संस्कृति में परम्पराओं का पालन जरूरी किन्तु विचारणीय
डा० जी० भक्त
सभ्यताओं के सृजन में काल और परिस्थिति की भूमिका का समावेश किंचित अभाव या अतिरेक हो जाना सम्भव है जिसमें समयानुसार सुधार की प्रक्रिया चलती रहती है जो विचार मंथन की अपेक्षा रखती है। अगर भूल हुई तो उसकी परम्परा कालान्तर में आडम्बर साबित होती है। वहाँ पर भ्रम, भूल, विवाद, पश्चाताप और सुधार की स्थिति आती है। निस्तार और निदान पर अपूर्व समर्थन की अपेक्षा होगी।
धर्म शास्त्रों एवं समाज शास्त्र आदि सम्मत ज्ञान का अनुशरण करते हुए परिवर्तन आवश्यक होता है, वशर्ते उसमें किसी व्यक्ति विशेष की निजी सोच के दखल भी की विचारा जाय जो स्वार्थ वश ऐसा मत देते हो। अवश्य ही समाज के कुछ लोग अपने मत पर हठी और गम्भीर होते हैं जो हित के निर्णयों पर भारी पड़ते हैं। फलतः विषय जहाँ का नहीं पड़ा रह जाता है और समाज आगे नहीं बढ़ पाता। ऐसी परतंत्रता से आज का समाज आर्थिक और सांस्कृतिक रूप में पीछे पड़ता जा रहा हैं किन्तु उसकी समझ मारी गयी है। अगर उसमें निर्णय की दृढ़ता है तो सही कदम पर प्रयास प्रारंभ करें। अच्छे फल मिलने पर सभी अनुकरण करेंगे और समर्थन दें या न दें समाज तो आगे बढ़ने लगेगा। अब हर क्षेत्र में सोंच बदले और सकारात्मकता का मार्ग प्रशस्त करने का व्रत लेकर बढ़े । हम सुधर जायें तो जग का भी सुधार हो जायगा। जो आज तक समाज सुधारक हुए उनके अन्ततः सम्मान मिला हो या नहीं, समाज को अवसर तो मिला। उसके संरक्षण और सम्बर्द्धन की जवाबदेही लेना समाज न भूले।
इस जिन्दगी में जिम्मेदारियाँ आजीवन हमें गतिशील रखती है और सरकार पंचवर्षीय होती है। जो योजनाए लागू होती है उसमें से अधिकांश फलित नहीं हो पाती, वहाँ पर जनता को स्वयं जागरूक होकर काम लेने की जरूरत है। आज का समय ऐसा ही सोचने को सिखा रहा है। स्वार्थी और महत्वाकांक्षी जन समाज को दिग्भ्रमित कर उसका शोषण करना चाहते है। जनतंत्र में मतदान ही जीवन पथ की कुंजी है। आज अपने मत से देश को सजा सकते हैं या उसे जला सकते हैं। लंकिन लोभ भुलावे और दबदबा के शिकार न बनने का व्रत लेंतो पूरी सुधार सम्भव है। लेकिन सम्भावना में तो शताब्दी पूरी होनि जा रही है। करने की लग्न है वो करो अन्यथा तथा कथित सुविचारों की सुगंध और स्वाद की ओर ध्यान न देकर विवेक को ही प्रयोग में लायें।
गरीबों, दीन दुखियों, साधन हीनों को आगे बढ़ना है। उपभोक्ता वादिता अपना प्रभाव जमाता जा रहा है फिजुल खर्चा, फैशन, बच्चों और परिवार के अकर्मण्य सदस्यो की अनपेक्षित मागों पर अपनी आय को बर्बाद न कर प्रगति के मार्ग पर चलें अन्यथा दुनयों के धूर्त आपको लूटने के लिए चौबीसो घंटे ताक में है। हितों के प्रेरक नहीं, वर्तादी के पाठशाले सर्वत्र खुले हैं। हम परम्पराओं के पीछे आंख मूंदे बिना जूते पहने चल रहे हैं। अन्धकार में है तो विषधर ग्रसेगा ही।