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वैश्विक एकता एवं समरसता में राष्ट्रों की भूमिका

 डा ० जी ० भक्त

 यह कठिन प्रश्न है आज के राजनैतिक धरातल पर आज राष्ट्रों के बीच महाशक्ति के रुप में निखरने की प्रत्याशा काम कर रही है । अगर हमारे हृदय में एकता के साथ – साथ समरसता पर सोच अपनानी है तो इतने बड़े विश्व पर विचारना तो बड़ा सवाल खड़ा हो सकता है , जरा एक छोटे से परिवार के संबंध में विचारे तो साफ – साफ स्पष्ट हो जायेगा कि पारिवारिक एकता पर हम कुछ क्षण सहमत हो सकते है किन्तु गम्भीरता से विचारें तो समरसता को पुष्टि कर पाना कठिन होगा ।

 इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न पर विषय और विचारों के बीच सार्थकता सिद्ध हो पाना भी कठिन है क्योंकि भौगालिक विविधता का हर राष्ट्र के सामाजिक , आर्थिक और सांस्कृति समस्या पर ( जीवन शैली पर ) प्रभाव पड़ता है । प्राकृतिक स्वरुप और तद्रूप जीवन मापन से जुड़े जीवन इस वैश्विक चिन्तन को एक धरातल पर लाने में कठिन सिद्ध हो रहे है , इस हेतु वैश्विक विचारधारा सबको समान संतुष्टि वही दिला सकती ।

 यह भी आवश्यक है कि हम विश्व के स्वरुप पर विचारे जिसका भौगोलिक वर्गीकरण गाँव तक कितने रुपों में विभक्त है । वैसे में विविध – विविधताएँ महारी शोच को अलग – अलग रुपों में प्रभावित करेगी । इस हेतु वैचारिक समाधान में जटिलता ही हमारी एकता स्थपित नहीं होने देती । फिर इसका विकल्प क्या होगा । अगर हम समस्याओं के मूल में प्रवेश कर अपनी सोच स्थिर कर लक्ष्य स्थापित करें बसके मूल में मानव और उसकी आवश्यकताएँ है । आदिकाल से इसी के लिए संघर्षरत रहा है , और आज जो असंतोष व्याप्त है उसकी ही विसमता को लेकर । अब हम जरा इस बिन्दु पर ध्यान दें कि इसमें कोई बाधा नजर आती है ?

 बाधा तो है ही । हमारी सोच ज्यादातर व्यष्टि मूलक है । हम जो कुछ विचारते हैं . सब अपने लिए । समष्टि मूलक विचार प्रायः भगण्य होता है । समाजिक स्तर पर सबके हित के लिए कम लोब सोच पाते है । अगर सौ में 15 लोग सामाजिक सोच रखते है तो व्यवहार में एक या दो ही ऐसे पाये जाते है जो समाज के लिए समर्पित होते है । अगर गाँव में एक भी व्यक्ति वैसे मिल जायें तो उन्हें देखकर समाज प्रेरित हो सकता है । इस प्रकार विरले ही समदर्शी पुरुष मिल पाते है । इस विरलेपन के भी कारण हैं ।

 जीव प्रवृत्यात्मक होते है । उन प्रवृत्तियों के वश में होकर तरह – तरह के भाव अपने मन में पालते है । तदेनुरुप करते भी है । उन्में सवृतियाँ भी होती है और दुष्प्रवृत्ति भी । इसका कारण सतोगुण रजोगुण तथा तमोगण होता है । सदोगुणी जीव में अधिक सतोगुण उससे कम रजोगुण तथा सबसे कम तमोगुण पाया जाता है । रजोगुणी में कम सतोगुण सर्वाधिक रजोगुण एवं कम तमोगुण पाया जाता है । तमोगुणी में सर्वाधित तमोगुण ही होता है । इस तरह तमोगुण पूणर्तः आत्म परक होते है । रजोगुणी विचार से रजोगुणी अधिक होने से स्व का हित सोचकर ही कर्म में तत्पर पाये जाते है जबकि तमोगुणी आलसी और मन्दमति होते हैं । विकास का ख्याल उनमें नही होता । सतोगुणी विचारते है उसे कर्म में उतारते है । उनकी ख्याल और व्यवहार उँचा होता है जबकि रजोगुणी में दूसरों के प्रति विचारने की क्षमता होती है किन्तु अपने हित में इतने व्यस्त होते है कि पराये का ख्याल नही हो पाता । स्वार्थी होते है । इस हेतु राज सता को जन कल्याणकारी बनाने के लिए सतोगुणी प्रवृति वाले को ही नेतृत्व मिले तो शोषण और लूट की घटना नही हो सकती ।

