प्रभाग-22 तृतीय सोपान अरण्य काण्ड रामचरितमानस
महाबली रावण कीबहन सूर्पनखा एक बार पंचवटी पहुँची । राम लक्ष्मण दोनों राजकुमारों को देख वह युवती कामाग्नि से व्याकुल होकर रामजी से प्रेम निवेदन की । कागजी ने गरुर जी से कहा “ युवती सूर्पनखा की जैसी स्थिति थी , भ्राता , पिता , पुत्र ही क्यों न हो , स्त्री सुन्दर पुरुष को देख अपने को विवश पाती है जिस प्रकार सूर्य कान्त मणि सूर्य के प्रकाश की ज्वाला से पिछल जाती है । लेकिन यह विषय मात्र स्त्रियों तक ही सीमित नहीं , तुलसी दास जी ने ही कलि युग वर्णन में माना है कि –
कलिकाल बेहाल किये मनुजा ।
नही मानत कोई अनुजा तनुजा ।।
आज के परिवेष में तो ऐसी घटनाएँ ढर संख्या में घट रही है । सूर्पनखा अपनी माया से सुन्दर रुप सजाकर रामजी के पास गयी और मुस्कुराकर कहा- न तो तुम्हारे समान कोई पुरुष है और न मेरे समान स्त्री । विधाता ने बड़े संयोग से यह जोड़ी लगाई है । मेरे योग्य पूरे विश्व में कोई पुरुष नहीं खोजने से मिलता । इसी कारण आज तक मैं अविवाहित रही । अब तुम्हें देखकर मेरा मन कुछ ठहर गया है । प्रभु श्री रामचन्द्र ने सीता की ओर इशारा कर उसे समझाया कि उनकी शादी हो चुकी है । लक्ष्मण जी कुँवारें है । तब वह लक्ष्मण जी के पास गयी । उन्होंने शत्रु की बहन समझकर फिर रामचन्द्र जी की ओर देखकर कहा- हे सुन्दरी ! सुनो , मैं तो उनका दास हूँ । पराधीन हूँ , इसलिए मुझसे तुम्हे सुख नही होगा प्रभु इसके लिए समर्थ हैं । वे अवधपति ह । वे कुछ भी करे , उनके लिए शोभनीय है ।
सेवक अगर सुख चाहे और भिखारी सम्मान चाहे , व्यसनी धन चाहे और व्यभिचारी अपनी शुभ गति , लोभी पुरुष यश और घमंडी जन काम अर्थ , धर्म और मोक्ष की चाह करे , ऐसे लोग आकाश को दूहारक दूध लेने की तरह असम्भव को सम्भव करना चाहते हैं । फिर वह लौटकर रामजी के पास गयी तो पुनः प्रभु ने लक्ष्मण के पास ही लौटा कर भेजा । उन्होंने कहा कि जो निर्लज्ज होगा वही तुझे सम्वरण करेगा । ऐसा सुनकर सूर्पनखा अपना भयंकर रुप बनाकर क्रोधित होकर रामजी की ओर बढ़ी । उन्होंने लक्ष्मण को इशारा किया । सीता उस समय भयभीत हो गयी । लक्ष्मण जी ने बड़ी शीघ्रता से उसके नाक कान काट डाले । ऐसा लगता है कि लक्ष्मण जी ने ऐसा कार्य कर रावण को सूर्पनखा के हाथ चुनौती भेजी हो ।
अब नाक – कान से हीन वह युवती विकराल लगने लगी । वह अपने भाई खर दूषण के पास जाकर उसके बल और पुरुषार्थ को धिक्कारी , विलाप करने लगी । सारी बात समझाकर कही , तब वह राक्षस सेना तैयार किया । झुण्ड के झुण्ड राक्षस समूहह दोड़े । अनेको प्रकार के वाहन और युद्धक सामग्री धारण किये असंख्य सेना के आगे नाक कान से हीन सूर्पनखा आगे – आगे कुरुप वेष में चली जसे उसका जुलुस निकला हो । चारों ओर से अशुभ लक्षण दिखाई पड़ने लगे । किन्तु मृत्यु के वश में आकर उन राक्षसों की समझ में कुछ आता नहीं । उनके घोर गर्जन से लगता था कि आसमान उड़ जायेगा । उसे देख – देखकर सेना के वीर खुश हो रहे थे । कोई कहता था कि दानों भाईयों को पकड़कर मार डालों । सीता को छुड़ाकर ले चलो । पूरा आकाश धूल से भर गया । रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण को पास बुलाकर कहा कि सीता को पहाड़ की कन्दरा में ले जाकर छिप जा । भयंकर राक्षसों की सेना आ रही है । लक्ष्मण जी सजग हो गये । रामचन्द्र जी ने हाथ में धनुष चढ़ा लिया और चल पड़े ।
