राष्ट्र , उसकी अपेक्षाएँ और उसकी सरकारें
बड़ी चिन्ता की बात सामने खड़ी होती है अब अपने देश की अपार जनसंख्या की समस्याएँ , अपनी सरकार की नीतियाँ और प्रयासों के बावजूद दिनानुदिन गहराती दिखती है । हम इसे स्वीकारते है कि हमारा देश स्वतंत्रता प्राति के बाद कई मील के पत्थर अपने विकास से पार कर प्रगति पाया है तथापि इसमे बहुत सारी कमियाँ और खामियाँ हमें चिंतित कर रखी है जिनके अनेकों कारण हैं । हम जब उन कारणों के निदान तलासते हैं तो कठिनाईयों के साथ बाधाएँ भी सामने खड़ी दिखती हैं । क्या सारी बातों की जिम्मेदारी सरकार और उनकी नीतियों पर ही निर्भर करती है या जनता की सोच और सरकार के पदाधिकारी एवं कार्यकत्ताओं के कर्त्तव्य बोध पर भी सोचा जा सकता हैं ?
यहाँ पर यह भी विचारणीय है कि संसाधन , संरचना , संचालन और क्रियान्विति में कितनी इमानदारी , देशभक्त एवं जिम्मेदारी का भाव देखा गया और उसके अनुकूल और अनुरुप नियंत्रणात्मक और सुधारात्मक कदम उठाया जा सका । यह भी तो जरुरी है कि जनतंत्र में जनता की ओर से जनतांत्रिक तरीके से जनता द्वारा विमर्श कर कार्य योजना को सकारात्मक दिशा देते हुए कदम उठे ।
अपनी असफलता गिनाने , पश्चाताप करने और उसके दोषी पर आरोप लगाने के बदले अपनी भूलों पर तदनुरुप समुचित विधान और निदान ढूढ़कर ठोस निर्णय लिया जाय । कभी देश की जनता से प्राप्त स्वतंत्र विचारों की प्रासंगिकता और प्रयोजनीयता पर भी सम्मान पूर्वक विचारा एवं अपनी नीतियों में स्थान दिया जाय ।
मेरे विचार से जहाँ प्रशासनिक कार्य व्यवस्था खोखला सावित होती है वहाँ जन विमर्श की प्रासंगिकता पर सोचा जा सकता है । प्रशासनिक अनुभव रखने वालों विश्विष्ट कीर्तिमान से देश को समृद्ध बनाने वालों के साथ – साथ हर क्षेत्र की समस्या पर जनता की राय प्राप्त कर लेने से राष्ट्र का सही स्वरुप और विचारणीय तथ्य पर कदम उठना एवं पहल करना राष्ट्र की सोच बन सकती है ।
ऐसा होता भी है लेकिन देखा गया है कि इस संबंध में जो विचार संचित होते हैं वे कुछ निहित विसंगतियों के कारण हितकारी नही पाये जाते । इस बिन्दु पर देश प्रतीयमान निर्णय लेने का विधान सोचना अत्यावश्यक लगता है । जनतंत्र को सही दिशा देने का नया विधान जरुरी है । इस पर प्रखर चिंतन चाहिए ।
राजनीति में नेतृत्त्व लेकर सत्ता का लाभ लेने हेतु अपनी उम्मीदवारी दर्ज करा विजयी होने और सरकार में भाग लेकर अपनी भूमिका निभाई उनका मिलाजुल स्वरुप ही आज का भला या बुरा जैसा परिदृश्य सामने है , उसमे भी अपेक्षित सुधार चाहिए । इस लक्ष् को सफल बनाने में चुनाव आयोग और देश एवं राज्य के मतदाताओं को अब आँख खोलकर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए । उम्मीदवारी उसे मिले जो उस क्षेत्र विशेष में कम से कम 10 वर्षों तक अपनी सेवा के कीर्तिमान से जनता का विश्वास जीत पाया हो , सथ ही जनता अपनी स्वेच्छा से उसे अपना उम्मीदवार चुनना चाहती हो । ऐसा विधान लागू होने चाहिए । चुनाव आर्थिक घरातल पर नही , नैतिक और सेवा संकल्पिक होना चाहिए है ।
कम से कम प्रथम दृष्ट्या शिक्षा , स्वास्थ्य एव स्वावलम्बन की दिशा में कारगर कदम उठाये जाने पर पहल हो जो मिला जुलाकर जन आकांक्षा का पोषक के साथ लोक स्वास्थ्य का संरक्षक एवं आत्मनिर्भर भारत का सपना तो साकार करे ही , साथ – साथ स्वतंत्र भारत का भाव देश के पटल पर गुंजे ।