सृष्टि का अर्पूव सच हमारी पारिवारिक व्यवस्था
सुना जाता है कि जन्म और मृत्यु के सदृश ही प्राकृति में सृष्टि और प्रलय का विधान है । ऐसा ही होता आया है । हमारी आयु छोटी होती है अतः हमारी आखों के सामने घटता नजर नहीं आता , किन्तु यह सिद्धान्त लागू है । प्रकृति पर ही लागू है । हम भी जन्म लेते है । मर भी जाते है । हममें भी सृष्टि का विधान पलता है । हम भी प्रकृति के ही अंश है । हम उत्पादक सर्जक , पालक और संहारक भी हैं । हम क्यों न मान लें कि त्रिदेव की संज्ञा हमे ही मिली है । हम जिसे अबतक खोजते आये है । साक्षात्कार चाहते है । वही तो हम है ।
हम ज्ञानमय है । हम ही विज्ञान के उपकरण है । प्रयोग के साधन है , उपादान है । हम ही प्रयोग कर्ता है , साथ ही उपभाक्ता भी । हम ब्रह्म रुप है । छोटे तौर पर हमारी अपनी दुनियाँ है । जब हम मृत्यु की गोद में सो जायेंगे तो यह विज्ञान , जिसके विधान में जीवन को जोड़ा और उत्पाद को छोड़ गया वहीं रहा ” मनु ” और वही बनी ” सनुपा ” । प्रकृति और पुरुष ।
विषय साफ झलकता है । यह शरीर शास्वत नहीं लेकिन विज्ञान तो शास्वत है । उसका बीज भी हममे ही है । उसकी बीजोप्ति हमसे होती है । फिर यह भी सत्य है कि उसकी व्यवस्था लौकिक ही लगती है , दैविक नहीं । हाँ , प्राकृतिक भी । इसकी व्यवस्था और पोषण में प्रकृति का हमें साथ मिलता है । अतः क्यों न कहा जाय कि प्रत्यक्ष जगत जो दृष्टि में भास रहा है उसके हम ही मान लिए जाये अथवा हम पर ही निर्भर ( प्रकृति के सहयोग से ) है । अबतक हम मानते रहे कि मानव सबसे बाद की सृष्टि है । इस विषय पर दिमाग दौड़ाना छोड़ दें तो परमेश्वर की परिकल्पना को थोड़ी देर के लिए विचारधारा से अलग विराम देकर सोचे तो मानव की भूमिका ही आदि काल से अबतक विचारणीय रही है । प्रत्यक्ष चेतना तो मानव में है तो परमेश्वर का पर्याय रुप मान लेने से ईश्वर की कल्पना साकार लगती है । हम इस आलेख को विश्व के पटल पर डाल कर ऐसा अनुभव कर रहे है जैसे रेखा गणित का प्रमेय सिद्धान्त रुप में यह सत्यतः उदाहरण माना जा सकता है ।
जब सृष्टि का यह अनमोल जीव मानव कभी बिखरी हुयी सत्ता रही होगी जिसे उसकी सामाजिक मानसिकता ने पारिवारिक ढाँचा में ढाला होगा । तब से मानव का कीर्तिमान उसे भगवान के रुप में खड़ा कर एक सभ्य और संस्कृति विश्व का रुप दिया जो तथा कथित ईश्वरीय सृष्टि को आज की शब्दावलि मे स्मार्ट बना डाला । आज अगर हम धर्म को भूल बैठे , नैतिकता खो बैठे , सामाजिकता बिखर रही तो सम्चन्नता और जन शक्ति तो अपार अर्जित की । हमारे विष्णु भगवान को कुर्ता पहनने के लिए नहीं जबकि वे हिरण्य पुरुष है । शंकरजी आज भी अवधूत ही ठहरे , लेकिन हम तो अपने आविष्कार सृजन और संयत्र सभ्य को विकसित करते हुए सृष्टि भी चला रहे है वनस्पति भी और क्या नही है धरती पर । स्वर्ग हमने देखा नही चन्द्रमादि ग्रहोपग्रह हमारे ठहराव बन रहे है अब सिर्फ स्वर्ग पर पाँव रखने मात्र की देर है ।
हे मानव प्राणि एक छोटी सी कमी सामने रह गयी है । अगर नैतिकता को वस्त्र और सदशिक्षा को आभूषण रुप ग्रहण कर लेते तो बचा हुआ आदर्श सुशोभित हो पाता ।
( डा ० जी ० भक्त )