शिक्षा क्षेत्र में कोचिंग का साम्राज्यवाद
डा० जी० भक्त
आदि काल से हमारा देश जगत गुरू कहलाता आया है। कोचिंग इंस्टीच्यूट चले तो बूरा नहीं । एक बात जो गम्भीर स्वरूप ले रखी, अवश्य ही दुखद और विचारणीय है। इस विषय का केन्द्र कहाँ से मार्ग पकड़ा, इसकी खोज आवश्यक होगी जिसे जड़ से उखाड़ फेकना चाहिए।
विद्यालय स्थापना, उसके पठन-पाठन की नीति और वर्ग व्यवस्था उसके सिलेवस निर्माण और शिक्षा के क्षेत्र जो समयानुसार देश के लिए उपयोगी हो उसका नियमन, प्रचलन, पल्लवन और प्रतिफलना पर लगातार चिन्तन एवं मूल्यांकन होना आवश्यक होगा।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में मौलिक रूप से इन विन्दुओं पर ध्यान नहीं दिया जाना ही प्रधान कारण माना जा सकता है जबकि उस काल खण्ड में ख्याति प्राप्त, नामधन्य शिक्षा विदों की संख्या क्रम नहीं रही, न उनके सहयोग की उपलब्धता में कभी रही न समय-समय पर आवश्यकतानुसार आयोग और समितियाँ बनाने और दिशा निर्देशण में देर ही की गयी, लगभग ऐसे प्रयोगात्मक विधान कि आज हम चिन्ता निमग्न बैठे है शिक्षा की दीन दशा पर ।
शिक्षा, स्वास्थ्य, नैतिक जिम्मेदारी और कार्य कौशल पर मनोयोग से ध्यान न दिया जाना और शीर्ष नेतृत्व का पीछे मुड़कर न देखना एवं मात्र पद की प्रगति में यही पाया कि देश की धरती से सदाचार पिछड़ रहा जिसका प्रतिफल जनता झेल रही और देश पर दाग लग रही। उन्हें ध्यान पूर्वक चेतना में लाना चाहिए।
राजस्थान के कोटा स्थित कोचिंग संस्थान में मेडिकल एवं इंजिनियरिंग कॉलेजों में नामांकन की योग्यता प्राप्ति हेतु जो छात्र पहुँचते हैं उनकी क्या दिक्कत है कि वहाँ उन्हें आत्म हत्या कर लेनी पड़ती है? मैं नहीं जनता । आज दिनांक 14 दिसम्बर 22 को दैनिक हिंन्दी “हिन्दुस्तान” में एक अतिसम्वेदन शील लेखक ने कुछ ऐसी ही घटना पर खेद की है।
मेरा जन्म स्वतंत्रता प्राप्ति के साल ही नवम्बर में हुआ था। आज तक के अनुभव में यही पाया कि जेनरल एजुकेशन जीवन को दिशा देने में अपर्याप्त रहा है। कुछ ऐसे विषयों की जटिलता पर अपनी बुद्धि का व्यावसायिक प्रयोग कर महत्वाकांक्षा रखन वाले छात्र एवं अभिभावकों को आकर्षित कर लाभ कमाने का हिसाब-किताब लगा लिया है। जो इन आत्म हत्याओं के पीछे रहस्य बने हैं। अगर सरकार यहाँ सजग होती तो शिक्षण के साथ ही विशिष्ट क्लास की व्यवस्था का विधान सोच पाती और हर आर्थिक वर्ग के मेधावी छात्र वहीं से चयन के योग्य बन कर अपना लक्ष्य प्राप्त कर पाते ।
अतः इन बिन्दुओं पर सकारात्मक उतरने हेतु भावी छात्रों, उनके अभिभावकों और सरकार को निश्चित रूप से आगे आकर सोचना चाहिए।
उल्लेखनीय है कि 1912 में समाचार पत्र में ऐसा देखने को मिला कि शिक्षा की गुणवत्ता घटी है। प्रधानमंत्री माननीय मनमोहन सिंह जी एवं राष्ट्रपति महामहिम श्री प्रणव मुखर्जी महोदय ने एकही मंच पर स्वीकारोक्ति में साझा किया कि आज के विश्व विद्यालय सिर्फ स्नातक उत्पन्न करते है। उनकी इस वेदना पर देश की सरकारें आज तक नही ध्यान दी साथ ही शीर्ष नेतृत्त्व ने भी पीछे नहीं झांका। मैंने इस विन्दु पर बहुत कुछ प्रयास किया जिसका प्रमाण मेरी पुस्तक “जनशिक्षण में अभिव्यक्ति की यथार्थता” माननीय राष्ट्रपति महोदय की सेवा में अर्पित की देश के अन्य तीन प्रमुख पुस्तकालयों में भेजा अवतक देश उसके लिए धन्यवाद नहीं तो प्रतिक्रिया तक न भेज पाया। निश्चय ही हमारी सूझ में शिक्षा मौलिकता को खो रही है।