Mon. Nov 25th, 2024

पाठको सहित देश के नागरिको के प्रति

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अनुरोध
Kshitij Upadhyay Kishor question Ramlila

इस जम्बू द्वीप एशिया महाद्वीप के आर्यावर्त की  भारत भूमि पर भगवान विष्णु के अवतार रूप मर्यादापुरूषोत्तम का पददर्पन जिसप्रकार धरती गौ और ब्राह्मण( वेदों के ज्ञाता ) को राक्षसों के अत्याचार के रक्षार्थ हुआ आज उसी देश में जो विकट परिदृश्य व्याप्त है ,वहाँ राम के आदर्शो :-
            “अग्रत: सकलं शारंत पृष्ठत: सशर: धनु : ” 
का निहितार्थ सिद्ध करना अर्थात जगत गुरु गरिमा की गुणवत्ता में गिरावट तथा हिंसा की प्रवृति को (युद्ध की संभावना  ) मिटाने अर्थात पहले शास्त्र का ज्ञान ,फिर (आवश्यक पड़े तो ) धनुष वाण धारण करने की शिक्षा अपनाना आज कितना प्रासंगिक है | इस पर हमे विचरना चाहिए| 
      आज अयोध्या में राम लला मंदिर का शिलान्यास हमारी धार्मिक अवधरणा और निष्ठा का प्रतीक रूप आदर्श पुरुष के प्रति भारत वासियो का अटूट प्रेम का प्रदर्शन भी है | तथापि आज इसी देश के युवाओ में “रामचरितमानस” के प्रति पठनभीरुचि का अभाव हमे यह कहने को बाध्य कर रहा कि यह मन्दिर निर्माण एक प्रतीक रूप में यादगार बन कर पर्यटकों को आकर्षित कर पायेगा |इसके पर हम क्या कर पाएंगे |जितना हम रामायण से पाते उतना राम मंदिर में नही दे पाएंगे इस हेतु आज का दिन मेरा यह संदेश जो “रामचरित्रमानस एक अनुशीलन ” नामक पुस्तक लेखक डॉ जी .भक्त की देश के लिए अनुपम भेट है ,उसके अल्पांश को उद्धृत कर रहा हूँ |जो देश के उन युवाओ को जिनका श्रम स्नेह राम मंदिर निर्माण में जुटा है ,उन्हें रामदर्श का भी उन्मेष प्राप्त हो |वे राम जैसा बने |राम तत्व का अनुसरण अधिगमन करे |
||जय राम रमा रमन्न शमनम भवताप भयातुर परिजन||
क्षितिज उपाध्याय किशोर
वास्तुकला छात्र

 रामचरित मानस
 एक
  अ 
   नु 
 शी 
  ल 
  न  

-: लेखक :-
डा ० जी ० भक्त
चिकित्सक ( होमियो )

   रामायणसार   

 यो नाम जात्यादि विकल्पहीन : परावराणं परम : पर : स्यात् । वेदान्त वेद्यः स्वरुचा प्रकाशः संवीक्ष्यते सर्व पुराण वेदैः ।।
श्लोक – 30,
वाल्मीकीय रामायण
( प्रथम अध्याय )
रामचरित मानस एकअनुशीलन लेखक : डा ० जी ० भक्त चिकित्सक ( होमियो )

