व्यंगवाण, प्रदूषण पर जंग जारी
-:चिन्तन दो टूक:-
डा० जी० भक्त
आज का दैनिक जागरण अपने देश के अधिकांश शहरों के वातायन को जहरीला करार देता हुआ एवं कारणों को गिनाता हुआ निदानों पर गंभीर दिखा धूम और धूल पर लेखक के तेवर कुछ विशेष चिन्ता जताते हुए उसे घातक बताये। एलर्जी पर उनका ध्यान गया।
समाधान के विधान पढ़ें किन्तु विचारों में जमीन पर अबतक कुछ नहीं हो पाते जानकर मेरि चिन्ता बढ़ी। उत्तर की तलाश की, तो तुरंत ही मुझे प्रश्न में ही हल अचानक मिल गया। कोरोना की दवा नही थी। विश्व परेशान था ता मास्क ही काम किया। आखिर हमारे देश की आवादी पर सरकार गम्भीर हैं। इस गम्भीर होने से ज्यादा भला है समस्या से ही समाधान निकाल लेना। अतः मैंने अपना विचार रखा। धूल को प्रदूषण के रूप में स्वीकारना हमारी भूल होगी। इसी धरती की धूल (रज कण) को गजेन्द्र अपन मस्तक पर बार-बार डालते हैं यह जानकर कि यह मुक्ति दायिनी है। इसी का पावन संस्पर्श पाकर गौतम पत्नी अहिल्या शाप मुक्त हुयी। • हमें एलर्जी होने से भय है क्यों न हम सोते समय मुँह खोल कर साँस लें। धूल को डम्प करने के लिए खाली स्थान भी तो नहीं मिल रहा। जन संख्या उतनी बढ़ी कि उसके सामने धूल कुछ भी नहीं भूखे पेट, बिना कीमत चुकाये वैक्सिन नीन्द भी अच्छी आयी और सवेरे वायु पंडल भी धूल से मुक्त फिर सरकार की चिन्ता खत्म सोचते-सोचते समस्या भी नौ दो ग्यारह । आखिर धरती का निर्माण भी तो ब्रह्माण्ड मे फैले असंख्य पिंडो से धूल कणों के एकत्र समुद्र की सतह पर जमने से हुआ था। आज भी तो अल्का गिरता ही है। ठीक अगले सप्राह स उल्का की वर्षा धरती पर होन वाली ही है। हम उत्सक हैं उसे देखने के लिए इससे भी तो ज्यादा ध्यानोचित है हमारा अंतरिक्ष सांस्कृतिक अभियान के रॉकेट मिशाइल उपगहादि के कचरे तव आने शुरू कर ही देंगे।
प्रदूषण को कम्पोस्ट में डालकर उसे हम भूषण क्यों न बनाएँ विचारों में ही तो सच्चा निर्माण निहित है। प्रयास तो विफल भी हो सकता है। पाठक भी कुछ दिमाग लगायें तो ऐसी समस्याओं पर उत्तमविचारों का उद्भव सम्भव है। ऐसा ही तो अबतक होता रहा है भूख और दुख में संतोष न कर विपुल वैभव, विलारिता और व्यसन में व्यस्तों का पीछे मुड़कर देखने में सारे कचरे ही दिखते है। इस अपार जन संख्या को राजगार या कोई जीविका के साधन उपब्ध न हो पाये तो स्वावलम्वन के हितार्थ कचरे चुनना या युद्ध में मरना अवश्य ही नशीब होना है।
उधर राजनीति करने वाले अगर धूम और धूल को भूल जाये तो जनतंत्र कैसे चलेगा? देख न किस प्रकार नदी तट पर झाड़ू फेरते ही गंगा किस प्रकार पवित्र हो रही।
धन्य है हमारी वैचारिक परम्परा!