर लक्ष्य करती दिखेगी । बालकाण्ड में राम का बालरुप मानव सुलभ व्यवहार का स्पष्ट चित्र प्रस्तुत करता है । अनुशासन , पठन – पाठन , आज्ञापालन , दिनचा और विशिष्ठाचरण का प्रबोध उनके दिव्यादर्श के घोतक सिद्ध होना नजर आते हैं । एवं प्रकारेण हमें समस्त ग्रंथ के क्रमिक विधान में ग्रंथित विषय प्रसंग की अपनी एक रुपता और एक लयता है । अतः रामचरित मानस का अनुशीलन कालक्रम से चित्रांकनोय बोधगम्य और स्मरणीय रुप में रखना पाठकों सह आध्यात्मिक पुरुषों के लिए अपना खास महत्त्व रखेगा ।

 जहाँ तक मानवीय आदर्श का तात्पर्य है , उसकी सूझ और सोच ने पुरुषार्थ को जन्म दिया , विकसित किया , उसकी उपलब्धियों का लाभ पाया और समाज या सम्पूर्ण जगत के कल्याणार्थ उसका प्रचार – प्रसार किया । उन आदर्शो में विद्या , वाणी , शौर्य या शारीरिक सैष्ठव , वस्त्र और वैभव उसे संसार में गौरव दिलाया । इससे अनुप्राणित होकर वह विकास के पथ का ही अनुशरण किया । इसी पुरुषार्थ की न्यूणता और अधिकता से पराक्रम और दीनता दो स्वरुप सामने आये । उसी के साथ समृद्धि में क्षमा , विपत्ति में धैर्य समाज में वाकपटुता , युद्ध में पराक्रम , यश में रुचि तथा वेद – श्रृति में रति , ये महानता के लक्ष्य या लक्षण बने । वहीं पर मानवता में अभिमान भी समाया और कभी आने पर दीनता की अनुभूति और विनम्रता स्वाभाविक पायी गयी । इन्हीं दो ध्रवों के बीच समाज का काम काज प्रभावित पाया जाता रहा जिसकी कथा व्यथा ही मानव की संस्कृति के घोतक सिद्ध हुए । इसी में दुर्धषता और बर्बरता तक अपनी पराकाष्ठा पायी । पाप पग – पग पर पीड़ा पहुँचाने और मानव अपने ही जनों , कुटम्बियों , एवं पड़ोसियों के पाँव खीचने लगा तो विकट संघर्ष की स्थिति आयी और जय – पराजय का इतिहास लिखा गया । यह स्थिति भी स्थायी न रह पायी । बार – बार इतिहास दुहराता गया । विषय बदलता गया । प्रवृत्तियाँ प्रखर होती गयी । मानवता कड़ाहती रही । इनका ही निदान सोचन में ज्ञान , कर्म एवं भक्ति का उद्भव पराभव भी होता रहा । सत्त्व , रज और तम की पहचान हमारे ज्ञान को सुव्यवस्थित की लेकिन प्रवृत्तियों की दिशा अपनी ही रही । देव और दानव अपनी – अपनी प्रवृत्तियों की सीमा बने । दिव्यता और दरिद्रता की दूरियाँ हमारी पराधीनता के कारण बने किन्तु सृष्टिकर्ता ने सबकाहित सोचकर इस अखिल विश्व की सृष्टि की थी । उसकी रक्षा करना ही या करना भी मानव का कर्तव्य बना । अन्यथा , जगत का दूसरा कोई उद्देश्य या लक्ष्य न रहा । आज भी हमारे बीच वही खेल चल रहा है । हम राम और कृष्ण की याद कर रहे हैं ? नहीं , हम भूल रहे हैं कि ये हमारे पूर्वज थ । हमने उन्हें निर्गुण ब्रह्म का सगुण स्वरुप माना किन्तु पहचाना नहीं । कालक्रम में वह स्वरुप हमारे बीच से तिरोहित हो चला । उसका इतिहास मात्र बचा रह गया जो आज हमारा मार्गदर्शक बना है तो हमें झांकने तक का अवसर नहीं ! हम अपनी दीनता का दुर्दिन गिनते भूले नही समाते तो दिव्यता झलक पायें कैसे ? ।

 गोस्वामी जी ने राम कथा की शुरुआत बालकांड से लेकर उत्तर काण्ड में समाप्त किया । उत्तरकांड का प्रारंभ लंका विजय के बाद हुआ । पुनः अरण्यकांड से अयोध्या आने का विवरण है । वहाँ रावणत्व पर विजय पाकर राम ने अपने बनवास के मित्रों सहयोगियों के साथ समय बिताते हुए यह सोचा अब ये अपने – अपने घर जाकर अपने कार्य में लग जाये और मैं अपना राज – काज देखू । सबों की विदायी करते हुए उन्होंने कहा- ” अब आप अपन कर्म में संलग्न हो जायें और सदा मुझे स्मरण करते रहें । हम भी अपने इष्ट मित्रों को विदा करते हुए कहते हैं- घर जाकर मेरा ख्याल रखा कीजिएगा । बात एक – सी है लेकिन अन्तर है । इही अन्तर को समझने के लिए राम कथा के भिन्न – भिन्न सोपान अपने गर्भ में घनेरों आख्यान छिपाये रखे हैं । हमें उनका क्रमबद्ध भाव जानने का प्रयास करते हुए अपन कर्म क्षेत्र में बढ़ना है । राम तत्त्व को मानस में बिठाते हुए कर्म रुपी साधना में राम का साथ रखना जरुरी है ।

