आधुनिक जीवन में श्रीमद्भगवद्गीता
( निष्पति व निवृत्ति )
निष्पत्ति भाग-2
10 वें वर्ग में जाते समय आपकी उम्र 14 वर्ष से ऊपर की हो जायेगी । उपरोक्त अभ्यास से आप में आत्म संयम आयेगा । ब्रह्मचर्य पालनमें सुविधा होगी कुविचार पैदा नहीं होंगे । अध्ययन अवाधगति से बढ़ेगा । परीक्षाफल अच्छा मिलेगा । आगे की कक्षा में आसानी से प्रवेश होगा । विश्व विद्यालय का कोर्स भार स्वरुप नहीं लगेगा । जीवनोपयोगी लक्ष्य निर्धारित करने में आपका विवेक काम करेगा । सही दिशा बोध होने से जीवन आगे सफल होगा । अपने – अपने पेशे में कुशलता , सदक्षता , लगन , उत्साह , गौरव , आत्मतुष्टि और आत्मविश्वास जगेगा । हर विद्यार्थी अब एक नागरिक होगा । वह अपने देश की इकाई होगा । वह देश , समाज और परिवार को एक सा समझेगा । जनमंगल के लिए वह अपनी सेवा अर्पित करेगा । व्यष्टि में समष्टि तथा समष्टि में व्यष्टि का हित झलकेगा । अब उसके लिए क्षमा , दया परोपकार अनायास हो जायेगा । वह अपने प्राप्त साधनों , ( ज्ञान , धन , शरीर और सामाजिक स्नेह ) द्वारा हर प्रयत्न में सफलता ही हासिल करेगा । आत्म बृत्ति के पश्चात उसके मन में एकाग्रता आ जायेगी । वह स्थिर मति का पुरुष बन जायेगा । वह राग द्वेष खो बैठेगा । ऐसा समत्त्व बुद्धि वाला पुरुष क्रोध , मोह , अहंकार में न फंसेगा । कर्म को पूजता हुआ वह मात्र पुण्य का फल खायेगा ।
स्वाध्याम , सुचिन्तन , धर्मपालन द्वारा आपने शालीनता आ जायेगी । आप संतान वाले हो गये रहेंगे । आपके सामने उनके पालन , पोषण , पढ़ाई शादी , नौकरी , आदि की चिन्ताएँ आयेगी । मन कहेगा संग्रह करूँ- गीता याद आयेगी भौतिक धन जो स्वयं अस्थायी है उसका संग्रह ? नहीं । अरबपतियों , खरबपतियों को भी अशान्ति और असन्तोष झेलना पड़ता है । रोग , बुढ़ापा और मृत्यु उनके भी पास है हीं । हमारा सच्चा साधन तो दूसरा है । गीता आपको पाप में जुड़ने से रोकेगी । आप फिर अपनी सन्तान को शुद्ध मार्ग पर चलकर स्वावलम्बी बनना सिखलायेंगे तथा उसे सफल नागरिक के रुप में खड़ा करने की शुद्ध परम्परा का निर्माण करेंगे । अब आपकी इन्द्रियाँ थकेगी , शरीर शिथिल होगा । कर्म क्षेत्र से नाता छूटेगा । लेकिन गीता के श्लोक तो हर पल गुंजित रहेंगे परिवार एवं बच्चों को कृष्ण के अमृतमये बचनों को गा – गा कर सुनायेंगे । तत्त्व ज्ञान को समझ – समझकर आत्मा में आनन्दित होंगे । अविनाशी ब्रह्म की सत्ता को अपने जीवन के आयामों में झांक – झांककर प्रफुल्लित होंगे , मृत्यु का भय मिटेगा । मोक्ष नजर आने लगेगा । दो ही बचेगा – जीव और ब्रह्म । आत्मा और परमात्मा का आँख मिचौनी में अनादि , अनन्त , अप्रमेश का रुप झलकेगा । आज आत्मा रुप के लिए जगत का अशास्वत संबंध छूट जायेगा । आप उसे झांकियेगा , वह आपको दीखेंगे । यही एकी भाव एक दिन एक को अनन्त में विलीन कर देगा । किन्तु आप में से ही कुछ जो कर्मो के इस अथाह सागर में माया रुप प्रकृति के वश में उस परम सत्ता को नहीं पहचान सकेंगे और कर्मो के परिणाम स्वरुप प्राप्त सुख भोगों में आनन्द लेते रहेंगे , वे पुनः कर्म को ही पायेंगे , ऐसा गीता बतलाती है । अतः गीता का अध्ययन आपको वैसे कर्मो से तो अवश्य बचायेगी जिनका परिणाम दुःखमय है । अतः हर दृष्टि से गीता मानव के लिए सुख का साधन है ।
