हिंसा गरीबी का रहस्य
डा० जी० भक्त
ऐसा तो कही मैंने पढ़ा नही, न किसी के मुँह से सुना किन्तु वलवान द्वारा कमजोर को सताया जाना सर्व कालिक घटना है। हमेशा से होता आ रहा है। छोटी-छोटी उपेक्षाएँ भी जीव को यातना पहुँचाती है जो हिंसा कही जा सकती है। भारतीय संस्कृति ही नही, दुनिया में सभी दीनों पर दया, जरूरतमंदों की सहायता, कष्ट में पड़े हुए की सेवा, अकिंचनों को दान देना अपना कर्तव्य मानते है किया भी जाता है किन्तु न विपुलता में न पर्याप्तता में सिर्फ औपचारिकता मात्र यहाँ व्यावहारिक रूप में दान, परापकार सेवा आदि कल्याणकारी या श्रेय पूर्ण कार्य अप्रासंगिक लगते है जहाँ तक सामाजिक सरोकार या समरस व्यवहार, मेल, सद्भाव, सहयोग, आदर सम्मान, तक भी दिखावा मात्र लोग कटकर चलते है । सम्बन्धों में विखराव रिश्तो में बिलगाव, दो रिलों के बीच दूरियाँ बढ़ती गयी। अटूट सम्बन्ध तो सपना हो गया। मित्रता स्वार्थ सूचक। पति-पत्नी में तलाक । कोख में पलती संतान का गर्भपात, अब क्या बचा? कभी कल्पना की जा सकती है कि यह समाज जुड़ सकेगा व्यवहारो में सभीपता, समरसता पनपगी ?
दीनता, गरीबी, अकिंचनता, साधन हीनता, आर्थिक विपन्नता, रोग, लाचारी, विकलांगता, भूखमरी, प्रताड़ना अधिकार छिन जाना सम्पत्ति का हास, प्राकृतिक आपदा, दुर्घना आदि एसी परिस्थिति है जिसमें सदा दुदिन ही देखने को मिलते है। परमुखापेक्षा जीवन कितना कठिन और सकटपूर्ण होता है अगर किसी का अवलम्वन न प्राप्त हो डूबते को तो मात्र तिनका का ही सहारा पर्याप्त है किन्तु दुदिन में वह भी दुर्लभ ।
बिडम्बना है कि हम सुनते हैं मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज हो तब तो, वह तो समूह मात्र है। उपकार वह तत्व है जिसमें सम्वेदना सहज होती है। उपकार के प्रति कृतज्ञता का ख्याल होता है। दीनता के चेहरे बहुत कुछ व्यक्त करते हैं, पर हमारी ज्ञानन्दियों में दीन से लोग दूरी बना लेते है। चाहे मैं रहूँ या आप अथवा कोई अन्य बता सकते है कि कोई दुनियाँ में किसी दिन परिस्थिति से दो-चार नही हुए हो, किन्तु दूसरों के प्रति वे जड़ हैं, सवेदना शून्य ।
जिन्होंने प्रकृति या समाज के खुले पन्नों को नहीं पढ़ा, वे दूसरों के मुख से तो अवश्य सुने होंगे, बशर्तें कि उनके कानो में संवेदना के स्पन्दन हो, अगर आप पदे-लिखे शिक्षित हैं तो प्रमचन्द जी के “सवा सेर गेहूँ” और “एक लोट पानी” तो पढ़ा होगा। अगर आपके मस्तिष्क में मानवीय चेतना की किरणें प्रस्फुट हो और करूणा की छाप । गणेशशंकर विद्यार्थी का “अपना-अपना भाग्य “लघु कथा” कहे या “संस्मरण” वह मानवीय सवेदन हीनता का ज्वलत उदहारण है। खास कर मेरे लिए कहना कदाचित अनुचित और प्रतिक्रियात्मक न माना जाय, किन्तु प्रसंगवश कथ्य को छिपाने के विषय वस्तु की प्रखरता का ज्ञान सम्भव नही, साहित्य की सामग्री का