सर्वशक्तिमान का आह्वान सदा सिद्धिदायक है
हमें कदाचित् इसमें संदेह नहीं करना चाहिए | ऐसी वाणी अतयं है | तर्क में सत्यता और भ्रम दोनों की संभावना होती | गणितीय या आध्यात्मिक तथ्य पर तर्क की कसौटी काम करती है | तर्को की पुष्टि से तथ्यात्मक सत्य प्रतिपादित होता है | कल्पना , अनुमान , तर्क विधान , सत्यापन से नियम प्रतिपादित होता है | प्रमेय की सिद्धि होती है | कुछ तथ्य स्वयं सिद्ध होते हैं | उसके लिए किसी तार्किक कसौटी की आवश्यकता होती ही नहीं |
अब हम यह कहना चाहेंगे की कर्म धर्म और पुरुषार्थ अपना – अपना अर्थ , भाव और उद्देश्य लेकर जीवन में प्रतिफलित होते हैं | फिर उद्देश्य भिन्न – भिन्न लक्ष्यों में प्रासफुटन पाते हैं | धर्म भी कर्म ही है । किंतु , हर कार्य धर्म नहीं ! कार्य को हम कर्मण्य और अकर्मण्य दो श्रेणियों में डालकर एक को पुण्य का श्रेय देते हैं तो दूसरे को पाप का | न धर्म थोपा जा सकता है न आरोपित किया जा सकता है | जब हमारी कर्म में प्रवृत्ति होती है मान , इंद्रियाँ और बुद्धि अपनी चयनात्मक भूमिका में उतरती है | चित्त वृत्तियाँ कदाचित् आत्म – स्वीकृति में बाधक बनती है तो आरोपित धर्मानुसार थोपे गये धर्मानकरन स्वांग या ढोंग का रूप लेते हैं | ऐसे में न धर्म सिद्ध हो पाएगा न सिद्धि ही मिल पाएगी , अत : इसके लिए पूर्ववर्ती विधान में योग का यम – नियम की नींव को दृढ़ करना होगा | इससे ही इंद्रियों सहित चित्त वृत्तियों का विरोध फलता है | वैसा योगी ही ( कर्म योगी ) साधक कहला सकता है । उसकी साधनना उसमें ईश्वर दर्म में जुट एवं जुड़ सकता है | आंतरिक साधना और बाह्य कर्म विधान में प्रभेद दृष्टिगत होता है | साधना का फल पराशक्ति का शक्तिपात या सन्निधान साबित हो सकता है अन्यथा वह ढोंगियों का दिखावा बनकर रह जाएगा या वह जादू की छड़ी जैसा भोग भावना भुनाने का उपादन सा इट हो सकता है जो सिद्धि के स्थान पर ग्लानि का सूचक बन सकता है | धर्म पंक्ति बद्ध होकर अपनी उपस्थिति दर्ज करने भर या तीर्थों में भीड़ जमा करने भर का भाव नहीं | यह आज वैसा ही लगता है जैसे सरकार के समक्ष माँग का प्रदर्शन अथवा विरोध प्रदर्शन , जमावड़ा या अनशन | हमारी पर्व – त्योहारों में श्रद्धा और विश्वास का आस्था में क्या प्रतिशत है , इसका प्रमाण पुर्णाहुति के बाद हम कितना सात्विक और ध्यान मग्न , प्रेम मग्न अथवा प्रवण लगते हैं , उसमें आँके | तथापि यह भाव की उस में खड़े न होने पर कहीं उन्हें कोई उनकी श्रद्धा को कांतर मुआंक सके , इसे ही ईश्वररोहन का प्रथम सोपान भी मान लेना क्या बुरा होगा | अरवा चावल का शराब पीना क्या सात्विकता का प्रमाण नहीं |
अगर ऐसा नहीं तो इसे नैतिक प्रपंच या सात्विक भूल भुलैया कहें तो क्या हर्ज ?