कुछ लोग कहते हैं- कृष्ण कहते हैं ” मैं ईश्वर हूँ ” । ” मैं देवता हूँ ” । मैं पूण्य हूँ ” । ” मैं सब कुछ हूँ ” इत्यादि । ऐसे तो सामान्य दृष्टि से सभी पाठकों को प्रारम्भ में विरोधाभास लगता ही है । प्रारम्भ से अन्त तक पढ़ जाने पर कुछ भ्रम ऐसे ही मिट जाता है । कुछ हमारे छिछले ज्ञान के कारण संदेह होता है । गीता में प्रयुक्त सभी शब्द अपने शुद्ध एवं मौलिक अर्थ में समझने की वस्तु है । हमारा ज्ञान विज्ञान नहीं है । कुछ बातों को आप छोड़ दें तो उससे तनिक भी कमी नहीं आयेगी । महाभारत काल के पात्रों के नाम और कथा को जानना जरुरी भी नहीं है । सात ऋषि , चार मनु , आठ वसु , बारह आदित्य , 11 रुद्र , 46 मरुत् ( हवा ) सब कोई को जानना जरुरी नहीं है । पंच महा – भूत , दस इन्द्रियों , पंच महायज्ञ , अष्टांगयोग , सम , दम , यम , नियम , अवश्य समझ जायें ।
नारद , देवल . व्यास , कपिल आदि मुनियों का जिक्र गीता में आया है । हम उनके जीवन चरित्र से अवगत नहीं हैं । उनके चरित्र को जानने के लिए हमें नाना ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ेगा जो एक प्रकार से आवश्यक नहीं है । वे पात्र द्वापर युग के हैं । रामायण के पात्र वशिष्ठ , भारद्वाज , अत्रि , अगस्त विश्वामित्र परशुराम त्रेता युग के हैं । क्यों न हम अपने युग में महात्मा बुद्ध , महावीर , विनोवा महात्मा गाँधी , रवीन्द्र नाथ टैगोर , रामकृष्ण परमहस आदि युग पुरुषों के जीवन से शिक्षा ग्रहण करें । उनके व्यक्तित्व एवं कीत्तित्व में भी गीता के मन्त्रों की गुंज है ।
फिर कुछ बाते उस युग के प्रचलन , माप दण्ड तथा सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल है । कृष्ण कहते हैं- मैं महीनों में अग्रहण हूँ । उस जमाने में पहला मास अग्रहण से ही गिना जाता था । संवतों का अपना – अपना प्रचलन है । अभी भारत में चंत्र से साल का प्रारम्भ माना जाता है । ईश्वी में सन् जनवरी प्रथम मास है । अतः कुछ तथ्य अब अपना महत्त्व नहीं रखते । फिर कहते हैं मनुष्यों में राजा हूँ । अगर आज कृष्ण होते तो इस प्रजातांत्रिक युग में वे कहते- ” मैं मनुष्यों में राष्ट्रपति हूँ । या फिर लड़ने वाले शस्त्रास्त्रों में बज हूँ न कहकर कहते- मैं परमाणु बम हूँ या जो ….. हो । फिर काल की गणना का प्रामाणिक माप दण्ड क्या था वह भी आज थोड़ । विरोध पैदा कर देता है किन्तु ये कोई विषय नहीं ।
हमें गीता के प्रतिपाद्य विषयों को ही ग्रहण करना अभीष्ट है । मैंने जो लिखा है । श्लोकों का अनुवाद नहीं भावार्थ लिखा है जो इसके विस्तृति खण्ड में अंकित है । पढ़ने मात्र से जो मुझे अनुभव हुआ है अथवा जो मुझे अच्छा अँचा है , तथा जो अबतक भी मुझे आत्म सात करने में दिक्कत हुई है उन्हें भी महाप्राण के मुख से निकली हुई वाणी समझकर अपनी सीधी भाषा में लिखने का प्रयास किया हूँ । किंचित जगहों पर