विकास की शब्दावलिमें प्रदूषण चिन्तनीय
ऐसा सुनने में कितना बुरा लगता है जब हम अपने देश के बारे में नकारात्मक चर्चाये शुरु होती है । यहीं पर हमारा विश्वास टूट जाता है और हम सोचने लगते है अपनी तरक्की के ताम – झाम पर जिसकी आड़ में हमारे विकार वजवजाते दिख पड़ते है । सफाई पर ध्यान जाना तो दूर की बात , जब घर में टूट झाडू खरीदे नही जा रहे । घर की गंदगी पर बाद मे ही सोचा जाय , तबतक बरसात ने दस्तक दे डाली । वर्षा ने सारी गंदगी बहा कर दूर की । नाले भर गये । नदियाँ भर आयी । बाढ़ का प्रकोप भी यत्र – तत्र दिखने लगे । आँगन में घास उपज आये । किसी ने कहाँ – आँगन मे सर्प टहल रहा था । गढ़ों में घास – फूस . जंगल आदि सड़कर दुर्गन्ध फैलाने लगे । मच्छरों का आतंक , ज्वर , खाँसी , चर्म रोग , सताने लगे ।
यह सारा प्राकृतिक खेल मानव और पालतू जन्तुओं के स्वास्थ्य पर भारी पड़ने लगे । बीमारी , उसकी चिकित्सा , उसमे खर्च , मर्ज और कर्ज का बढ़ना विकास को पछाड़ डालना प्रारंभ किया । हमारी जीवन की समरसता में व्यवधान खड़ा हुआ । व्यवस्था बिगड़ी । अस्वस्थता का असर अत्पादन और आय को प्रभावित कर डाला रुग्न विकास का सिलसिला चल पड़ा ।
रोग अभिशाप है । शिक्षा , स्वास्थ्य और उत्तम आहार , कौशल और अर्थ व्यवस्था में सुधार । जीवन स्तर का सुखद अनुभव ही सही विकास के घोतक है । आराम , व्यसन , भोग , अशान्ति , चिन्ता और ग्लानि नरक के दृश्य उपस्थित करते हैं । स्वस्थ समाज , उन्नत के साथ सकारात्मक सोच राष्ट्र के विकास को श्रेय प्रदान करते है । उसमें भी आर्थिक असमानता में उन्नति अर्थहीन है । इससे समरस समाज की कल्पना नहीं की जा सकती । हमारी स्वस्थता परिवेश को पोषण प्रदान करे । यह भाव ही विकास का सम्बल बनता है । जीवन पारस्परिक सहयोग की भावना पर चलता है । अतः वैचारिक एकता समाज की शक्ति बनकर उभरती है , वही पर विरोध एवं संघर्ष एकता को तोड़ने और विकास का पैर पीछे खीचने वाली भूमिका के रुप में खड़ा होता है । आतंक फैलता है । युगों की संचित संस्कृति में विघटनकारी दशा और दिशा की शुरुआत विश्व को बुराई की ओर अग्रसर करता है ।
एक ओर उदार वादी और वैश्विक उत्कर्ष की नीतियाँ बनती है , तो दूसरी ओर आतंकवाद समरसता समाप्त कर देता है । भय व्याप्त रहता है । भौतिक वादी सभ्यता का साधन आर्थिक मजबूती है । शोषण , लूट , संग्रह , और हिंसा के प्रचलन में आंतरिक आतंक फैलता है । जब राष्ट्र बाहरी और भीतर दोनों रूपों में आतंकित जीवन जीता है , वह समाज , राष्ट्र संस्कृति और मानव अस्तित्त्व पर खतरा का परिदृश्य खड़ा कर देता है ।
विकास का स्थायित्व और सुदृढ़ नीव पर खड़ा रहना सम्यक सोच की विचारधारा की अपेक्षा रखता है लेकिन मानव की महत्त्वाकांक्षा महाशक्तियों , पूंजीपतियों उद्योग पतियों का एकाधिकार व्यवस्था की समरसता को तोड़ – मरोड़ डालता है । यहाँ पर समाज अपनी आत्मिक स्वतंत्रता जब समाप्त होते पाता है तो विकास की श्रृंखला टूटने लगती है । सामाजिक रचना छिन्न – भिन्न होने लगती है । वादों में विवाद हो तो सफल संवाद पर ग्रहण लगना स्वाभाविक हो जाता है । आज विश्व इसी विचारधारा का शिकार है । वैचारिक धरातल पर भौतिकता पर अंकुश एक भारी प्रदूषण है । हम ऐसी मानसिकता को विकास का कचड़ा कहे तो कोई गलत नही । तब तो संतोष से जीना भी दूभर लगता है । मानव को अपना अस्तित्त्व कायम रखने के लिए अपने में सतत शुचिता बनाये रखने की प्रतिवद्धता जरूरी होगी । अगला भविष्य इसी की अपेक्षा रखेगा ।
द्वापर युग की कथा का सार महाभारत में लक्षित है । वहाँ युद्ध के बाद रोते – विलखते समाज का आँसू पोछने वाला न रहा । यह सीख देने के लिए व्यास तो नहीं आयेंगे । युधिष्ठिर जी का मुँह खुलेगा नहीं । कृष्ण पता नहीं कहाँ छिप जायेंगे । … लेकिन घर में रामायण – महाभारत गीतादि – ग्रंथ जो हमारे मार्गदशक बनेंगे । अब उन्हीं को साधन बनाना मानव के अस्तित्त्व को अक्षुण्ण रख पायेगा । सतोगुण , रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठकर निर्गुण का गुणगान ही एक साधन होगा ।
कर्मण्येवाधिकारस्तुमांफलेसु कदाचन ।