सौन्दर्य और मधुरता के भंडार प्रभु रामजी को देखकर राक्षस सेना थकी – सी लगने लगी । खर – दूषण अपने मंत्री को बुलाकर कहा – यह राज कुमार कोई अद्भुत मानव है । वह वाण उनपर नहीं छोड़ सका । ऐसी सुन्दरता हमने कही अबतक नहीं देखी । यद्यपि इसने मेरी बहन को कुरुप किया किन्तु ये मार डालने योग्य नहीं । जाकर उससे कहो कि अपनी छिपायी हुयी पत्नी मुझे दे दो ओर जीवित दोनों भाई घर चले जाओ । रामचन्द्र जी उसकी खबर सुनकर मुस्कुरात हुए बोले :-
हम छत्री मृगा बन करही । तुम्ह से खल मृग खोजत फिरही ।।
रिपु वलवंत देखि नही डरही । एक बार कालहु सन लरही ।।
यद्यपि मनुज दनुज कुल धालक । मुनि पालक खल सालक बालक ।।
जो न होई बल धर फिरि जाहूँ । समर विमुख मै होउ न काहूँ ।।
रन चढ़ि कोिं कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई ।।
दूतन्ह जाई तुरत सब कहेउ । सुनि खर दूषण उरअति दहेउ ।।
छन्द : – उरदहेउ कहेउ कि घरहु घाए विकट भट रजनी चरा ।
सर चाप तोमर शक्ति सूल कृपान परिध परसुधरा ।।
प्रभु कीन्ह धनुष टकोर प्रथम कठोर छोट भयावहा ।।
भये बधिर व्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ।।
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति धनी ।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत विलोकि एक अवध धनी ।।
सुर मुनि सभय प्रभु देखि माया नाथ अति कौतुक करयो ।
देखहि परसपर राम करि संग्राम रिपु दल लड़ि मरयो ।।
दो ० राम राम कहि तन तजेहि । पावहि पद निर्वन ।।
करि उपाय रिपु मारेउ । छन महु कृपा निधान ।।
हरषित वरसहि सुमन सुर । बाजहि गगन निशान ।।
अस्तुति करि – करि सब चले । सोभित विविध विमान ।।
रधुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सबके भय बीते ।।
तब लछिमन सीतहि लै आये । प्रभु पद परत हरषिउर लाये ।।
सीता चितब श्याम दुति गाता । परम प्रेम लोचन न अघाता ।।
पंचवटी बसि श्री रघुनायक । करत चरित सुरमुनि सुख दायक ।।
खर – दूषण का विध्वंस देखकर सूर्पनखा ने जाकर रावण को भड़काया । तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी । शराब पीकर दिन रात सोये रहना और सिर पर शत्रु सवार है उसका ध्यान न रखना , नीति के बिना राज्य , धर्म के बिना धन प्राप्त करना , भगवान को अर्पित किये बिना उत्तम कर्म करने से , विवेक उत्पन्न किये बिना विद्या पढ़ने से परिश्रम ही हाथ लगता है । अर्थात सकारात्मक कुछ भी प्राप्त नही होता । उसका परिणाम भला नहीं होता । विषयों के संग से सन्यासी , बुरी सलाह से राजा , मदिरा पान से लज्जा , मान से ज्ञान , नम्रता क बिना प्रेम और मद से गुणवान शीघ्र नष्ट हो जाते हैं ।
शत्रु , रोग , अग्नि , पाप , स्वामी और सर्प को छोटा करके नहीं समझना चाहिए । ऐसा कहकर सूर्पनखा अनेक प्रकार से विलाप कर रोने लगी । सभा के बीच व्याकुल होकर पड़ी हुयी बहुत प्रकार से रो – रो कर कह रही है कि अरे दशशीष तेरे जीते जी मेरी ऐसी दशा होनी चाहिए ?
सूर्पनखा की व्याकुलता भरी वाणी सुनकर समासद उठकर बाँह पकड़कर बहुत समझाए तब रावण ने कहाँ बोल तुम्हारा नाक कान किसने काटा ?
