आधुनिक जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता
( निष्पति व निवृत्ति )
निवृत्ति
निवृत्ति का अर्थ है संग छूटना । इस कर्ममय जगत में जो चार प्रकार के कर्मों के परिणाम रुप फल बतलाए गये है , उनमें धर्म अर्थ ( धन ) काम ( इच्छा पूर्ति ) तथा मोक्ष है । परन्तु मोक्ष शब्द का संबंध लगता है कि पारलौकिक जीवन या मरणोत्तर जीवन अथवा पुनः जन्म से है । किन्तु इस लोक में इस मोक्ष का क्या तात्पर्य होना चाहिए यह जानना भी परम नितान्त है । इस सन्र्दभ ऐसा माना गया है कि दुःख से छूटकारा पाना ही मुक्ति या मोक्ष है । ऐसा दुःख रुप है क्या ?
रोग शोक , बन्धन , व्यसन , चाहे वह दैहिक हो , चाहे दैविक या भौतिक हो , दुःखमय है । लेकिन गीता के अनुसार इस लोक में फल की आशा करना अपेक्षित नहीं । कर्म करना मात्र ही ही अभीष्ट है । यह विदित है कि कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है । इसलिए वैसा कर्म कभी नहीं करना , जिसका परिणाम दुःखमय हो । अतः साधन की शुद्धि आवश्यक हैं साधन की शुद्धि के लिए मानव को दुर्विकारों को अपने कर्म से हटा देना चाहिए । वे है- नीन्द ( अधिक सोना ) , तन्द्रा ( जम्हाई लेना अर्थत जगने पर स्फूर्ति लाने के बदले देर तद शिथिल रहना या सावधान न होना ) , भय , क्रोध , आलस्य ( तत्पर न होना , या जगे रहकर भी नहीं उठना ) तथा दीर्ध सूत्रता ( किसी काम को टालते रहना कभी होगा ऐसा सोचकर छोड़े रहना ) समस्त गीता के श्लोकों में ही नहीं , अन्यत्र भी निष्कामता को ही सभी दुःखमय परिणाम देने वाले कर्मो से मुक्ति पाने का मार्ग बतलाया गया है , किन्तु हमें किच्चित इस बात में विरोधाभास नहीं होना चाहिए कि निष्कामता कर्महीनता है । काम , लोभ , मोह , अहंकार , राग- द्वेष से प्रभावित कर्म समूह के परिणाम दुःखमय है अतः उपरोक्त से युक्त प्रवृत्तियाँ हमें सासारिकता के बन्धन को स्त्री , पुत्र एवं धन में केन्द्रित कर परम सत्ता की पहचान होने में बाधा डालती हैं , फिर भक्ति और मुक्ति तो दूर की बात है । इस हेतु हम मानव प्राणियों की जो हमारी प्रवृत्तियों को उत्तेजना देते है , वैसे विचारों तथा जो विभूतियों के दर्शन में बाधा डालते हैं , उन विकारों से निवृति से लेनी चाहिए । तदुपरान्त अभीष्ट की प्राप्ति सम्भव हैं । तब तो यह निवृत्ति नहीं , सम्पत्ति सिद्ध होगी ।
फिर निवृति पाना एक प्रकार की जीत है । वह जीत किस प्रकार की ? संसार रुपी दुश्मन पर विजय पाना । संसार रुपी शत्रु तीन है जिनका पहले वर्णन हो चुका है- स्त्री , पुत्र और धन । विजय युद्ध द्वारा होती है । गोस्वामी तुलसी दास ने इस संसार रिपु पर विजय पाने हेतु जिन साधनों का वर्णन किया है वे हैं- वीरता और धीरज रथ के चक्के है । सत्य और शील रथ में लगे ध्वजा पताका है । बल विवेक दम और परोपकार नाम के जिनमें घोड़े जुड़े है । क्षमा , कृपा और समानता जिनका बागडोर है । ईश्वर भक्ति जिनका रथ हाक ने वाला आसक्ति का त्याग जिसकी ढाल और संतोष तलवार हैं । दान फरसा बुद्धि नामक प्रचंड शक्ति हैं तथा विज्ञान ( अनुभव ) कठोर धनुष है शुद्ध और अचल चित् जिसका तर्कस , सयम और नियम जिसके वाण है , ब्राह्मण ( ज्ञानी ) तथा गुरु की पूजा अमेद्य दो कबच है । इससे बढ़कर विजय का उपाय कोई अन्य नहीं है उपरोक्त धर्ममय साधन द्वारा ही यह संसार रिपु जीता जा सकता है । महाभारत का युद्ध जीतने वाले अर्जुन के प्रति जो भगवान कृष्ण का उपदेश है उसका सार यही है जो भगवान पुरुषोत्तम राम ने विभीषण के प्रति समझाया था । आज की दुनिया में जो धन गौरव और शारीरिक बल में विश्वास करते है वह सचमुच साधन नही अहंकार है अतः जहाँ स्वत्त्व की लड़ाई है , अहंकार जहाँ साधन है वह विजय नहीं विनाश है ।
