श्री राम लला “श्री विग्रह” स्थापना का ऐतिहासिक अभियान, डा० जी० भक्त
प्यारे भारत वासियों, सुप्रभातम् !
रामचरित मानस एक अनुशीलन दिनांक:- 20.01.2024
विश्व विदित है कि सारस्वत मनु एवं उनकी पत्नी सत्रूपा की तपस्या से प्रसन्न हो भगवान विष्णु त्रेता युग में अयोध्या के राजा दशरथ और उनकी पत्नी कौशल्या की गोद मे राम रुप में अवतरित हुए थे। जम्बूद्वोप आर्यावर्त्त की भारत-भू पर राक्षस पति रावण के घोर अत्याचार से धरती, गौ, ब्राह्मण, देवता, वेद और मानव धर्म पर आतंक छा गया था, देवता गुफाओं में जा छिपे थे। धरती माता गौ का रुप धारण कर अपनी मूक प्रार्थना से जब देवाधिदेवादि को जागृत किया तो आकाश वाणी हुयी कि धरती का भार हरण करने हेतु रामावतार का विधान हो चुका है।
…..रामावतार हुआ। रावण का अन्त हुआ। राहत मिली। रावणत्व का अन्त नहीं हुआ। भारत प्रारंभ से धर्म-धरा कहलाने वाला देश रहा तो इसपर विपत्तियों का प्रहार हर युग को झेलना पड़ा, जिसका इतिहास साक्षी है। चौदहवी शताब्दी में रामलला के मंदिर पर जो कुछ हुआ आज चौवीसवी सदी में उसका जीर्णोद्वार भारत वासियों के पुनर्प्रयास से सम्प्रति साकार हो रहा है।
हम भारत वासी धार्मिक आस्था रखने वाले देव पूजक कहलाते रहे हैं, तत्त्वतः सत्य है। व्यवहारतः विष और अमृत दोनों का उद्गम भी यही होता है। प्रवृत्तियों के पंक में समाज बार-बार द्राव में आकर कष्ट झेलता पाया जा रहा। हम धार्मिक कहलाते हुए भी आडम्वर, दुराचरण, विरोधाभाषी मार्ग का अबलम्वन, उपभोक्तावाद, भोगवृति, अशौच, अनीति का श्रेय लेकर राष्ट्र भक्ति भूल रहे, युग बोध खोकर युग धर्म से विचलित हो रहे। जन तंत्र के पॉव फिसल रहे, शिक्षा का श्रेय घटता जा रहा, आभासी विकास के बीच राष्ट्रीय गरिमा का सरण हो रहा है। हम मंदिरों में मानवता का मर्म ढूढ़ने जा रहे हैं।लेकिन धार्मिक ग्रंथ की बात छोड़े, तो कोर्स बुक या अन्य सहित्यों को पढ़ने की प्रवृति भी तो समाप्त प्राय है।
आज हमारे बीच असंख्या विसंगतियाँ, सामाजिक धार्मिक राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्र में हमारे इतिहास को धूमिल कर रहे हैं।
आज हम श्री रामलला को प्राण प्रतिष्ठा देंगे। मैंने अपनी स्तुति में पधारने वाले श्री विग्रह को निवेदित किया है कि आप प्रस्तर की काया में न पधारें, हम तो आपको ही सप्राण नहीं मानते, कण-कण में व्याप्त मानते हैं, हम तो आपको पूजते आ रहे हैं। आज भी आपका पूजन ही हो रहा है। फिर प्राण प्रतिष्ठा भगवान को भक्त देंगे ? यह तो आभासी लगता है। एक डॉक्टर या वैध निर्जीव पदार्थ दवा, जड़ी, बूटी, टिकिया, कैप्स्युल खिलाकर रोग मुक्त करता है। उस निर्जीव में जान भरने की क्षमता ही तो प्राण है। जिस पस्तर खण्ड से श्री विग्रह का निर्माण हुआ है वह तो सब दिन जीवन्त है। सृष्टि के पंचतत्त्व के मूल में से एक पहले से विद्यमान है कदाचित हम भ्रम में न पड़े कि प्रकृति में आज के वैज्ञानिक युग में कोई पदार्थ जीवन्त नहीं। या तो वह रुपान्तरित है या सुसुप्त अवस्था में।
हमें भो जागृत, सजग और जीवन्त रुप में रहना है। लेकिन हम तो रुग्न है और प्राण ढूढ़ रहे है। स्वस्थता का मूल मंत्र प्रकृति में छिपा है। हम उसका अन्वेशन करने में जुड़े। हमारे ग्रंथों में “रामचरित मानस” तथा उनमें निहित रामतत्त्व ही जीवन का सारा श्रेय दिलाने वाला है। अनुशोलन आवश्यक हैं।