अवधनृपति दशरथ के जाए । पुरुष सिंह वन खेलन आए ।।
समझ परी मोहि उन्ह के करनी । रहित निशाचार करिहहि धरनी ।।
निन्ह कर भुजवल पाई दशानन । अभय भये विचरत मुनि कानन ।।
देखत बालक काल समाना । परम धीर धन्वी गुण नाना ।।
रुप राशि विधि नारी सॅवारी । रति सत कोटि तासु वलिहारी ।।
तासु अनुज काटे श्रुति नासा । सुनि तव भगिनी करे उपहासा ।।
सरदूषन सनि लगे पुकारा । छन महु सकल कटक उहि मारा ।।
खर दूषण त्रिसिराकर घाता । सुनि दशशीष जरे सव गाता ।।
सूपनखहि समुभाई करि । बल बोलसि सबु भाँति ।।
गयउ भवन अति सोच बस । निंद परई नहि राति ।।
सूर नर असर नाग खग माही । मोरे अनुचर कह कोई नाही ।।
खर दूषन मोहि सम बलवंता । तिनहि को मारई बिनु भगवन्ता ।।
सुररंजन भंजन महिमारा । जो भगवन्त लीन्ह अवतारा ।।
तौ मै जाई वैरु हठि करउँ । प्रभु सर प्राण तजे भवतरउँ ।।
होइहि भजन न तामस देहा । मनक्रम वचन मंत्र दृढ़ एहा ।।
जौ नर रुप भूप कोउ सुत । हरि हउँ नारि जीतिरुन दोउ ।।
दो ० लछिमन गये बनहि जब लेन मूल फल कंद ।
जनक सुता सन बोले विहॅसि कृपा सुख वृन्द ।।
सुनहु प्रिया व्रत रुचिर सुशीला । मै कछु करवि ललित नर लीला ।।
तुम्ह पावक मह करहू निवासा । जौ लगि करौ निशाचर नासा ।।
जबहि राम सब कथा बखानी । प्रम पद धरि सिय अनल समानी ।।
निज प्रतिबिन्व राखि तह सीता । तसई सील रुप सुविनीता ।।
लछिमन हू यह मरमू न जाना । जो कछु चरित रचा भगवाना ।।
दसमुख गयउ जहाँ मरीचा । नाई माथ स्वारथ रत नीचा ।।
नवनि नीच कै अति दुखदायी । जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई ।।
भयदायक खल के प्रिय वानी । जिमि अकाल के कुसुम भवानी ।।
दो ० करि पूजा मारीच तब सादर पूछहि बात ।
कवन हेत मन व्यग्र अति अकसर आयउ तात ।।
दशमुख कथा सकल तेहि आगे । कही सहित अभिमान अभागे ।।
होइ कपट मृग तुम्ह छलकारी । जेहि विधि हरि आनौ नृपनारी ।।
तेहि पुनि कहा सुनहु दशशीसा । तेनर रुप चराचर ईसा ।।
तासो तात बयरु नही कीजै , भारे मरिअ जिआए जी जै ।।
मुनि मख राखन गयउ कुमारा । बिनु फर सर रघुपति मोहिमारा ।।
सत जोजन आयउ छन माही । तिन्ह सन वयरु किएँ भल नाही ।।
भई मन कीट मूंग की नाई । जहँ तहँ मै देखउ दोउ भाई ।।
जौ नर तात तदपि अति सूरा तिन्हहि विरोधिन आइहि पूरा ।।
दो ० मोहि तारका सुवाहु हति खंडेउ हर कोदंड ।
खर दूषण त्रिशिरा वधेउ मनुज कि अस वरिवंड ।।
जाहु भवन कुल कुशल विचारी । सुनत भस दिन्हसि बहु गारी ।।
गुरु जिमि बोधकरसि मम बोधा । कहु जग मोहि समान को जोधा ।।
तब मारीच हृदय अनुमाना । नवहि विरोधे नही कल्याना ।।
सस्त्री मर्मी प्रभु ससधनी । वैध बन्दी कवि मानस गुनी ।।
उभय भाँति देखा निज मरना । तब ताकिसी रघुनायक सरना ।।
उतरु देत मोहि वधव अभागे । कस न मरौ रघुपति सर लागे ।।
असगिय जानि दशमन संगा । चला नाई पद प्रेम अमंगा ।।
मन अति हरष जनाव तेहि । आज देखिहहु परम सनेही ।।
छन्द – मम मरम प्रीतम दखि लोचन सुफल करि सुख पाइ है ।।
श्री सहित अनुज समेत कृपा निकेत पद मन लाइ है ।।
निर्वान दायक क्रोध जाकर भगति अवसहि बसकरी ।।
निज पानि सर संधावि सो मोहि वधिहि सुख सागर हरि ।।
दो – मम पाछे घर धावत घरे सरासन वान ।
फिरि फिर प्रमुहि विलोकिहहु धन्य मोसम आन ।।
( इसके साथ सीता हरण की घटना समाविष्ट है जो आगे परिशिष्टांक में अंकित कर दिया गया है । )