 एक बात और साथ में लाने की है जो राम अथवा कृष्णा दोनों ही बार – बार कहते है कि उनको भजने वाला , गुणगान करने वाला , या भक्ति में जुटा रहने वाला उन्हें सरलता से प्राप्त कर सकता है । सदा सत्कर्म में रत रहना , ज्ञानो , तत्त्वदर्शी , सतसंगी , वैरागी , दानी , परोपकारी , नियम , व्रत्त – अनुष्ठान – यज्ञ करने वालों , दीनों पर दया दिखाने वालो तो अपने अपने कर्मो के अनुसार सुख , शान्ति , संतोष सम्मान और यश पाते हैं । विकार रहित होते हैं । धनी पराक्रमी , सत्ताधारी और अभिमानी अपने द्वारा किये गये दान , परमार्थ और यश पाकर गौरवान्वित होते है , रोग , शोक , कष्ट दंड और बुरी लत पाकर जो पश्चाताप करते है उन्हें सहायता या शरण पाना , वहाँ पहुँचना , यात्रा का खर्च जुटाना , कैसे सम्भव होगा ? वैसे लोगों को एकमात्र साधन सेवा कार्य है , प्रेम दर्शाना है एवं साथ – साथ भगवान के नाम का स्मरण भी एक अंतिम साधन है ।

 माना कि उपरोक्त विधान हमें सांसारिक कष्ट , भ्रम , भय , अभाव से भक्ति और समाज का स्नेह सद्भाव दिला सकता है , किन्तु हमारे कुसंस्कार और हमारे अर्जित दुष्कर्मो से छुटकारा का साधन कौन बनेगा ? वह तो एक मात्र सत्संगति से ही सम्भव है , यहाँ यह भी कहा गया है कि हरि कृपा से ही किसी को सत्संगति प्राप्त होती है अर्थात सबको नहीं मिल पाती । तब तक तो भटकना ही पड़ेगा । इस हेतु बिना व्यय किये अगर कुछ मिल सकता है तो परम पिता के नाम क स्मरण से । इतने पर भी हमारे हृदय में परम सत्ता के प्रति श्रद्धा और विश्वास जगे , द्वढ़ आस्था हो और जो कुछ प्राप्ति हो , उससे ही संतुष्ट रहा करे , तभी जीवन की नैया आगे बढ़ पायेगी । संतुष्ट मानसवालों को जो सुख या सम्पत्ति मिल सकती है वह असंतुष्ट रहकर इधर – उधर भटकने वालों को कैसे मिल सकती है ? यह जो हम पाकर जुटाकर भरोसा पालते है कि वह हमारा सहारा बनेगा लेकिन निष्फल होने पर सगुण ब्रह्म तो मिलेंगे नही , उनके स्वरुप के बदले उनका नाम तो सरल , सुगम और सुलभ है । यह शरण अंतिम शरण है अर्थात और कोई सम्पत्ति नहीं मिले तो राम धन को भी त्यागकर नाम धन का ही उपयोग मानव को पाप से मुक्ति दिला पायेगा । आँख के सामने देखा था बसकित मुशहर को जब वह टी ० वी ० से ग्रहित अकिंचन खाट पकड़ चुका था । बिना किसी की चिकित्सा कराये तीन महीनों तक राम नाम के सहारे पुन जीवन पाकर वर्षो जी पाया और भरने पर ससम्मान उसका निर्वाण हुआ ।

 एक भिखारी सब दिन एक हरिजन गरीब बद्ध के घर पर अंतिम जीवन में शरण लिया । वह भीख मांग कर लाता और उसे दे डालता । वह उसे भोजन बनाकर खिलाता और अपना भी पेट उसी से पालता था । मरने पर उसकी अर्थी के पीछे बहुतेरे शवयात्री गये । सारा समाज उसका दाह संस्कार और श्राद्ध गाँव वालों के सहयोग से उस गरीब हरिजन ने किया ।

 यह जगत सगुण का स्वरुप ( प्रतीक ) मात्र नाशवान सृष्टि है । प्रकृति उसकी सृष्टि की सम्पत्ति है अथवा उसी के लिए है । उस पर लोभियों और भोगियों का कठोर कब्जा है उसे हम निष्काम सेवा से या उस निर्गुण परमात्मा की भक्ति से ही प्राप्त कर सकते हैं । निर्गुण का साम्राज्य सर्वत्र व्याप्त है । उन्हें खोजना कठिन किन्तु पाना आसान है । प्रयास किया जाय । यही परम सत्य है , लोक और परलोग का । समष्टि प्रेम ही आत्यंतिक सुख है ।

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