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पेट भरता नहीं

डा० जी० भक्त

प्रकृति ने वनस्पति पैदा कर उसके पोषण हेतु सर्वप्रथम जड़ विकसित किया जो धरती से जल और पोषक तत्त्वों का शोषण कर पाये उसी प्रकार जीवों के पोषण और खाद्य संग्रह के लिए मुँह और पेट का सृजन किया। जिन जीवधारियों (देह धारियों) को विरासत के रूप में कुछ नही मिला उनका प्रकृति पर साम्रज्य पाया गया। स्वतंत्र विचरण, सम्यक पोषण एवं निर्वाध निवास सिर्फ उन्हें शिकारी (मानव य जीव या दानों ही) से भय रहा। कालान्तर में कुछ पालतू बनाये गये (captive or owned.)

किन्तु मानव ने जो सभ्यता विकसित की आज उसका अधिकार धरती आकाश और सागर पर तो है हीं अब वह अंतिरीक्ष को अपना लक्ष्य बनाकर अभियान प्रारंभ कर चुका है। प्रकृति के समस्त साधन का भौगोलिक विरासत उसे ही मिली जिसपर वह अपना आधिपत्य मानता है, उसकी सारी अस्मिता व्यष्टि भाव में सीमित है किन्तु उसके पेट का विस्तार समष्टि भाव की सूचना देता है। इसका तात्पर्य यह है कि वह सम्पूर्ण विश्व का भोजन भी चाहे ता हड़प ले सकता है, उसकी यही अभिप्सा आज दूसरों को दोनता झेलने के लिए अभिशप्त बना रखा है।

वृद्ध माता-पिता की थाली की रोटी हो तो उसकी संख्या घट जाय या टुकड़ों में बँट जाय। भाई- भजीजा का हिस्सा हो तो वेइमानी करली जाय। पड़ोसियों का हा तो चुरा लिया जाय किसी अन्जान का हो तो हड़प लिया जाय समूह का हो तो कब्जा लिया जाय लूट, अपहरण, ठगी, शोषण, घूसखोरी, चोरी, मुनाफाखोरी, तस्करी, हिंसा हत्या, गालियाँ, ग्लानि, बाद, जुर्माना, पराजय, गुलामी, जेल, निर्वासन आदि सबकुछ मानव को ही झेलना पड़ रहा। इतनी सभ्यता, संस्कृति, धन ऐश्वर्य, विद्या, कौशल और पराक्रम पाकर भी दुर्गतियों को गले लगाना क्या अभीष्ट है। समस्त प्राणियों का पेट भरता है। उना दुनियाँ में बोई कोलाहल नहीं सिर्फ मानव वेचन है। क्या उसने सभ्यता, विज्ञान, तकनीक, धन, वाहन और सुख के भरपूर साधन जुटाकर उसके संग्रह सुरक्षा और भोग भुनाने में अपना को पराया न बनाया भोग ही रोग बना, पाप-पुण्य में अन्तर और श्रेष्ठ- नेष्ठ का ख्याल भूल गया।

जब शिकारी जीव की तरह प्राकत जीवन से आगे बढ़कर वह चरवाहा, खेतिहर और शिल्पी बनकर विश्व को एक नयी सजी-धजी दुनियाँ देकर सन्तुष्ट न हुआ। संसाधनों का उपयोग, उत्पादों का भोग-विनिमय विपणन विधान उसे समृद्धि के शिखर पर खड़ा किया, फिर स्वयं पतन के गर्त में क्यों गिरा ? प्रथमतः उसकी बुनियादी मांग तान ही रही। भोजन, वस्त्र और गुफा में शयन कालान्तर में रोटी, कपड़ा और पकान की अपनी संस्कृति पर जीने हुए जीवन का सच्चा आनन्द कैसे सहकार संपुट संगठन की नीव डालकर ग्रामनगर और व्यवसाय का केन्द्र खड़ा किया। जब तक वह उपने पराक्रम, परिश्रम को विकास का आयाम देता हुआ समष्टि के लिए जीता रहा उसकी पहचान स्वर्ण युग के निर्माण में लगी देखी गयी किन्तु जब उसकी दृष्टि में अस्मिता और निजत्व की अवधारणा जगी तो वह सिमटकर स्वार्थी बना उसका पेट इतना फैला कि वह सुरसा की तरह पास पड़ोस का जहाँ पोषण करता था, उसे ही निगलने लगा।

आज हम विश्व की व्यवस्था को अनोखा मानते है फिर अशान्ति का आलम चिन्ता, असुरक्षा और अनिश्चितता की घनघोर घटा विश्व भर को घेर रखी है। मानव अब सुखी, समृद्ध और समरस न रहा। उसका ही विज्ञान उसे चिढ़ा रहा है। घन जो कल्याणकारी था उसे छिपाना आज धनवानों की नींद समाप्त कर दी फिरभी वे धन को निकालने के बजाये स्वयं छिप रहे हैं। आज समृद्धों पर ही सबकी नजर है। रूप, यौवन, फीका क्यों पड़ रहा। मान्य क्यों देश छोड़ कर जाता छिपे ? आखिर अभी दरिद्र नारायण को भेंट चढ़ने वाले हैं। वे कर्ण शिवि, दधिचि नही बनना चाहते बली बनकर बावन का तिरस्कार किया आज उनका नोट और सेना सिर पर भार और जीवन का जंजाल बन चुका छटपटाहट है। दुनियाँ देख रही है। इतने पर भी उनपर दया दिखायी जा रही है। वे टस से मस नही हो रहे क्यों | कि उनका पेट नही भरता। क्या मजाक है!

अब तो सबक लेनी चाहिए ?

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