सफल जीवन की झाँकी
डा ० जी ० भक्त
मानवीय चेतना के आलोक में जीवन का यथार्थ विचार धाराओं में विभक्त है । मानव संस्कृति के क्रमिक कालखण्डों में सामाजिक जीवन स्तर और विचार वैभव जिन सभ्यताओं को विकसित किया , उसके अनुरुप भौतिक , आध्यात्मिक और नैसर्गिक मानकों पर अपना ध्यान स्थिर कर जिसे श्रेय प्रदान किया , वही यथार्थ माना गया किन्तु भारतीय आर्ष मनीषा में ( वैदिक मान्यता ) कही लौकिक उत्नति और पारलौकिक मोक्ष की प्राप्ति को ही जीवनादर्श बतलाया गया । भौतिक वादियों ने आर्थिक समृद्धि और सुखोपभोग ( Eat Drink and bemerry ) को जीवन का श्रेय माना । दुनियाँ के सभ्य और नैतिक ( Hight Social and Moralw Civilised ) समाज ने शान्ति प्रगति और समरस जीवन को ही श्रेष्ठ स्थान दिया । भारतीय संस्कृति का उत्कर्ष जागतिक कल्याण और पारमार्थिक लक्ष्य को स्वीकारा ।
अलग – अलग धर्मो सम्प्रदायों ने अपने – अपने चिन्तनों में दान और सेवा ( Hospitality ) को , प्रेम और सद्भाव को , सत्य और अहिंसा को तो कोई ज्ञान कर्म और भक्ति को तो किसी ने सुख और शान्ति को ही उँचा स्थान दिया । मानवता वादियों ने दीन दुखियों क कल्याण को ही श्रेय माना , आज हम विश्व के वर्तमान परिवेश और परिप्रेक्ष्य में जो जीवन के साथ घटते पा रहे हैं , उसमें विखंडित मानवता की विघटित और वैकल्पिक मान्यताएँ सिर उठा रही है । राजनीति में कूटनीतिक वातावरण से पोषित समाज जहाँ मानवाधिकार का विधान कर विश्राम ले लिया उसी तरह भारत में महात्मा गाँधी और सन्त विनावा भावे का सर्वोदय समाज तो टान्सटॉय का Unto This last ( अन्त्योदय ) तथा अन्य विचारकों ने Survial of the fittest एवं Greatest good to grealest number की नीति को समर्थन दिया । ये सारे विधान समष्टि सूचक ( मूलक ) जो सार्वभौम विचार नहीं है । हमें व्यक्ति मूलक ( व्यक्ति विशेष Individual look out ) दृष्टि अपनाकर समष्टि में जागृति लानी होगी कि जीवन जीने का सर्वोत्तम स्वरुप कैसा हो ।
मूलतः यह जीवन और शिक्षण से जुड़ा एक व्यावहारिक ( Practical ) पहल होगा जो समष्टि जगत को प्रभावित करेगा उसकी परिणति की ओर । वास्तविकता यह होगी क जीवन में प्रेम और सद्भाव की भूमि तैयार कर शुचिता और पारदर्शिता के साथ अपना जीवन निवाह करते हुए समष्टि के कल्याण का व्रत निभायें । यह कार्य स्वतः समाज का नेतृत्व लेकर सामने आयेगा । जैसा गीता के माध्यम से समाज को अवगत कराया गया जिसे तुलसी दस न भी दुहमया यथा :-
जब जब होहि धरम की हानि । वादे असुर अघम अभिमानी ।।
तब – तब धरि प्रभु मनुज शरीरा । हरहि सदा सज्जन कर पीड़ा ।।
लेकिन आज विश्व के मानव देश के नागरिक कहे जाते हैं । हमें अपने हित के साथ उनका हित भी साथ – साथ जोड़ना होगा । वसुधैव कुटुम्बकम का भाव चरितार्थ करना होगा ।
” कामये दुःख तप्तानां प्राणिनामार्त नाशये ” दुखी जनों का कष्ट निवारण करना ही हमारा लक्ष्य बने । यह भाव जगत के कल्याण का मार्ग है । इसे फली भूत करते हुए हम अपने कीर्तिमान का निर्देशन और संदर्शन संसार में साझा कर पायें , यही सफल जीवन की झाँकी साबित होगी । कटुता का भाव मिटाकर जनआकांक्षाओं की सतुष्टि मिले तो विश्व शान्ति की पूर्ति कर एक सतुष्ट हो और संसार को कर कामना फलित होगी । यह चिंतन मेरा नहीं , यही शास्वत सत्य है जिसे जागृति का स्वर देना जरुरी है । धन संग्रह और संरक्षण के भाव में जन हित का भाव तिरोहित हो जाता है । हमारे त्रिदेव ब्रह्मा विष्णु और शकर उसकी प्रतीक बनकर पूजे जाते हैं । हमारे बीच बुद्ध महावीर और ईशा मसीह इसी का सदेश देकर जीवन में अमरता पाये , और आज याद किये जाते हैं ।
मूलतः सफल जीवन की झाँकी जो बतलायी जाती हैं , वह सैद्धान्तिक तथ्य ही रह जाता है किन्तु महान पुरुषों का जीवन चरित्र का अनुकरण अगर जीवन का लक्ष्य बने तो कोई अपने जीवनादर्श के प्रति चयन और अनुशीलन ही सफलता के स्त्रोत सिद्ध हो सकते हैं । बड़े – बड़े लोगों के संबंध में सुना जाता है कि वे अमुक महान भावों को अपना आदर्श मानते थे ।