 इस हेतु राज सत्ता की महत्वाकांक्षा पालने वाला रजोगुणी होते हुए उनमें सतोगुण कम होता है तमोगुण कम होता है तमोगुण उनपर प्रभावी होने से सता प्रखर नही हो पाता । ये जब सतोगुणी विचार चर्चा में लाकर मुखर होते है तो ये लोग लुभावन भूमिका में उतरते है । स्वाभावतया ये भोगी , आलसी और व्यसनी भी होते है । आज राजनैतिक परिदृश्य ऐसा ही देखा जाता है ।

 अतः सत्ता को संयमी भूमिका में उतारने हेतु सतोगुणी भूमिका वालों की ही उम्मीदवारी दर्ज होनी चाहिए पूर्णातः सोच विचारकर एवं जाँच परखकर उन्हें नेतृत्व किया जाए तो उनपर एकता बनेगी । उन से समरसता फैलेगी । जनता उनमें विश्वास करेगी । जनमत मजबूत होगी । जन समर्थन से जनमंगल होगा । ऐसे विचारक समन्वय वादी होते है । जनतंत्र को इसी पक्ष का समर्थक होना चाहिए ।

 जनतंत्रात्मक सत्ता राजनैतिक दलों की भूमिका स्वीकार्य है । ये दलों की भूमिका स्वीकार्य है । ये दल राष्ट्रहित कहें या जनहित में अपनी एक स्पष्ट विचारधारा और लक्ष्य लेकर अपने निर्धारित कार्य योजना ( मनोफेस्टो ) के साथ चलन का उद्देश्य रखते है । इनके विचारों में कुछ आधार भूत अन्तर होता है जिसे जनतंत्र में बाधक नही माना जाता , परन्तु उन्हें विपक्षी शब्द से सूचित करना उचित नहीं ऊँचता । जैसा विपक्ष का निहितार्थ ग्रहण किया जाता है उसके अनुसार सत्ता पक्ष को उनके साथ या किसी भी दल के साथ उनके आधारभूत सिद्धान्तों से समझौता किये बिना चुनावी गठबन्धन विचारणीय नहीं होना चाहिए । इससे जनतंत्र का मूल्य घटता है । जब सरकार संविधान का अनुपालन करती है तब विपक्षी ( तथाकथित ) , फिर कभी सहयोगी दल कहकर सम्बोधित करने का निहितार्थ क्या होगा ? इस विभव के रहते कभी भी सत्ता द्वारा एकता और समरसता का फलन असम्भव है किन्तु वह राजधर्म या राष्ट्रीयता की गरिमा स्थापित कर पाये , एकार्थक नहीं विभदेक कहा जा सकता है ।

 इधर राष्ट्रों के बीच जो उदारीकरण और वेश्वीकरण की उसका क्या निहितार्थ हो सकता है ? मैने एकता के साथ समरसता की बात उठायी । आज विश्व में आतंकवाद , भ्रष्टाचार , अत्याचार , अनाचार अबैधानिक कार्य का बोल वाला है । .तो क्या इनको साथ लेकर या सथ छुड़ाकर ? जब सरकार इसे मिटाने में अक्षम है , अथवा जनता और सत्ता

की मिली भगत से ही यह चल रहा है तो राष्ट्रों की उदारता की नीति में उपराधों का वैश्वीकरण अगर संलग्न रहा तो वह कैसी समरसता होगी और एकता को शरण कहा मिलेगी ?

 सन्त कबीर समन्वयवादी थे , उन्होंने विचार रखा :-

 कबिरा खड़ा बजार में लिये लुकाठी हाथ । जो घर जारे आपनों चले हमारे साथ ।। वैचारिक भिन्नता के बीच एकता और समरसता स्थापित करने अपने घर में आग लगने से बच जाये साथ ही दूसरे के साथ प्रेम फले तो अपनी खास परिस्थिति में सहनशीलता और विनम्रता ही काम देगी ।

 विचारों की दुनियाँ शुक्ल पक्ष की रात है किन्तु कृपरा पक्ष भी उतना ही प्रकाश भाग करता है । आज गरीब भी अच्छा कमा लेता है किन्तु इस उपभोक्तावादी युग में उसकी आय उद्योगपतियों की झोली गर्म करती है इसी लिए खरबपति की संख्या अबतक दो अंको की लघुतम सीमा में दिखती है और गरीब ?

 यह समस्या नहीं , समस्याओं की गुत्थी है । जीवन जीने का ढंग चाहि स्वावलम्बन ।

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