मुझसे अव्यवस्थित रुप में वाक्य बन गये हैं , परन्तु मेरे विचार से युक्ति संगत होने के कारण पाठकों के निर्णय हेतु छोड़ दिया गया । है । इतना के बाबजूद मुझे विश्वास हो रहा है कि आपके सामने यह हिन्दी प्रस्तुति अपने भावों को खोल पायेगी । अगर इसके अध्ययन से गीता पढ़ने वालों में बोध पैदा हो सका तथा पाठकों की संख्या बढ़ी तो यह परिश्रम सफल माना जायेगा । गीता में जीव और ब्रह्म की रचनात्मक और भावात्मक सत्ता का परिचय किया गया हैं । अगर मानव के जीव और ब्रह्म से व्याप्त जगतका परिचयात्मक वास्तविक ज्ञान मेरी भाषा द्वारा सम्भव हो सका तो हिन्दी भाषी क्षेत्रों में कर्मयोगी कृष्ण अधिक प्रतिष्ठित हो पायेंगे ।
स्वाध्याम , सुचिन्तन , धर्मपालन द्वारा आपने शालीनता आ जायेगी । आप संतान वाले हो गये रहेंगे । आपके सामने उनके पालन , पोषण , पढ़ाई शादी , नौकरी , आदि की चिन्ताएँ आयेगी । मन कहेगा संग्रह करूँ- गीता याद आयेगी भौतिक धन जो स्वयं अस्थायी है उसका संग्रह ? नहीं । अरबपतियों , खरबपतियों को भी अशान्ति और असन्तोष झेलना पड़ता है । रोग , बुढ़ापा और मृत्यु उनके भी पास है हीं । हमारा सच्चा साधन तो दूसरा है । गीता आपको पाप में जुड़ने से रोकेगी । आप फिर अपनी सन्तान को शुद्ध मार्ग पर चलकर स्वावलम्बी बनना सिखलायेंगे तथा उसे सफल नागरिक के रुप में खड़ा करने की शुद्ध परम्परा का निर्माण करेंगे । अब आपकी इन्द्रियाँ थकेगी , शरीर शिथिल होगा । कर्म क्षेत्र से नाता छूटेगा । लेकिन गीता के श्लोक तो हर पल गुंजित रहेंगे परिवार एवं बच्चों को कृष्ण के अमृतमये बचनों को गा – गा कर सुनायेंगे । तत्त्व ज्ञान को समझ – समझकर आत्मा में आनन्दित होंगे । अविनाशी ब्रह्म की सत्ता को अपने जीवन के आयामों में झांक – झांककर प्रफुल्लित होंगे , मृत्यु का भय मिटेगा । मोक्ष नजर आने लगेगा । दो ही बचेगा – जीव और ब्रह्म । आत्मा और परमात्मा का आँख मिचौनी में अनादि , अनन्त , अप्रमेश का रुप झलकेगा । आज आत्मा रुप के लिए जगत का अशास्वत संबंध छूट जायेगा । आप उसे झांकियेगा , वह आपको दीखेंगे । यही एकी भाव एक दिन एक को अनन्त में विलीन कर देगा । किन्तु आप में से ही कुछ जो कर्मो के इस अथाह सागर में माया रुप प्रकृति के वश में उस परम सत्ता को नहीं पहचान सकेंगे और कर्मो के परिणाम स्वरुप प्राप्त सुख भोगों में आनन्द लेते रहेंगे , वे पुनः कर्म को ही पायेंगे , ऐसा गीता बतलाती है । अतः गीता का अध्ययन आपको वैसे कर्मो से तो अवश्य बचायेगी जिनका परिणाम दुःखमय है । अतः हर दृष्टि से गीता मानव के लिए सुख का साधन है ।
कुछ लोग कहते हैं- कृष्ण कहते हैं ” मैं ईश्वर हूँ ” । ” मैं देवता हूँ ” । मैं पूण्य हूँ ” । ” मैं सब कुछ हूँ ” इत्यादि । ऐसे तो सामान्य दृष्टि से सभी पाठकों को प्रारम्भ में विरोधाभास लगता ही है । प्रारम्भ से अन्त तक पढ़ जाने पर कुछ भ्रम ऐसे ही मिट जाता है । कुछ हमारे छिछले ज्ञान के कारण संदेह होता है । गीता में प्रयुक्त सभी शब्द अपने शुद्ध एवं मौलिक अर्थ में समझने की वस्तु है । हमारा ज्ञान विज्ञान नहीं है । कुछ बातों को आप छोड़ दें तो उससे तनिक भी कमी नहीं आयेगी । महाभारत काल के पात्रों के नाम और कथा को जानना जरुरी भी नहीं है । सात ऋषि , चार मनु , आठ वसु , बारह आदित्य , 11 रुद्र , 46 मरुत् ( हवा ) सब कोई को जानना जरुरी नहीं है । पंच महा – भूत , दस इन्द्रियों , पंच महायज्ञ , अष्टांगयोग , सम , दम , यम , नियम , अवश्य समझ जायें ।
