शिक्षा एवं शिक्षा नीतिया
कुछ कहूँगा तो भाषा अशोमनीय लगेगी । कहूँगा इसलिए कि तथ्यात्मक रुप से वह सत्य ही लगेगा । आप अब माने या न माने , लेकिन नीतियों की गोद में जाकर शिक्षा कमजोर होती चली गयी । अब यह प्रश्न सामने आता है कि नीतियाँ गलत बन गयी या उनका कार्यान्वयन ही सही रुप में नहीं हो सका आखिर शिक्षा मंत्री बने थे कौन ? जिन्हें बहुमत मिली थी । किन्हें बहुमत मिली ? जो इसके लिए योग्य माने गये । गणतंत्र में चुने गये सभी साम्वैधानिक रुप से योग्य ही माने जाते है , लेकिन नीतियाँ ? वह न आयोग्य ही मानी जा सकती न उनके निर्माता हीं । किन्तु विडम्बना है कि उनकी योग्यता भी पंचवर्षीय आयु वाली उनके निर्माता हीं । अगर होते भी हों तो वैसे नहीं , कि उन्हें अस्वीकार कर दिया जाये जैसे विधायिका या संसद सदस्य । इनकी एक्सपायरी होती है , कार्यकाल निश्चित होता है ।
अगर शिक्षा नीति का समुचित कार्यान्वयन न हो पाया तो इसका दोषी चाहे जो सावित हो , किन्तु एक शब्द में सरकार ही पूर्ण रुप से दोषी करार दी जाती है । हमारी केन्द्रीय सरकारें स्वतंत्र आयोगों की स्थापना करती रही । जो करना था सब कुछ किया गया । किन्तु जो होना था , वह न हो सका । तब तो बार – बार आयोग एवं समितियाँ बनती रहीं । अंतिम फल यही हुआ कि देश की शैक्षिक गरिमा का क्षरण हुआ । शिक्षा की गुणवत्ता गिरी ।
सम्प्रति देश में नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनकर आ गयी है । प्रधान मंत्री जो को जैसा लगा नयी शिक्षा नीति में सुधार के जिन आयामों पर विचारना और उनका समावेश कर शिक्षा को विकास की दिशा देनी थी वैसा किया गया है । अब उनका सोचना इस बिन्दु पर केन्द्रित है कि “ अब क्या किया जायेगा ” यह विचार जनता का है । लेकिन उनकी सोच में है कि कैसे किया जाय । अर्थात वे इस बिन्दु पर विमर्श चाहते हैं । यह सोच समयोचित है और प्रासंगिक भी ।
शिक्षा का संबंध छात्र , अभिभावक , शिक्षालय , शिक्षक , शैक्षिक परिवेश सहित शिक्षा विभाग , शिक्षा के मुख्य पहलू , शिक्षा के सामाजिक एवं राष्ट्रीय लक्ष्य से होता है । देश का सांस्कृतिक स्वरुप एवं उनके मनकों के महत्त्व संबंधित देश की शिक्षा के प्रमुख आयाम माने जाते है जिनकी अनदेखी अब तक होती रही , जिसका परिणाम हुआ कि हम शिक्षा के वास्तविक स्वरुप को ही घूमिल कर डाले । मूल्य परक सकारात्मक शिक्षण के ये तीन मुख्य मानक ( 1 ) नैतिकता और अनुशासन ( 2 ) कर्त्तव्य बोध एवं ( 3 ) सामाजिक सरोकार को प्राथमिकता में लेना अनिवार्य होगा । इससे मात्र छात्र का ही चरित्र निर्माण नही होगा बल्कि सम्पूर्ण शैक्षिक परिवेश में उसकी गरिमा व्याप्त पायी जा सकेगी और सारा राष्ट्र उसकी सुगन्ध से सराबोर होगा । इसके क्रियान्वयन में मानवीय मूल्यों को सर्वोपरि स्थान देना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए ।