आँसू
संवेदनाओं की झोली में एक अनुत्तरित प्रश्न-4
आँसू एक परिचयात्मक पाणि – पल्लव
ऐसा कहा होगा जैसे मैं कुछ मर्माहत होकर ही कलम को कष्ट उठाने के लिए वाध्य कर रहा हूँ । मेरा घिसा – पीटा उत्तर आँसू के संबंध में है सामाजिक अपसंस्कृति ………… | और यही अपसंस्कृति कोरोना के आदिर्भाव की पृष्ट भूमि में है । उसका एक उदाहरण आतंक वाद है और स्मार्ट संस्कृति का आहान । जिसे हम त्यागना नही चाह रहे तो वह अपना प्रभाव जमाना नहीं छोड़ रहा । इसी की रस्साकशी में दुनियाँ दवी हुयी लाचार मरनासन्न है
” ना जाने कित मारि है , क्या घर क्या परदेश ।”
देख न लिया , परदेश से मारे घर आये , यहाँ भी वही पाये- कोरोना , हाय । तने तो सिर्फ रुलाया होता तो भी ठीक था लेकिन मार डाला , दुनियाँ मे तो लाश को भी सम्मान मिलता है । लेकिन कोरोना वाले शवों को कोई छूता नहीं । …….. | इसलिए आँसू ….. जिसे हम मानवीय सम्वेदना का प्रतीक मात्रकहकर सम्बोधित कर रहे है , वह अनुत्तरित है ।
उत्तर सुनिये ,
आदिकाल से राजतंत्र रहा , उसका भी अन्त हुआ , कौन – कौन तंत्र न आया । किसकी पराजय न हुयी , आज विश्व में पुजातंत्र है । यह क्यों बना था ? शायद उसे सबसे उत्तम राज व्यवस्था मान ली गयी थी अब उसके पास से जनमत पिछड़ रहा । जनतंत्र कमजोर पड़ रहा । गठबंधन की आशा लेकिन विलय नहीं , विचारधारा से समझौता कहाँ मेरी कल्पना जिसे मै भी आज उसे आदर्श तो नही किन्तु आदर्शवादी ही कहूँगा । आदर्श चिन्तनों का इतिहास वैदिककाल में जो जन्म लिया आज तक हमारे पुस्तकों में तो है ही सिर्फ आचरणों में और माने तो अब चिन्तनों में भी नहीं है । हमारे प्राथमिक शिक्षण से भी अनुशासन , नैतिकता , कर्तव्य बोध और सामाजिक सरोकार जैसे सामाजिक तत्त्व गायब है और वैश्विक धरातल पर राष्ट्रीय मर्यादा का क्षरण इसी के कारण हो रहा है ।
दूसरा बिन्दु है प्रेम और दया का , जो आँसू का उमूलन कर सकता है । जन – जन में एकी भाव को हृदय में स्थान देना , जहाँ न क्रोध होगा , विरोध , न क्रोध , न हिंसा न कोई कष्ट या विशाद ही ।
तीसरा होगा भय निवारण । क्यों न हम अपने मन से ही भय हटा दें । विडम्बता है कि हम जिन्हें अपने मतों से विजयी बनाकर भेजते हैं वे हमारे दरवाजे पर किसी आयोजन में निमंत्रित होकर भी आते है तो गाड़ी के साथ , शस्त्रों के साथ । गाड़ी पर सवार होकर । ठीक है उनका क्षेत्र बड़ा और व्यस्तता अधिक होने के कारण तीव्र सवारी की अनिवार्यता रहेगी किन्तु दरवाजे पर कभी किसी आपदा विपदा में भेट करने नेता सहज नागरिक रुप में , भाव में , भाषा में , विचार में हृदय से एक भाव लिए मिलते पाये गये ?
देखने को मिला था एक आदर्श तथ्य व्यवहारिक रुप में । अखिल भारतीय होमियोपैथिक महा सभा का द्विवार्षिक अधिवेशन मुम्बई में हो रहा था मैं बिहार राज्य से एच ० एम ० ए ० आई ० का राष्ट्रीय प्रतिनिधि बनकर भाग ले रहा था । समापन समारोह का सम्बोधन करते हुए तात्कालीन राष्ट्रपति महामहिम ज्ञानी जैल सिहजी मंच पर अपने गार्डो से घिरे थे । उन्हें 45 मिनट का समय सम्बोधन के लिए निर्धारित था । समय पूरा होते उनके गार्ड घड़ी की ओर तीन बार इशारा किये । इस पर महामहिम जी ने कहाँ- मैं अपने देश के अन्दर अपनी धरती पर हूँ । मुझे हक है अपने देश की जनता के बीच खुलकर समय देने की । मैं कुछ कह रहा हूँ तो अपनी प्रिय जनता के बीच सौभाग्य मानता हूँ । मैं
भी वहाँ स्वतः उपस्थित सुन पाया । कृतार्थ हुआ ऐसे पुरुष के प्रासंगिक वाणी में सम्बोधन से । अगर यह जन नेतृत्व में सहज देखा और पाया जाय तो आँसू का धरती से उत्सादन हो जाय ।
ऐसा अगर सार्थक परिलक्षित हो तो ” क : रोना ” : कोरोना अर्थात रोना क्या ? कोरोना कोई अर्थ नही रखता , ऐसा दृष्टि गोचर होगा किन्तु हमने क्या देखा –
चिकित्सकों को ही अपने रोगी के सम्पर्क से कोरोना के संक्रमण का भय सताने लगा । अपने कर्त्तव्य से पिछड़ने लगे । इससे बढ़कर कर्म और धर्म का तिरष्कार क्या होगा ?
अब मेरी अंतिम – सलाह होगी कि जन सेवा को सदा श्रेय दिया जाय । उसे दूसरे शब्दों में हम शील सौजन्य कहते है । मानव होकर मानव का सम्मान करना ही परम भक्ति था कृतज्ञता का भाव रखना पूजा स्वरुप होगा । यहीं पर ” सिया राममय सब जग जानी ” का निहितार्थ फलेगा और मानव जन्म चरिचार्थ होगा ।
अपरंच , मैं आप पाठकों से निवेदन करूँगा कि यह लघु रचना जो आज से 10 वर्ष पूर्व पूरी हुयी थी वह किसी प्रकार खो गयी । इसकी पीड़ा मुझे ही पीड़ित कर रखी । मैं इसे प्राप्त करने में अबतक अपने को असफल पाया । उसका विस्तार इससे ज्यादा था , मैं उस तैयार कर मन से संतुष्ट हुआ था । पुनर्रचना का ख्याल बार – बार मुझे मन पर चोट डालता रहा जिसे आज लिखकर कर्त्तव्य पूरा कर पा रहा हूँ । उसमें अन्तर्निहित भावों की श्रृंखला के संबंध में मैं स्वतः क्या कहूँ किन्तु इसकी परिपति भी मुझे पसन्नता दिला रही साथ ही आशान्वित भी हूँ कि आप इसे अवश्य सहारना के साथ जीवन में जोड़ने के प्रयास के साथ अन्यों को प्रेरित – प्रोत्साहित कर पायेंगे । निवेदन के साथ संवेदन भी एक सजीव शब्द चित्रण है जो साहित्य को ही अलंकृत नहीं करता बल्कि ऐसे समाज का संगठन करता है जो राष्ट्र का प्राण बनता है । मै हत भाग्य हूँ कि ऐसी भाषा को सामने तो रख पाया हूँ किन्तु यह प्रश्न ही बनकर रह न जाय । अगर इस निवेदन के शब्द का व्यक्तिकरण सम्भव न हुआ , यह जिम्मेदारी देश की आने वाले पीढ़ी के लिए चुनौती ही रह जायेगी जिसे मैं अबतक अनुत्तरित शब्द से दुहराता रहा हूँ ।
( डा ० जी ० भक्त )
लेखक
हाजीपुर ( वैशाली )
तदनुसार भाद्रपद कृष्णा त्रयोदशी
रविवार की रात्रि
दिनांक 16 अगस्त 2020 ई ०