वर्ष 2012 का अवसान या , एक रिपोर्ट में प्रकाशित समाचार का आशय सामने आया कि विश्व के चयनित दौ सौ विश्व विद्यालयों में भारत के एक भी विश्व विद्यालय का नाम नही आया । इस समाचार से अपने देश ( भारत ) के साम्वैधानिक दोनों ही शीर्ष नेतृत्त्व ( राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री महोदयों ) महा – महिम प्रणव मुखर्जी एवं मनमोहन सिंह जी की चिन्ता बढ़ी ।
सत्यतः जो भारत विश्व गुरु के नाम से आदि काल से प्रतिष्ठित रहा वह आज इस दयनीय अवस्था को किन परिस्थितियों में प्राप्त किया ? इसका कारण शिक्षा में आयी क्रमिक गुणवत्ता में गिरावट रही ।
यह प्रत्यक्षतः सत्य है किन्तु मैं उन कारणों को गिनाना नही चाहता बल्कि उसमें गुणवत्ता के विकास की क्रमिक प्रगति लायी जाय , इसका प्रयास हो , यह नितान्त आवश्यक है । शान और विज्ञान का उद्गम से अद्यतन विकास का क्रमिक इतिहास हमारे देश की संस्कृति का विकास ही साक्षी है । हम उसे भूलते जा रहे हैं । शान एक प्रकाश है जिसे घूमिल कदाचित अपेक्षणीय नहीं । वैसे ही विशान , मेडिकल साइन्स ( चिकित्सा विज्ञान ) तथा साहित्य भी सृजनात्मकता , पोषण और संरक्षण के साथ सुजीवन देने वाला है । सांस्कृतिक अमरता का संदेश वाहक है । हम साहित्य को समाज का दर्पण भी मानते रहे है ।
आज आठ वर्षों के बाद भी हमने जो गरिमा खोई , उसके पुनर्रथापन पर सकारात्मक पहल न पा सके , मात्र शिक्षा की नई नीति की संस्तुति की गयी है । लगभग दो पंचवर्षीय योजनावधि – विचारधारा निर्माण में गुजर रही । उसके नियमन , क्रियान्वयन एवं प्रतिफलन पर विचारें तो स्वातंत्रयोत्तर सन 1952 से 2020 तक की अवधि में करीब 12 समितियाँ या आयोगों के रिकोमेंडेशन पर जो अनुभव या उपलब्धि देश को मिली उससे ही अनुमान लगाया जा सकता है । हाल के कोरोना काल में हम क्या पा रहे कि इस संक्रामक मेहमान के स्वागत के लिए हमारे पास कुछ भी कारगर तैयारी या विधान सम्भव नही हो पा रहा तो क्या हम सभी क्षेत्रों में अपने कदम पीछे ही रखेंगे ।
हमारे वृद्ध अभिभावक अवकाश ग्रहण कर बैठे । सेवारत हमारे पालक के सामने हम इस स्वरुप में कि – कर्त्तव्य विमूढ़ पड़े है । युवा पीढ़ी के पास अनिर्जित प्रश्न पड़ा हुआ भविष्य की ओर झाँक रहा । नयी पीढ़ी के छात्रोंकी पढ़ाई बन्द और व्यवस्था पुरानी , बड़ी हैरानी पड़ रही सोचने में ।
आवश्यकता है नवीन शोधात्मक विमर्श की । देश के स्नातकोत्तर शैक्षिक समूह , नियोजित , अनियोजित , सेवा निवृत , शिक्षक , अभिभावक , व्याख्याता , पदाधिकारीगण द्वारा जनतांत्रिक विमर्श से नवाचारी पहल को सकारात्मक स्वरुप में खड़ा कर ही , शिक्षा नीति के प्रति अपना सुझाव सरकार को सौपे तो सचमुच जनोपयोगी नीति का प्रतिफलन पारदर्शी एवं गुणवत्ता पूर्ण परीके की उपलब्धि देने वाली हो सकती है । मेरे विचार से उस बिन्दु पर आम नागरिकों के विचार स्वागत के योग्य हो सकते है ।
समस्या है कि सर्टिफिकेट हमें जीविका नहीं दे पा रही । न निर्णय की क्षमता उत्पन्न कर रही , न कौशल न शोर्य , तो शिक्षा पूर्णतः अर्थ विहीन स्वरुप में जड़ता को प्राप्त करती जा रही , उसमें अपेक्षित बदलाव के साथ मूल्य परक शिक्षण का सम्पादन सुलभ हो सके । इस बिन्दु पर ध्यान देने की आवश्यकता है ।
यह विचार दिनांक 30 जून 2013 को प्रथम वैशाली जिला स्तरीय स्नातकोत्तर शैक्षिक समूह के समाहरण में लिए गये निर्णय का सार है ।
महामहिम राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को समर्पित पुस्तक
” जनशिक्षण में अभिव्यक्ति की यथार्थता “
लेखक डा ० जी ० भक्त से साभार
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