अतएव भैतिकता का भंडार संग्रह हमारा उद्देश्य नहीं उससे छुटकारा पाना हो , हमारा लक्ष्य होना चाहिए । इसके लिए परोपकार । दान , यज्ञ एवं त्याग का अवलम्बन ही हमारी मानसिकता होनी चाहिए । यही सत्य का दर्शन है । यही अविनाशी शिव है । यही सुन्दर ज्ञान स्वरुप परमेश्वर की प्राप्ति का सोपान है ।
रोग शोक , बन्धन , व्यसन , चाहे वह दैहिक हो , चाहे दैविक या भौतिक हो , दुःखमय है । लेकिन गीता के अनुसार इस लोक में फल की आशा करना अपेक्षित नहीं । कर्म करना मात्र ही ही अभीष्ट है । यह विदित है कि कर्मानुसार ही फल प्राप्त होता है । इसलिए वैसा कर्म कभी नहीं करना , जिसका परिणाम दुःखमय हो । अतः साधन की शुद्धि आवश्यक हैं साधन की शुद्धि के लिए मानव को दुर्विकारों को अपने कर्म से हटा देना चाहिए । वे है- नीन्द ( अधिक सोना ) , तन्द्रा ( जम्हाई लेना अर्थत जगने पर स्फूर्ति लाने के बदले देर तद शिथिल रहना या सावधान न होना ) , भय , क्रोध , आलस्य ( तत्पर न होना , या जगे रहकर भी नहीं उठना ) तथा दीर्ध सूत्रता ( किसी काम को टालते रहना कभी होगा ऐसा सोचकर छोड़े रहना ) समस्त गीता के श्लोकों में ही नहीं , अन्यत्र भी निष्कामता को ही सभी दुःखमय परिणाम देने वाले कर्मो से मुक्ति पाने का मार्ग बतलाया गया है , किन्तु हमें किच्चित इस बात में विरोधाभास नहीं होना चाहिए कि निष्कामता कर्महीनता है । काम , लोभ , मोह , अहंकार , राग- द्वेष से प्रभावित कर्म समूह के परिणाम दुःखमय है अतः उपरोक्त से युक्त प्रवृत्तियाँ हमें सासारिकता के बन्धन को स्त्री , पुत्र एवं धन में केन्द्रित कर परम सत्ता की पहचान होने में बाधा डालती हैं , फिर भक्ति और मुक्ति तो दूर की बात है । इस हेतु हम मानव प्राणियों की जो हमारी प्रवृत्तियों को उत्तेजना देते है , वैसे विचारों तथा जो विभूतियों के दर्शन में बाधा डालते हैं , उन विकारों से निवृति से लेनी चाहिए । तदुपरान्त अभीष्ट की प्राप्ति सम्भव हैं । तब तो यह निवृत्ति नहीं , सम्पत्ति सिद्ध होगी ।
फिर निवृति पाना एक प्रकार की जीत है । वह जीत किस प्रकार की ? संसार रुपी दुश्मन पर विजय पाना । संसार रुपी शत्रु तीन है जिनका पहले वर्णन हो चुका है- स्त्री , पुत्र और धन । विजय युद्ध द्वारा होती है । गोस्वामी तुलसी दास ने इस संसार रिपु पर विजय पाने हेतु जिन साधनों का वर्णन किया है वे हैं- वीरता और धीरज रथ के चक्के है । सत्य और शील रथ में लगे ध्वजा पताका है । बल विवेक दम और परोपकार नाम के जिनमें घोड़े जुड़े है । क्षमा , कृपा और समानता जिनका बागडोर है । ईश्वर भक्ति जिनका रथ हाक ने वाला आसक्ति का त्याग जिसकी ढाल और संतोष तलवार हैं । दान फरसा बुद्धि नामक प्रचंड शक्ति हैं तथा विज्ञान ( अनुभव ) कठोर धनुष है शुद्ध और अचल चित् जिसका तर्कस , सयम और नियम जिसके वाण है , ब्राह्मण ( ज्ञानी ) तथा गुरु की पूजा अमेद्य दो कबच है । इससे बढ़कर विजय का उपाय कोई अन्य नहीं है उपरोक्त धर्ममय साधन द्वारा ही यह संसार रिपु जीता जा सकता है । महाभारत का युद्ध जीतने वाले अर्जुन के प्रति जो भगवान कृष्ण का उपदेश है उसका सार यही है जो भगवान पुरुषोत्तम राम ने विभीषण के प्रति समझाया था । आज की दुनिया में जो धन गौरव और शारीरिक बल में विश्वास करते है वह सचमुच साधन नही अहंकार है अतः जहाँ स्वत्त्व की लड़ाई है , अहंकार जहाँ साधन है वह विजय नहीं विनाश है ।
अतएव भैतिकता का भंडार संग्रह हमारा उद्देश्य नहीं उससे छुटकारा पाना हो , हमारा लक्ष्य होना चाहिए । इसके लिए परोपकार । दान , यज्ञ एवं त्याग का अवलम्बन ही हमारी मानसिकता होनी चाहिए । यही सत्य का दर्शन है । यही अविनाशी शिव है । यही सुन्दर ज्ञान स्वरुप परमेश्वर की प्राप्ति का सोपान है ।