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 सीख की भिक्षा

 डा ० जी ० भक्त

 ज्ञान और विज्ञान की अगम्य सरिता रुपी सभ्यता और संस्कृति पाकर भी अज्ञानता के संकट को झेलता विश्व कराह की ज्वाला सहने को लाचार है । वह अज्ञानता की इस लपट में अपना पैर डालता जा रहा सुख और समृद्धि तलाश रहा है ।

 सभ्यता अर्जित कर जो कुछ पाया , कल्याणकारी रहा । अपनी बढ़ती आकांक्षाओं को पराकाष्ठा पर पहुँचा वह एक सुखद दुनियाँ में नई संस्कृति की गंध पायी , भोग पाया , तृप्त हुआ । जरा सोचा जाय , वह समृद्धि क्या रही ? मात्र प्रकृति के साधनों में उपयोगिता को विविध रंग देकर अपनी इन्द्रियों को संतुष्टि के योग्य बना कर देखना और उसी में खो जाना और धरती एवं आकाश को कचरे समर्पित कर पर्यावरण को प्रदूषित और ब्रह्माण्ड को प्रभावित कर विनाश को आमंत्रित करना । यह रही विकास की विनाशकारी कर्म कथा ।

 सृष्टि में घटनाओं और कथाओं की श्रृंखलाएँ सदा से विचारों को बल देती रही , आज भी दे रही । हम सुन रहे थे , अगाह किये जा रहे थे कि पर्यावरण विविध प्रकार के दुष्प्रभावों के कारण संकट की ओर बढ़ रहा है । संरक्षण की शिक्षा मिल रही थी उसका प्रारंभ हो चला था । और हम उसके साथ ही अठलेखियाँ करते जा रहे हैं । रोग , शोक , मर्ज , कर्ज , शोषण – प्रदूषण , अपोषण – संक्रमण , क्रोध , विरोध , नकारात्मक सोच ने निर्णय से समरसता और सामाजिक सरोकार छीना तो हमारे बीच वैचारिक एकता अब संकट की घड़ी ला दी । विश्व ही विद्रोह के क्षण पैदा करता जा रहा है । आयुध तैयार है । रण – नीति बन रही है ।

 आज ही समाचार पत्र में पढ़ा ” इस हिम – शिला के टूटने से क्या हम सिख पाये ” । अब क्या सीखेंगे , हर – दिन , हर – क्षण तो सीख ही रहे है , अब तो भीख भी दुर्लभ होगा । दूर मत जाइए । साल बीता । कोरोना से जूझ ही रहे है । विश्व में राजनैतिक संकट गहरा रहा है । कभी आकाश तो कभी धरती , कभी समुद्र तो कभी वायुमंडल , आक्रोश जता रहा । बाढ़ , सुखाड़ , भूकम्प , भूस्खलन , वज्रपात , भ्रष्टाचार , लूट , अपहरण , विरोध , प्रदर्शन गिनाते जायें , दिमाग गंदा कर रक्त चाप बढ़ाएँ , हृदयाघात झेलें- तब भी हम नही चेत पायें । भारत का हृदय दहला तो यूरोप भी वर्फीली आँधी से कहा संभला ।

 कहना कोई गलत नहीं होगा कि जनमानस कुछ भी सकारात्मक दिशा लेने को तैयार नहीं । मन कर्म और वाकी की शुचिता जा रही , चितवृत्तियों पर संयम न हो पा रहा तो दुष्प्रवृतियों की शिक्षा का ही फल भोगना आज का युग – धर्म सभीचीन दिख रहा है । मानव को अब सिखना कुछ नहीं , चेतना पड़ेगा । नेतृत्व में सुधार अपेक्षित है । अत॑मन को पवित्र करना ही सही दवा सिद्ध होगी । भोग , लोभ , मोह और परिग्रह का जीवन कुछ और बुरा दिन लाने वाला है । सम्भव है उस आँधी में सत्ता और जनता दोनों पर समान संकट आ पड़े । विश्व को अब राजनीति से उपर उठकर प्रेम पल्लवित करने में जुट जाना चाहिए ।

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