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चुनाव चुटकी

डा० जी० भक्त

जनतंत्र में राज्य या राष्ट्र की शासन सत्ता जनता के हाथ है। जनता जो चाहे। महिला हो या पुरुष, युवा हो या वृद्ध अथवा दिव्यांग, सबको है नागरिकता। पहले पुरुष ही अधिकतर वोट डालते थे। अब नारियाँ बदलाव स्वाभाविक है। सत्ता के अकारी राजनीति में नीतिवान होते थे। आज पहलवान धनवान या चातुर्य प्राप्त बुद्धिमान।

प्रथम बदलाव था 1857 का गदर तो दूसरा 20वीं शताब्दी का स्वतंत्रता संग्राम। तीसरा बदलाव आया 1974 जबसे गणतंत्र के पाँव हिले या कमर ढीले पड़े। इतने ढीले पड़े कि आज राज सत्ता के उम्मीदवारों की कभी कहाँ नीति एक कसौटी है। शिकंजे सा सिकस्त आज के बदलाव में जरा देखिये तो तुरंत दल-बदल… तो तुरंत गठबंधन और इतना भी जान ले कि वह गठबंधन आज तटबन्ध की तरह टूटते देर नही।

सबसे अधिक महत्त्व का बदलाव वह है, जहाँ सरकार स्वयं नगदी मतदान पर उतरती नजर आयी। विश्वास नही किया जाता था कि ऐसा होगा, किन्तु अब मतदाता ही श्रोता तो बक्ता भी है। अब सत्ता की कुर्सी अपने नेता की प्रतीक्षा नही करती बल्कि कुर्सी छीनी जाती है। इतनी जागृति !… …..काश अगर पहले ऐसा हुआ होता तो जनता को जागृत करने की इतनी लम्बी अवधि की प्रतीक्षा ?

एक बार मैंने जनता में जागृति देख प्रभावित हुआ मेरी कलम जबरदस्ती बोल उठी मैंने रोका। पुछा क्या बोलना चाहती हो ?

वह बोल पड़ी

भैंस एक दिन पटना पहुँची।
जाकर वह लालू से कह दी।।
नही मिलता मुझको कैश।
जिसकी लाठी उसकी भैंस ।।
अब देखिए। इतना से नही
जबतक बिहार मे रहेगा आलू के खेताबा।
तबतक राज करेगा लालू के बेटवा ।।

अब वस्तुतः यह सक राजनीति से पड़े एक अनुशासन बनाता जा रहा है। कौन कहेगा इसे कि इसे विचार और नीति की गम्भीर्य निहित नही हैं?

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