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 विश्व की सरकारें एवं वर्तमान सामाजिक व्यवस्था में समरस जीवन की अवधारणा ।

 आज की सामाजिक व्यवस्था में समरस जीवन की अवधारणा पर चिन्तन कोरी कल्पना होगी , किन्तु ऐसा प्रश्न उठना नितान्त आवश्यक भी है । क्यों नहीं , जब हम चेतनशील मानव कहलाते हैं , शिक्षित , सुसंस्कृत , विचारवान और विकसित सोच वाले कहलाते है तो आप बताइए हमें कैसा जीवन जीना युग का श्रेय बन सकता है ।

 आज दुनियाँ में जीवन जीने के पीछे कैसा भाव व्याप्त है ? उसकी दिशा क्या है ? मानव समाज में कौन – सी धारा काम कर रही है जो जीवन में एकता और समरसता कायम होना कठिन हो रहा है ? अगर विचारा जाय तो विकास के मार्ग पर चलने का परिणाम उपरोक्त अवधारणा का पोषण क्यों नही कर पा रहा ? क्या विकास की भूमिका में कोई नकारात्मक भाव छिपा है जो हमें उससे पृथक परिणाम दे रहा है । किसी लक्ष्य के पीछे हमारे उद्देश्य में अन्तर पैदा होने की गुंजाइश कहा से आ धमकती है जिसका समाधान हमारी व्यवस्था कर नहीं पाती ? ..तो ये सरकारे है क्या जिसके पीछे इतना हाय राम की दशा हाहाकार मचा रखी हैं ? इनकी नीतियाँ , कार्य योजना , उद्देश्य और उसके लक्ष्य , उनपर सहमति , निर्देश और कार्यक्रम क्या दर्शाते हैं ? कार्यकर्ता , अधिकारी निरीक्षक और निगरानी समितियाँ क्या करती हैं ? अगली सरकार पूर्व की सरकारों को तथा विपक्षी भी उनकी नीतियों को दोषी जब करार करती है । अगले चुनाव वैसी नीति निर्माताओं के संबंध में क्या सावधानियाँ अपनायी गयी कि परिणामों की गति कमजोर ही पड़ती गयी जिसका प्रमाण हम चुनावी परिणामों की समीक्षा में झांककर देख सकते है । यह जनतंत्र क्यों कमजोर होता जा रहा , जनमत का ग्राफ गिर रहा है । गठबन्धन ही आधार बन रहे , वहाँ भी विश्वसनीयता और कमजोरी का कोई मानदण्ड नहीं दीखता ।

 जब प्लेटों ने राजनीति से धर्म को अलग करने की बात कहीं । धर्म को नकारने के पीछे क्या सोच हो सकता है ? अधर्म अपनाना ? पाप या अकल्याण अपनाना ? आज जो जंगल राज या राक्षस राज जैसी कठोर आवाज इस राजनीति का विभूषण बतलाया जा रहा है तो उसे रावण राज्य ही कहा जाय और कहने वाले राम राज्य का कार्यक्रम लेकर उतरें , उसकी एजेण्डा लायें । महात्मा गाँधी की बुनियादी शिक्षा समाप्त कर डाली गयी । महाविद्यालयों में वोकेशनल शिक्षा का प्रावधान क्या कुछ भला परिदृश्य ला पाया ? फिर मोदी जी का कौशल कार्यक्रम से क्या मिला ? इत्यादि विषय कबतक गिनाए जाते रहेंगे ?

 राजनीति की मंशा या स्पर्धा के पीछे सत्ता सुख की कामना या जनकल्याण की भावना ही प्रखर होती है । दोनों ही स्थितियों में हमें राजतंत्र का उन्मेष नही जनतांत्रिक समर्थन पाने की प्रत्याशा प्रवल होती है । सफल नेतृत्त्व ही पराक्रम का प्रतिफल , सत्ता सुख की सम्भावना पूर्णतः अपेक्षित है किन्तु जनकल्याण का प्रतिफलन नेता की मानसिकता से प्रभावित हो सकता है । सुख भोग और जनाकांक्षा का आदर अथवा कल्याण कारी राज्य का विधान मानव की परीक्षा है । सत्य और अहिंसा की मर्यदा निभाते हुए ही ऐसा सम्भव है जैसा प्रयोग गाँधी जी ने किया , तब वे न सुख चाहते थे ने भोग , सदा निरस्पृह रहने वाले लेकिन आप अपनी सेवा का

मूल्य निर्धारित कर बैठे , बताइए – जन नेतृत्त्व का मूल्य त्याग है अभीप्सा नही , पुरस्कार चाहिए , जनसमर्थन ।

 जनसमर्थन ही एकमात्र आपकी सेवा का पुरस्कार होगा । मूल्य लेना सेवा का निहितार्थ कदापि नही होना चाहिए । यह राजसत्ता का घृणात्मक पक्ष है । जनमत में गिरावट ही नेतृत्त्व की विफलता है । गठबन्धन वहाँ सत्ता का लोभ सिद्ध होता है । सुधार का प्रयास कदाचित नहीं । सत्ता से सटा रहना नहीं , उसका त्याग ही नेतृत्त्व भाव की सही पहचान बन सकती है जो आज दुर्लभ दिख रहा । ट्रंप हो या हम , सोचना तो पड़ेगा ही , नहीं तो उसका दुष्परिणाम जनता को झेलना ही पड़ेगा ।

 इन सारे प्रश्नों का उत्तर राजनीति से सम्भव नही रखता । अविश्वास का प्रस्ताव और पुनर्मतदान एक दिखावा है । संविधान बनाकर हम कोई बड़ा कार्य नहीं करते । शपथ ग्रहण हमें सत्यार्थी नहीं बना पाता । संविधान का निधान नहीं , इमान ही प्रधानता ही सेवा का विधान बने , संविधान का संसोधन भी हमने करके देखा । जनमत का अल्पमत में आना और बहुमत का शासन भी देखा । कांग्रेस पार्टी का पुरजोर बहुमत क्यों कमजोर पड़ता गया और जनता दल द्वारा झाडू से बहार देना भी कुछ न कर पाया , लगातार गठबन्धन कर सत्ता में साझीदारी कर भी अपनी गरिमा नहीं बचा पाया ।

 क्या विकास समस्यायें ही गढ़ता है और प्रदूषण फैलाता है । समस्याओं पर अबतक किये गये प्रयास से अबतक कितने प्रश्नों का समाधान हो पाया । देश की गरीबी , शिक्षा की बदहाली , स्वस्थता की जगह असाध्यता का बढ़ना , चिकित्सा के दुष्परिणाम , बेरोजगारी स्वावलंबन और मानवाधिकार पर प्रभावहीन प्रयास , देश में अनैतिकता एवं भ्रष्टाचार का बोलवाला क्या घटने वाला नही ? इन प्रश्नों पर विचार कब होगा ? अच्छे दिन का आहान कैसे होगा , इस पर सटीक और सार्थक सोच के लिए अगर अब नही तो कब चिन्तन शुरु होगा ? जब कोरोना के लॉकडाउन में विचारने का समय नहीं मिला तो क्या विघायिका कार्य पालिका और न्याय पालिका को समाप्त कर विचार मंथन किया जाएगा ?

 उपरोक्त भावनाओं के उद्याम न आवेश , न आवेग , न प्रतिक्रिया , न शिकायत एक विचार श्रृंखला है । सच्चे दिल से मानवता से मिलने – जुड़ने का , दुराव कम करने का , मार्ग को सरल बनाने का । आपने कहा कि कोरोना ने हमारी अर्थव्यवस्था बिगाड़ डाली । अब मेरी समझ में आया कि हमें जनता को स्वावलम्बी बनाना चाहिए । ऐसा मनरेगा को जान फूकनी हमारी प्रथम प्राथमिकता होगी ।

 शायद आपने उस पर काम चालू किया , आपको पता चल पाया कि मनरेगा के जॉब कार्ड धारी सड़कों पर कार्य कर रहे है ? उसका लाभ किसे मिल राह है । यही है सोच में बदलाव ?

 चुनाव सत्ता शक्ति का रिन्यूअल है और कुछ नहीं । इन्हीं विचारों में देश का समय नष्ट हो रहा है । लिखने में कागज कलम पर नाजायज खर्च , लेखक , कवि , गायक , समाचार सम्पादक और पाठक की वेमतलब व्यस्तता । पढ़ सुन कर बकवाद में जुड़ना …… ………… | कहाँ कोई संवेदित हो रहा ? न कण साफ हुआ , न भूसा । समस्या जैसी की तैसी । वीणा की मधुर तान में भैस पगुरा रही है ।

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