अवगाहन

शब्द सृष्टि की सूक्ष्मता का विस्तार अनादि , प्रखण्ड और अननत मान्यताओं से जुड़ा होना एक असीम कल्पना का सृजन करता है जिसमें ब्रह्मा , काल , कीर्ति , कर्ता , कारण विश्व ( जगत ) और उसका स्वरुप आकलन , विचार धाराएँ एवं उसके बीच मानव की भूमिका पर रचा गया इतिहास का केन्द्र बिन्दु तो मानवीय चेतना का ही फल परिलक्षित होता है ।
उपरोक्त के आलोक में भारतीय सांस्कृतिक यात्रा को तुलनात्मक रुप में सजा पाना और यह निर्धारित कर पाना कि सृष्टि , विज्ञान या मिकैनिज्म , तकनीक है या कल्पनाओं के प्रत्यक्षीकरण से उत्पन्न कलात्मक श्रृंखला ? बड़ा कठिन प्रश्न है ।
विश्व मानस इन्हीं श्रृंखलाओं का आधार , मध्य और अवसान पर अपने विचार गूंथते हुए रहस्य मय चिन्तन में लिपिवद्ध कर मार्गदर्शन प्रस्तुत किया है जो पाथेय बना भविष्य निर्माण का ।
मैं इस पर जोड नहीं डाल सकता कि मेरा विचार ही युक्ति युक्त है परन्तु वैचारिकता की देन ही हमारी सांस्कृतिक पहचान है जो इसे कालखण्डों में विभाजित कर परिचायक बना हुआ है । उसे हम स्वीकारते ही नही , उसका रसपान करते और आत्म तुष्टि भी पाते हैं ।
यह आत्म तोष है क्या ? हम कहेंगे कि वह , हमारी इन्द्रियों की भूख है । वही इन्द्रियाँ जो शरीर जगत में विविध अंग है , क्रियात्मक इकाई , जिनका जीवन निर्धारित है । मृत्यु नियति और जीवन उलझनों से आच्छादित । फिर इसमें हमारा जीना सार्थक हो सकता है ?
ऐसे ही चिन्तनों और उनकी कर्म सीमांसा का केन्द्र हमारा भारतीय सांस्कृतिक लक्ष्य रहा हम इतना अवश्य स्वीकारते हैं कि भारत इसमें अग्रजी रहा है । आज हम अपनी सामाजिक विसंगतियों में अपने कल्याण का मार्ग ढूढ़ते हैं । रामावतार की प्रतीक्षा कर रहे हैं । तुलसीदास तो यहाँ तक कह गये ” सिय राम मय सब जग जानि ” लेकिन हम भटकते जा रहे हैं । भूल का मूल कहाँ है ? आगे देखिए ।