मौलिक प्रदर्शन घटना की भावाभिव्यक्ति में है। घटना क्रम से मारी समीपता का बोध होता है। एक आर्थिक विपन्नता के शिकार करीब उम्र के साठ वर्ष पार रहे होंगे जब मैं पाचवें वर्ष में द्वितीय कक्षा का छात्र था, वे मेरे घर आकर बोले। दो बजे दिन का समय घर से परिवार वाले ने गोशाले पर सत्तू – थाली में सिर्फ सत्तू ही भेजा था, दुःख और भूख दानों ही सता रहे थे। मेरी माँ से निवेदित किया (मरी कलम रूक रही है, भावुक हूँ माँ ने अपने घर से उसवेला में अचार या सब्जी देकर उनकी भावना को विराम दिया।
इस अखिल ब्रह्माण्ड के नीच धरती पर जन और जीवन का साथ देने वाले प्रभु के प्रसाद रूप मिट्टी पाँव रखने के लिए वनस्पति (पत्र, पुष्प, कलगी फल या दाने, मूल तक) भोजन, हवा और जल सूर्य की रश्मि दिशा बतान और पोषण के लिए पर्याप्त ही नहीं अपार है। वह प्रभु कितना दयालु है जो हमें धरती पर पाँव रखने के पूर्व माँ के स्तन में दूध भरकर भेजा था कि कदाचित मेरे पुत्र को समाज की बेवफाई न सहनी पड़े..।
दुखी मत हो मेरे भाई, यह दुनियाँ है। प्रकृति देने के लिए नहीं, सीख लेने के लिए है प्रकृति हमारी मां है शिक्षिका, रक्षिका, सेविका और क्या नहीं सन्तों के जीवन से सीखो, वे भिखारी नहीं थे, सम्पदा के खान थ, वे हमारे आदर्श हैं। सदा से आज भी आगे भी रहगे दुनियाँ याद रखेगी मानव के मानव से अनेक नाते हैं उनके नाते स्वार्थ के है। पिता-पुत्र और मां भी कहना गलत नहीं प्रासंगिक भी है। इसे सत्य न मानकर माता-पिता के प्रति सम्मान देना। उससे बढ़कर आध्यात्मिक भाव है शिक्षक, सहायक संरक्षक, सेवक, पालक और पथ प्रदशक का इसे याद रखना, कृतज्ञ होना सोचना। मैं उनकी कृपा से कृतार्थ हुआ अब उपकृत कैसे होऊँ इसके लिए अपने मन में भक्ति भाव रखना। इससे आगे बढ़कर देखो। नाते में विखराव वह क्या ? नकारात्मक संवेदना के जन्म से किसी के अनपेक्षित व्यवहार के प्रतिफल, क्रोध, घृणा, द्वेष आदि के कारण भुला दो इसे परमातमा से प्रर्थना करो, वे सुधरें। तुम अपने पथ पर बढ़ा बन परे तो उन्हे भी मार्गदर्शन दो प्रतिकार नहीं उपकार सीखो। यही सिर्फ यही अर्जित करो तो दुनियाँ के धनी क्या, शक्तिशाली क्या ईश्वर भी तुम्हारे सामने इस लिए झुकग कि तुम उनकी संतान के हित में खड़े हो।
अमानवीयता मानवता की हत्या है सारी दीनता की जड़ में एक रहस्यमय कोलाहल छिपा है उसी हिंसा के बीज को नष्ट करना सामाजिक उत्थान होगा उसकी सीख हमारी शिक्षा में समाहित की जाय। ………..और सभी व्यवस्थायें सुधार प्रमियों व्यसाय है जो दिन रात लाभ हानि का हिसाब लगाता और भाग दौड़ का जीवन जीता है, वह क्या दूसरो को जीवन देगा। यही कठोर सच है मजाक नही ।
जीवन को सही दिशा देना हमारा काम है।
पेट की पूर्ति के साथ शुचिता पर ध्यान,
दूसरों के पेट पर भी ध्यान रखना,
और जीवन का सही मार्ग होना चाहिए।