समष्टि जगत की सत्यता में व्यष्टि का पीछे पड़ना कबतक चलेगा ?
डा० जी० भक्त
आज विश्व जनमत जनतंत्र क पक्ष में चल रहा है । इसमें हमारा ही नहीं , करीब सबों का समर्थन है । तब तो आज जैसे हो , जनमत जीवित तो है चाहे रुग्न ही हो या स्वस्थ । लेकिन इसकी सत्यता सैद्धन्तिक है । पूर्णतः व्यावहारिक धरातल इसे नहीं मिल पा रहा । लाख छटपटाने या कसरत करने पर भी हम गठबन्धन ही अपना रहे हैं । जबकि गठबन्धन को प्रेम का स्पर्श प्राप्त नहीं , भोग भनाने के अवसर की प्रत्याशा मात्र को ही सत्य मानिये तब तो कभी भी गठबन्धन का विखण्डन अवश्यभ्यावी दिखता ह । ऐसा होता ही आ रहा है ।
खाद्य पदार्थों में मिलावट , दवाओं में मिश्रण , सरकारी विभागों के कार्यकलापों पर निगरानी समितियों की भूमिका , राजनैतिक दलों में गुटबाजी , वैसे प्रखर हुयी , जैसे सृष्टि में पंचतत्त्वों और त्रिगुण की सत्ता कभी – खाली नहीं गयी । इतिहास के जिन काल खण्डों में भगवानों में भगदर मची तो धर्म में आडम्बरों की घासें जमी फिर विविध समदायों में मतान्तर । जब हम ज्ञान को विविध रुपों में ग्रहण किया तो शिक्षण का एक सिलेवश तैयार हुआ । आज भोजन के अनतं व्यंजन और उपभोक्तावाद के उपादानों की भरभार में भी गरीबी की सास तेज ही चल रही है । आर्थिक विषमता तो मिटी नही , क्रय शक्ति में विकास हुआ तो उपभोक्ता के समक्ष उद्योग पतियों ने संसाधन तो उड़ेल दिया किन्तु किसी ने समाधान नही दिया । सरकार के अनुदान भला कहाँ तक पोषण जुटाए । हाँ , यह सुना कि अन्त्योदय का अनाज न खाकर उसे नगद भुना लिया गया । खैर इतनी छोटी – सी होशियारी से अरब पति बनने का कोई मार्ग नही दिखता जरा देह और परमशक्ति की एकात्मकता पर विचार कर देखा जाय कि किस प्रकार शरीर की दश इन्द्रियों के सजग रहते हुए किस दरवाजे के किवार खुले रह गये कि प्राण अपनी संगिनी देह से विलग हो गये ।
आज कर्ता को कर्म से अलग करके व्याकरण में पढ़ाया जाता है । इसमें थोड़ी भूल हुयी है । ऐसा मुझे झलकता है । जब व्यावहारिक जगत में योजनाकार कलाकार नहीं तो कर्म को तदनुरुप और तदनुकूल होना असम्भव तो होना है ही , क्योंकि सोलह आने सच की गुंजाइश इस विधान में नही हो सकती ।
समष्टि की भलाई को देखते हुए विश्व के विचारक लेखक कवि , समाज शास्त्री , वैज्ञानिक , चिकित्सक , दार्शनिक सदा से अपनी सोच को पटल पर रखना अपना कर्तव्य समझे । देश चलाने वालों ने , जिन्हें राजा या सम्राट कहा जाता था नागरिक हित में जुटकर सेवाएँ अर्पित करते रहे । शान्ति के सपूत , प्रगति , समृद्धि , एकता , समरसता के गीत गाते रहे । जन जागृति लायी , न्याय , शिक्षा , दान और कल्याण के कार्य किये गये । तथापि प्रवृत्तियों का खेल खेला ही जाता रहा । धन जन की कभी न रही , किन्तु अपराध , स्वार्थ , अभिमान , महत्त्वकांक्षा , शोषण , उत्पीड़न भी छाये रहे । न्यायालयों , शिक्षालयों , पंचायतों , धार्मिक संगठनों की व्यवस्था , धर्मोपदेश , सत्संग , पर्व , त्योहार , दान , तीर्थ सभी मानव के आचार विचार की शुद्धि – समृद्धि में चलते रहे । साम्राज्य विस्तार धन संग्रह , विलासिता व्यसन के साथ राजद्रोह और जन विद्रोह का बीज बोया जाता रहा , राज सत्ता , जनशक्ति , अपार सम्पति , राष्ट्रभक्ति प्रयास और अभ्यास के होते भी अकल्याण आलस्य व्यसन अमानवीय कृत्य , दीनता , विषमता , विसंगतियाँ स्वयं ही आसमान छूती गयी कर्महीन , अनुदार और सामाजिक सरोकार से दूर किंकर्तव्य विमूढ़ बन सामाजिक जीवन के हाशिये पर जीवन जीता कलंकित लांक्षित असहाय , उपेक्षित दुर्दिन का मारा भूखमरी का शिकार है । क्या सर्वोदय , अन्तयोदय और मानवाधिकार उसे संभाल पाया सुधार लाया , उसे विकास की धारा से जोड़ पाया ?
मानवीय क्षमता और पराक्रम के सामने धरती अंतरिक्ष और सागर उसके अमित , उर्जा और कौशल के सामने नत मस्तक भी पाया जा रहा किन्तु आज धन कुवेर भी संतुष्ट नही राज्य हड़पने , सत्ता छीनने जैसा खेल आज भी चल रहा है । हम अतिमानव बनने का अतिरेक अवश्य ही अपना रहे किन्तु दया का दान जलकल्याण को अपना संस्पर्श नहीं दे रहा । घर में वृद्ध , रोगी , विकलांग विधवाओं और कदाचित सहनशील जन भी उपेक्षा के शिकार है , नारियों पर अत्याचार , सड़कों पर लूट तो प्रतिष्ठानों को हड़पा जाना विस्तार ही पा रहा है । यह भी कोरोना जैसा विश्वव्यापी रोग बना है , लाइलाज दीखता है । इस पर हम कब विजय पायेंगे ? तकनिकी शिक्षा तो दी जा रही है , किन्तु चरित्र निर्माण की सीख कैसे मिल पायेगी ?