पूर्वावधारणं

जीवन सोचने पर समस्या मूलक परिलक्षित होता है क्योंकि प्रकृति माया रुप है । ऐसा ही ज्ञानियों का कहना है । सृष्टि परमेश्वर की रचना है या प्रकृति का धर्म , मैं समझाता हूँ कि कल्प के प्रारंभ में मूल प्रकृति भी निराकार , अदृश्य रही होगी , तब तो सृष्टि होने की बात उठी होगी । जब निराकार या अदृश्य भाव हम मानते है तो उसका वैकल्पिक नाम सूक्ष्म या अणु रुप हो सकता है । वैसे में मूल प्रकृति को हम ब्रह्म विभू रुप जो अणुओं में गुणात्मक या परिणाम भाव से भरा है , जो भाव प्रकृति में व्याप्त होने से कालक्रम में रुपायित ( स्वरुप ग्रहण करता है ) होकर सृष्टि की संज्ञा पाता है । रुपान्तरण की इस क्षमता को हम माया कहते है । परमेश्वर या प्रकृति का संबंध व्याप्त – व्यापी संबंध है , प्रकृति मायामयी है । ब्रह्म माया रचकर माया से परे हैं । माया प्रकृति से जुड़ी है उसी पर निर्भर अर्थात वह सृष्टिकर्ता मात्र है । भोक्ता नहीं है । ब्रह्म माया नहीं है । वह अक्रर्ता होकर द्वैत रुप में वर्तमान है।कार्य – कारण संबंध से माया परिवर्तनशील और विविधताओं से भरी जगत ( सृष्टि ) रुपा है , किन्तु ब्रह्म या ईश्वर एक है । सम्पूर्ण सृष्टि ब्रह्मा मय है । सृष्टि की अनैकता ही ब्रह्म के अनन्त रुप है । ” सियराममय सब जग जानी ” का भाव इस विविधता में एकता की स्वीकृति है । अगर इस से भाव को दूसरे शब्द में अद्वैत मानें तब भी यही एकता बनी रहेगी किन्तु इसे विभेदक ( मायामय ) माने तो परायेपन का भाव जन्म लेगा जो एक ही सत्ता को दूसरे से भिन्न स्वीकारेगा परायेपन का भाव भासने लगेगा । हम अपने हेतु ज्यादा , तो पराये के लिए कमी का भाव रखेंगे । अपने लिए संग्रह पर सोचेंगे । यही भाव हमारा स्वार्थ कहलायेगा और जब सब में एक ही सत्ता का भाव दीखेगा तो दूसरे के लिए विशेष की बात भी सोचेगा , जिसे हम प्रेम कहेंगे । इसी प्रेम और स्वार्थ का अन्तर दुनियों को बाँटता है , जो हमें कष्टकर लगता है ।
एक दूसरा स्वरुप है ममता या मोह । जहाँ मैं और मेरा का भाव है , हम और हमारा का भाव है , वहाँ ममता खड़ी होती है । वहाँ त्याग दर्शाने में मोह पैदा होता है । यह हमारा दूसरा कष्ट है । इसी प्रकार अनेकों प्रवृत्तियाँ हमारे अन्दर जन्म लेती और मानव को बाँटती हैं । हमारा स्वार्थ हमें दूसरों से दुराव पैदा कराता है । अगर हम प्रवृत्तियों पर विचारें तो नकारात्मक प्रवृतियाँ विधटनकारी लगेगी , जैसे- क्रोध , लोभ , भद , मान , दोष , विरोध , घृणा इत्यादि ।
जब सकारात्मक प्रवृतियाँ साथ देगी तो यह संघटनात्मक या निर्माणकारी सिद्ध होगी । प्रेम , दया , क्षमा , कृपा , दान , स्नेह , सौहार्द , सहयोग , भेद – भाव , सेवा – भाव , त्याग आदि वैसे ही सकारात्मक भाव है । हमारे समक्ष रामचरित मानस के चरित्र नायक रामचन्द्र जी के चरित्र , उनकी लीला संसार को एक सीख , एक संदेश के माध्यम से उपरोक्त नकारात्मक कर्म को अपराध या पाप बतलाते हैं । उसी प्रकार जो सकारात्मक कर्म है ये श्रेय दिलाने वाले , यश दिलाने वाले , कल्याणकारी हैं यह भी देखा जाता है कि कदाचित धन , बल , और यश पाकर मान , मद का भाव अहंकारी बना डालते है । ऐसे लोग इसी 
प्रकृति के होते हैं , वे दूसरों को अपने से हीन मानते हैं । उनमें क्रोध और ईष्या का भाव अधिक होता है । वे अपने मन में झूठी अवधारणा पाल रखते हैं । ईश्वर होते हैं । क्रोध में आकर अपराध कर बैठते है । परिणामत बध और बन्धन में फंसते है । ये महत्वाकांक्षी होते हैं । धर्म का मात्र आडम्बर करते हैं । पाप पराया होते हैं । ढोंगी , दम्मी और पराई सम्पत्ति हड़पने वाले , जन विरोधी , शास्त्र विरोधी होते तथा ईश्वर में अविश्वास करते हैं । उन्हें ज्ञान नही भाता ।
विडम्बना है कि लोभ और वासना की जड़े समृद्धों में गहरी जमी रहती है । संग्रह में दान न कर उलटे शोषण व अन्य आर्थिक अपराध में संलग्न होते हैं । सतपथ का परित्याग कर शोक संताप अपमान और दण्ड के भागी बनते है । ऐसे समाज का मार्ग दर्शक , संत समाज , शिक्षा , सद्गंथ और सत्संग ही होते है । आत्म चिन्तक , परमार्थवादी , आस्थावान , परोपकारी , सत्यार्थी और सन्मार्गी ही संसार के संरक्षक होते है । उनके लिए ही ज्ञान भूषण है अन्यथा ज्ञान खोखला है । ज्ञानी को आत्मवादी नही होकर परोपकारी होना चाहिए । हमारी अवधारणायें कदाचित झूये भेटी या भ्रमित करने वाली भी होती है । रुढ़िवादिता के लिए विवेक ही तलवार है । वैसे ही रामचरित मानस ज्ञान की सरिता है जिसमें स्नान करने , दर्शण और जल ग्रहण करने के पापों का नाश होता है । अज्ञान मिटता है । कर्म में शुचिता आती है । आस्था वृढ होती है । कुसंस्कार मिटते है । भक्ति जगती है । वैसे को शुभ मित्र से लगते है और प्राणियों में परमात्मा के दर्शण पाते हैं । ऐसा साधन है रामचरित मानस ।
आज हम जिस युग में प्रवेश कर चुके हैं और जो परिदृश्य बन चुका है , उसमें कृत्रिमता ही नजर आती है । ज्ञान – विज्ञान , तकनीक और ऊर्जा के उपयोग से दुनियाँ बदल चुकी है और दिन प्रति दिन नूतनता के साथ जन भावनाओं को उपभोक्ता यादी परिवेश दे डाली है । ईश्वरीय सृष्टि परमानवकृत माया ने अपना जाल विछा दी है । नित्य नूतनता और चमक – दमक में खोया समाज आज अर्थ और भोग में अपनी ऊर्जा लगा रही है तो रोग और कर्ज बढ़ रहा है । आर्थिक विषमता में दीनता , विकास के बावजूद उपभोक्तावादी व्यस्था में इतना परेशान है कि भाग दौड़ का जीवन बन चुका है । शान्ति मिट चुकी है शिक्षा स्मार्ट हो गयी । अब हम सौर मंडल के ग्रहों उपग्रहों पर चढ़कर बातें करेंगे । ग्रह – नक्षत्र हमारे निवास नही , स्मार्ट बनना है । जैसी सोने की लंका थी , लेकिन सोने से महंगा हीरा के व्यापारी नीख को देखें तो …………. उसे अंग्रेज शरण दे रखे है जिसने हमारा कोहिनूर चुराया जो हमारे देश को लूटा , संस्कृति को मिटाया । हम आज अपनी भारतीयता को भूल उससे स्मार्टनेश की सीख ले रहे है । राम कृष्ण , महावीर , बुद्ध और गाँधी को मूल रहे हैं ।
हमारे युवा अपने इतिहास की ओर झांके और जानने की कोशिश करें कि भारत की गरिमा की तुलना कोई देश कर सकता है ? अगर सीखना है , करना है जीना है तो अपनी भारतीयता को पुनः स्थापित करें । भारतीयता का ही समानार्थक शब्द मानवीयता पर विचारें । जब हमारे देश में जय जवान जय किसान का नारा लगा तो भारत अमरेरिका का अनाज खाना छोड़ आज अपने देश का दाना , भारतीय , सेब , अनार , अंगूर और नारंगी सालो भर खा रहा है । हमें लज्जा आनी चाहिए कि हमारे देश का सुगन्धित चावल बासमती पर अमेरिका लोभित और मोहित हो रहा है । हम जब चूके तो भारतीय रेशम और सुगन्धित मशालें का व्यापार कर विदेशी समृद्ध हुए और बीसियों वार देश पर आक्रमण कर लूट ले गये । धन लूटे तो वे समृद्ध बने । हमारे ग्रंथ लूटे तो विज्ञान विकसित कर पाये । हमने दिया , आपसे छीना नहीं लेकिन आज हम ही चोर बन रहे और उनके चरण गहे , शरण में जा छिपे , वह भी कहाँ ? सँभलों भारत वासियों । राम और कृष्णा मरे नही वे हमारी संस्कृति में है । इतना ही नहीं , वे अमर है । और उनका नाम मात्र स्मरण करने से अमरता मिलती है । उसी धरती पर उतरकर विश्व के सैलानी आकर दर्शन करते , यहाँ के रजकण अपने मस्तक पर धारण करते और प्रसाद ग्रहण करते हैं । सिर झुकाते ही नहीं , भारत में समाधि तक ग्रहण करते हैं । धर्म की धूरी है हमारा देश । विष्णु के अवतार राम एक दिन हमारे देश के राजा रहे जो पापियों का संहार किये , जिनका जयगान सम्पूर्ण विश्व करता है । जो देश दुनियों को अपनी सीख दिया , वहाँ पर हमारी दीनता ही न विदेशी विश्व विद्यालयों को बुलाकर व्यवसायी बनाकर बैठा रहा है और अपनी प्राचीन गरिमा को मिट्टी में मिला रहा है । तब तो इस देश को आज सफल नेतृत्व देने वालों की कमी हो रही है । जनतंत्र खतरे की ओर बढ़ रहा है । जनमत खो रहा है । उन्हें अगर नैतिक शिक्षा ” अग्रतः सकलं शास्त्र पृष्ठतः सशरः धनु ” को अपनाना है तो रामचरित मानस का ही अनुशीलन आपकी नागरिकता का प्रमाण होगा । उस दिन ही यह धरती जो जनतंत्र की जननी थी , पुनः गौरवान्वित हो पायेगी । आज यहाँ राम , लक्ष्मण , भरत , शत्रुधन , सीता , हनुमान , अंगद केवट और विभीषण जैसे देश प्रेमी की जरुरत है जो एक बार फिर अवध को सनाथ करें ।
डा ० जी ० भक्त

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