” पुरुषार्थ के पन्ने ” जिसे आँधी भी झकझोर नही पाती ।
डा० जी० भक्त
जिन्होंने अल्पसंख्यकों एवं हाशिये पर जीवन जीने वालों के प्रति अपनी संवेदना जतायी वे महान अवश्य थे । किन्तु क्या ऐसों के द्वारा जो साधुवाद का उद्गार मिला उससे उपर उठकर क्या उन्होंने अपने आपमे आत्मबल जुटाया , जिससे देश को संतोष अनुभव हो ?
हाल में एक याचिका उच्चतम न्यायालय के पास आयी जो भिखमंगों को सड़क के किनारे से हटाये जाने के संबंध में थी । मानवीय न्यायाधीश ने अपनी अप्रतिम सराहनीय सोच अपनाकर इसका निस्तार समझाया जिससे उसका हाल सोचा जाय तो निरा असम्भव लगता है । सोच को समाधान चाहिए और समाधान को साथ । साथ को संवेदना और संवेदना को सद्धदयता ।
यह तो सच लगता है कि सृष्टि को ही सृष्टि अपना भोजन मानती है । यह शास्वत सत्य है । हर कुछ करने वाला अपना पारिश्रमिक , पुरस्कार या श्रेय चाहता है वहाँ निरस्पृह , निःस्वार्थ जीवन उत्सर्गा कर पाना एक नैसर्गिक कल्पना या प्रयास हो सकता है । पुराणों की कथा में जीवन दान के अनेको आख्यान मिलते है , लेकिन हम तो वाचन के वीर है , न धीर है , न गंभीर न स्थिर मति , मानिये तो अपने आप पर भी विश्वास नहीं कि हम कहाँ और कितने में हैं ।
आज लाचारी और बेरोजगारी की व्यथा कथा अधिंकाश युवाओं , नागरिकों , दीन , असहायों के मुख से सुनी जाती है , किन्तु कभी अपने ज्ञान , अपनी शक्ति , अपनी वैचारिक क्षमता के प्रयोग पर विचार किया ? जो किया वह तो सफल किसी – न – किसी रुप में हुआ तो । कुछ तो कीर्तिमान स्थापित किया , किसी ने अमर – पुरुषों की श्रृंखला में अपनाप नाम भी दर्ज करा पाया । इसे कहते है पुरुषार्थ । अपने धर्म ग्रंथ राम चरित मानस के पात्रों में हनुमान और अंगद को ध्यान में लायें जो श्रीरामचन्द्र जी के काम आये । यह सृष्टि ईश्वर की है । यह रचना अनोखी हैं । इसमें जो चाहिए सब कुछ है । जो सीखना हो , अपने माता – पिता , दादा , दादी संबंधियों , मित्रों सहित पास पड़ोस से भी सीखिए । अपने स्वयं को अपने शरीर को , अपनी आत्मा को , प्राण को भली प्रकार विचारिये उसमें छिपे अपने सर्व शक्तिमान भगवान की पहचान कीजिए । परिवार को ही जगत और उसके स्वरुप मानकर अपने में बल आजमाइए । कभी इस संसार को हीन भावना से नहीं , बल्कि परिपूर्णता में सम्मान दीजिए । यही विश्व के प्रति आपका एकात्म संबंध या ईश्वर भक्ति , मुक्ति का प्रदाता सा लक्षित होगा और आप का जीवन धन्य धन्य हो पायेगा ।