नारद , देवल . व्यास , कपिल आदि मुनियों का जिक्र गीता में आया है । हम उनके जीवन चरित्र से अवगत नहीं हैं । उनके चरित्र को जानने के लिए हमें नाना ग्रन्थों का अध्ययन करना पड़ेगा जो एक प्रकार से आवश्यक नहीं है । वे पात्र द्वापर युग के हैं । रामायण के पात्र वशिष्ठ , भारद्वाज , अत्रि , अगस्त विश्वामित्र परशुराम त्रेता युग के हैं । क्यों न हम अपने युग में महात्मा बुद्ध , महावीर , विनोवा महात्मा गाँधी , रवीन्द्र नाथ टैगोर , रामकृष्ण परमहस आदि युग पुरुषों के जीवन से शिक्षा ग्रहण करें । उनके व्यक्तित्व एवं कीत्तित्व में भी गीता के मन्त्रों की गुंज है ।
फिर कुछ बाते उस युग के प्रचलन , माप दण्ड तथा सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल है । कृष्ण कहते हैं- मैं महीनों में अग्रहण हूँ । उस जमाने में पहला मास अग्रहण से ही गिना जाता था । संवतों का अपना – अपना प्रचलन है । अभी भारत में चंत्र से साल का प्रारम्भ माना जाता है । ईश्वी में सन् जनवरी प्रथम मास है । अतः कुछ तथ्य अब अपना महत्त्व नहीं रखते । फिर कहते हैं मनुष्यों में राजा हूँ । अगर आज कृष्ण होते तो इस प्रजातांत्रिक युग में वे कहते- ” मैं मनुष्यों में राष्ट्रपति हूँ । या फिर लड़ने वाले शस्त्रास्त्रों में बज हूँ न कहकर कहते- मैं परमाणु बम हूँ या जो ….. हो । फिर काल की गणना का प्रामाणिक माप दण्ड क्या था वह भी आज थोड़ । विरोध पैदा कर देता है किन्तु ये कोई विषय नहीं ।
हमें गीता के प्रतिपाद्य विषयों को ही ग्रहण करना अभीष्ट है । मैंने जो लिखा है । श्लोकों का अनुवाद नहीं भावार्थ लिखा है जो इसके विस्तृति खण्ड में अंकित है । पढ़ने मात्र से जो मुझे अनुभव हुआ है अथवा जो मुझे अच्छा अँचा है , तथा जो अबतक भी मुझे आत्म सात करने में दिक्कत हुई है उन्हें भी महाप्राण के मुख से निकली हुई वाणी समझकर अपनी सीधी भाषा में लिखने का प्रयास किया हूँ । किंचित जगहों पर मुझसे अव्यवस्थित रुप में वाक्य बन गये हैं , परन्तु मेरे विचार से युक्ति संगत होने के कारण पाठकों के निर्णय हेतु छोड़ दिया गया । है । इतना के बाबजूद मुझे विश्वास हो रहा है कि आपके सामने यह हिन्दी प्रस्तुति अपने भावों को खोल पायेगी । अगर इसके अध्ययन से गीता पढ़ने वालों में बोध पैदा हो सका तथा पाठकों की संख्या बढ़ी तो यह परिश्रम सफल माना जायेगा । गीता में जीव और ब्रह्म की रचनात्मक और भावात्मक सत्ता का परिचय किया गया हैं । अगर मानव के जीव और ब्रह्म से व्याप्त जगतका परिचयात्मक वास्तविक ज्ञान मेरी भाषा द्वारा सम्भव हो सका तो हिन्दी भाषी क्षेत्रों में कर्मयोगी कृष्ण अधिक प्रतिष्ठित हो पायेंगे ।