हमारा शरीर और स्वास्थ्य
हमारे जीवन में शास्वत और अशास्वत क्या है , इस प्रश्न पर आदि काल से चिंतन चल रहा है । अबतक उत्तर इतना ही मिल पाया कि सृष्टि भी शास्वत नहीं है । प्रकृति भी शास्वत नही । … तो जीवन शास्वत कैसे हो पायेगा । यह लौकिक जीवन का ही चिन्तन है , अतः इमारा चिन्तन भी शास्वत नही माना जा सकता । कारण यह कि देह में प्राण की स्थिति तक ही जीवन ( आयु ) है । यह लौकिक संबंध मात्र है । इसका मरणोत्तर कोई अस्तित्त्व नहीं ।
अब सवाल उठता है स्वास्थ्य का , जिसके लिए विश्व के मानव प्राणी सदा – सर्वदा सचेत , सचेष्ट एवं चिन्तनशील रहा करते हैं । इसका कारण सुख की कामना है । वह सुख जो भौतिक या इन्द्रिय ग्राम है उसके लिए समृद्धि चाहिए , समृद्धि के लिए श्रम , श्रम के लिए स्वस्थ शरीर , शरीर में शक्ति और शक्ति के साथ स्वस्थ सोच चाहिए । स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन का निवास होता है । अस्वस्थ मन तो विकार ग्रस्त होता है । अतः आवश्यक है कि आजीवन शरीर और मन स्वच्छ और स्वस्थ रहे ।
मनुष्य सदा से सामाजिक प्राणि रहा है । आज विश्व ही समाज बन गया है । हमारा वैश्विक संबंध निखर रहा है । अतः हमारे चिन्तन में विश्व को सुखी बनाने का उद्देश्य और सुखी देखने का लक्ष्य लेकर चलना अपेक्षित है । इस वैश्विक सोच में आज हम समाज को विकसित मान सकते हैं किन्तु सुखी मानना स्वीकार्य नही लगता । यहाँ समृद्धि में स्वार्थपरता और सुख में संग्रह की सोच व्याप्त है । अगर हम त्याग ( सहायता या अनुदान ) की बात उठायें तो वह सहेतु लक्षित है । क्या हम स्वस्थ मन और अस्वथ शरीर की कल्पना कर सकते हैं जहाँ दिल ही टुकड़ों में बँट रहा ?
आज से पहले ऐसा नहीं देखा गया था । सोचना दूर की बात रही , किन्तु जब कोरोना ने कान खड़ा किया तो सोच , शरीर और स्वास्थ्य ही नहीं बिगड़ा , विविध प्रकार के प्रश्न पैदा हुए । विश्व वेदना की आह सुनी जा रही । कहने और गिनाने की बात छोड़ कर हम आगे बढ़े । प्रतिक्रिया से प्रतिकार के भाव पैदा होते हैं ।
हम अप्रत्याशित विनाश की चिन्ता में डूब रहे हैं , साथ ही इसी समाज की सर्वाधिक आबादी को उसी घृषित – दूषित परम्परा का पालन करते देख कर भय खा रहे हैं तो हमें पुनः इसे सम्भावित विनाश से बचाने के लिए नये प्रयास की आवश्यकता पड़ेगी ।
स्वस्थ परम्परा के निर्माण हेतु स्वस्थ जीवन , स्वस्थ चिन्तन , स्वस्थ संगठन कायम करना जरुरी होगा । स्वस्थ वातावरण , शुद्ध आहार , सुविचार और जनकल्याण के मार्ग पर चलने की प्रतिबद्धता से ही स्वस्थ और चिर स्थायी समरस जीवन का प्रतिफलन सम्भव होगा । भगवान रामचन्द्र ने अपने हाथों गिने चुने राक्षसों को मारा किन्तु राम के आदर्श पर चलकर असंख्य दुखी – गण अपना जीवन सफल कर पाये । हम आज इस पथ पर अग्रसर होने का प्रयास नहीं , तो याद अवश्य करते हैं ।
वर्तमान युग में सक्रिय राजनीति की ओर मानव की दिशा है । उसके साथ जन कल्याण कम किन्तु भोगवादी महत्त्वाकांक्षा की संधातिक प्रतिस्पर्धा सता रही है । यहाँ स्वस्थ राजनीति के साथ स्वस्थ राजधर्म के निर्वाह की जरुरत है । इसके लिए स्वच्छ जनतंत्र की स्थापना अपेक्षित है । जबतक हम जन – मन को सुदृढ , सुशिक्षित , जागृत और सामाजिक सरोकारों पर सफल उतरने की शिक्षा से विभूषित न कर पायेंगे तो मानव जीवन क्या , विश्व को सम्भावित विनाश से कभी बचा नहीं पायेंगे ।
डा ० जी ० भक्त