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जीना मुश्किल है

डा० जी० भक्त

सहयोग – असहयोग, समर्थन विरोध, अत्याचार भ्रष्टाचार प्रोत्साहन और धोखाघरी आदि परस्पर विरोधी परिस्थितियाँ तो बाधक घातक और बिनाशक होती ही है किन्तु विश्वासघात की राजनीति अन्ततः कभी विश्वासघातो पर उल्टी पड़ती है और जनतंत्र में उसकी ज्यादा सम्भावना रहती है।

डेढ़ अरब की जसंख्या में से जो भी आज के युग में पिछड़े हैं और देश के ऊपर चुनौतियों का अम्बार है उसके परे अपार सम्पति अन्तहीन समस्या का कारण बनकर छिपा है या कुछ ही लोगों के हाथों केन्द्रित है वह राष्ट्रीय जीवन का कौन-सा आयाम दे रहा है। यह चिन्तनीय विषय बन गया है। यह अन्ततः जन आन्दोलन का अनुत्तरीय विषय बन सकता है अथवा शासन सत्ता की जिम्मेदारी बनती है कि कारगर विकल्प ढूंढ सके।

सत्ता के पास संविधान में न्याय और दंड का प्रावधान है व्यवस्था भी है लेकिन कठोरता आर शीघ्रता की जगह दीर्घ सूत्रता और अन्य कई अनपेक्षित बातें हैं, जो जीवन का राहत दे समरसता लाये, सुधार लक्षित हो तथा एक स्वस्थ परम्परा का निर्माण हो सके। पूरा तंत्र अनुमानतः वेतन लूटने के लिए है कुछ अनुपयोगी है। कुछ मृत प्राण तो कुछ वादों से घिरे उसके बीच जीना कठिन हो रहा।

सामाजिक सरोकारों का पिछड़ना मानवाधिकार जैसी समाज सेवी संस्थानों, विधानों, कानूनों और निर्णयों की अनुपयुकता से तो निराशा मिलती ही है लोगों में सांस्कारिक प्रवृत्तियाँ, दुगुण, दुष्चेष्टाएँ, पारिवारिक परिरिस्थतियाँ, सामाजिक जीवन में पिछड़ापन, असहयोग और उपेक्षा, जाति, धर्म, भाषा और पारस्पशिक द्वेषता और प्रतिस्पर्द्धा का शिकार होना अशिक्षा, अस्वस्थता, समाज को कमजोर बनाने वाले अंधविश्वास और रूदिवाटिता आतंक, अत्याचार समाज विरोधी तत्त्वों आर गतिविधियों पर नियंत्रण का अभाव, गरीबी, आर्थिक विषमता और अधिकारों पर बंदिशें ये सभी जीवन के मार्ग की बाधाएँ है। सभी मार्गों पर पहरे बिठाना जब सरकार द्वारा विफल साबित हुआ तो समाज जो पहले से रूग्न और विकलोग हो चुका है, कहाँ तक किसको संरक्षण देगा।

एक मार्ग है आत्म चिन्तन आत्म निर्णय का सहारा लें। स्वयं जागरूक बनें। कुछ बुनियादी सोच लेकर बढ़े कुछ अपने सदृश पड़ोसियों मित्रों को अपने विचारों में लेकर बढ़े कुछ रचनात्मक सोचे और करें आपको पता होगा शिक्षा में कमजोरी आने लगी। भले ही सरकार शिक्षा के विकास और रोजगार सृजन दोनों ही लक्ष्य को लेकर विद्यालयों की संख्या बढ़ायी वेतन का लक्ष्य लेकर आंदोलन हुआ। सरकारी करण के बाद शिक्षक सुस्त पड़े कुछ काल (लगभग 20-28 वर्षों के लगभग) नियोजन पर ध्यान न होने से वेराजगारी बढ़ी बेरोजगारी का विकल्प पढ़े-लिखे लोगों ने विद्यालय खोलकर आकर्षक मार्ग अपनाया। बड़ी संख्या में कन्वेंट विद्यालय चलने लगे। कोचिंग संस्थानों में रोजगार ओरिचेन्टेड तथा कम्पीटीशन जीतने का टिप्स सुझाये जाने लगे। एक उद्योग सा माहौल तैयार हुआ। सचमुच जो बेरोजगार थे, उन्होने रोजगार बाँटने का काम शुरू किया। आज वह एक संस्कृति बनगयी जिस सरकार ने उन्हें वे रोजगार रखा था, वही आज उनकी जेब भरन और अपने आप को समृद्ध बनाने में कामयाव हुए। आज शिक्षा का व्यावसायी कारण शिक्षा माफिया, शिक्षा घोटाला, कई ऐसे वैकल्पिक विभाग कार्यशील है, माना जाए कि सभी शिक्षा संकाय बन चुके है जिन्हें समाप्त करना शायद अब सम्भव नहीं लगता। शिक्षा में टॉपर घोटाला ने सबकी आँखे खोल दी है जरूर किन्तु उसका सकारात्मक स्वरूप खड़ा हो, इसका कोई कदम शिक्षा विभाग नहीं उटा रहा। ऐसी बाते हर दिमाग में है। सर्वत्र माफियों की चलती है।

मै सावधान बनने की हिमाकत करता हू आप माफियागिरी, गांधीगिरी नकरें, मुन्ना भाई न बने एक स्वस्थ स्वच्छ प्रगत, प्रवुद्ध और कर्मठ नागरिक बनकर समाज को जगायें रचनात्मक दिशा में सही सुझाव, श्रम, सहयोग, सेवा, समर्पन से उनका विश्वास प्राप्त करें। स्थानीय समस्या से जुड़े ज्वलत विषयों में से प्राथमिकता के क्रम में कदम उठाय अवश्य ही जन जागरूकत को ऊर्जा प्राप्त होगी और आपको सहयोग एवं समर्थन तथा संसाधन सद्भाव भी यह संदेश सुगन्ध की तरह फैलेगा सभी दिशा से आपके 1 नेतृत्व की अपेक्षा जतायी जायेगी आपको सफलता के कीतिमान समाज को प्रेरित करेगा आपके व्यक्तित्त्व, कौशल अनुभव का विस्तार में फैलाव होगा फिर यही समाज और देश आपके पद प्रभाव, प्रतिष्ठा एवं पूर्णता की ओर अग्रसर होने में सहायक सिद्ध होगा ।

स्वार्थी महत्त्वाकांक्षा भले ही हिटलर बनायें,
जनमगल की भावना ही बुद्ध बनाती है।”
याद रखें- क्या यह मजाक है ?

By admin

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