Tue. Apr 30th, 2024

विविध विचारों में बिखरा विश्व

 यह अशोभनीय है । हम भारतीय विश्व शांति के समर्थक और पंचशील नीति के पालक रहे | सबका सार था कल्याण के पथ पर एक साथ बढ़ना | मत सम्मत और मतांतर का भाव पृथक – पृथक दो धूवों का निर्माण करते हैं । जनतंत्र में सत्ता संचालन के लिए निर्वाचन का विधान है । वहाँ राजनैतिक दलों द्वारा संग्राम छिड़ जाता है – वादों का , कादाओं का | निर्विरोध शायद कभी | लेकिन दल , दलवाद , और दलों का वादा विधानतः ; किंतु नीति में एक उतरना ज़रूरी होगा जैसे मन , कर्म और वचन से एक होकर कोई काम होता है ।
 जब हमारा लक्ष्य राज्य चलन है , शासन करना है । कल्याणकारी राज्य की कल्पना साकार करनी है तो वादों के विवाद में न फंसकर राजधर्म का भक्तिपूर्वक ( नीतिसम्मत ) पालन होने चाहिए | जहाँ शुचिता होती है , वहीं पर सफलता को सम्मान मिलता है । उसे ही गौरव प्राप्त होता है । राजनीति को धर्म से अलग रखने पर शुचिता पर आँच आना सहज हो जाता है ।
 जीवन को मानवता के लिए समर्पित करना अथवा महत्वाकांक्षा की पूर्ति में मानवता को साथ लेकर चलना ही जन आकांक्षाओं के प्रति सजगता और प्रतिबद्धता है । कहा जाता है की प्रकृति में जीवन का डोहीं धर्म भासता है – शिषणोदर भारण | किंतु चेतन प्राणी ( खासकर मानव ) में कार्मिक प्रेरणा के निम्न विषय बनते हैं ।

  •   पंचेंद्रियों का भूख या इंद्रियों के विषय ।
  •   जीवन की आवश्यक आवश्यकताएँ |
  •   आराम , सुख एवम् विलासिता के साधन जुटाना ( वैभव अर्जित करना ) ।
  •   आदर्शमय जीवन जीने की आकांक्षा ।
  •   ज्ञान , योग के विविध आयामों से जुड़ने की प्रत्याशा |
  •   उपरोक्त मुमुक्षा के प्रति मुमुक्षा का ख्याल |

 किंतु उपरोक्त तीनों भाव सर्वव्यापी है । इन्हीं के पीछे जीवन कालकवलित होता है । निम्न तीन भाव जीवन की उच्चतर भाव शृंखलाएँ है ; जिनपर आरोहण पाना एक विशिष्ट मानवीय अवस्था है ।
अब येन केन प्रकारेण जीवन यापन तमोगुण है । क्रमश : प्रथम , द्वितीय एवम् तृतीय तमोगुण से उत्थान मान सकते हैं | चतुर्थ भाव रसोगुण है | अंतिम दो भाव सतोगुण अभिप्सा है । हैतू की ( अपनी प्रत्याशा के केंद्र अगर हमारे मनोरथ की सिदधि हो तो ) वह जीवन लौकिक का उत्थान माना जाता है | अगर अहैतु की ( कामना रहित ) हो तो मोक्षदायिनी है ।
 हम इस जगत में उपरोक्त वादी की संगया पपाते चले जा रहे हैं । ऐसा क्यों न माने की जीवन के समस्त आदर्शों के मध्य हमने उपभोक्तावाद की माला अपने गले में बाँध ली है । इसके हमने पत्रकृति का दोहन किया । आदर्शों की तिलांजलि दे डाली , अपसंस्कृतियाँ अपनाई , नीतियों की परवाह न की , मानवता को ठुकराया , ज्ञान की गरिमा खो दी | आस्था पर पानी फेर डाले सामाजिक सरोकार क्या नहीं , संबंधों में दुराव आया । न्याय नीति का कोई मूल्य न रहा । आज क्या चुना वर्ग क्या अभिभावक शिक्षा का मूल्य मात्र उत्तीर्ण होना भर , उसकी उपयोगिता क्या होगी , इससे कोई मतलब न रहा । हम किसी भी नौकरी के लिए लाइन में खड़े होने का एक पास ( अनुमति पत्र ) मानिए | वेतन चाहिए काम किसी भी कोटि का  हो|
 शिक्षा का वाइरस युवाओं के बेरोज़गारी का संक्रमण शुरू कर दिया जिसकी दवा नियोजन है । हम नियोजितों से की आशा करें ? शिक्षा हमें विचार वैभव प्रदान करती है । शिक्षा हमें आत्म निर्णय लेने में सहायक बनती है । शिक्षा हमें कर्तव्य बोध दिलाती है । शिक्षा व्यावहारिक जीवन की कुंजी है । लेकिन आज ये सारे क्षेत्र शिक्षा के रहते अधूरे लगते हैं । शिक्षा अब शायद हमसे विदा लेने वाली है । ” पुस्तकस्थ यथा विद्या परहस्तगत धनं । ” शिक्षा पोटेंट हो चली है । अगर हमें एक आवेदन पत्र लिखना हो तो मोबाइल सर्च करनी पड़ती है । ” व्हाट इस एप ? ” इट इस ऐन स्टेज डीवीसे | बटन दबाइए उगल पड़ेगा | – – – – – – – – लेकिन वह भी कहाँ ? कोरोना की दवा नहीं बता सकता | वह आयामी औजार होते हुए यह भी विरोधाभास पैदा कर रहा है । क्यों ? इसलिए की हम अपने आप को भला बैठे , सिर्फ विज्ञान पर ही अपना मन स्थिर रखें ।
हमारे लक्ष्य , हमारी आकांक्षा , हमारा विश्वास , हमारा ज्ञान , ऐप पर लोड है | प्पाईएगा , तब ; जब ऑनलाइन आईएगा | आज आपको लॉक डाउन रहना है । डिस्टेन्स बनाकर आइसोलेटेड रहना है | क्वॉरंटीन होना । हम अपने मन की चाल चल रहे हैं , तो डंडा खाना ही है । अगर हम बेरोज़गार नहीं रहते , अधिक कमाई की आकांक्षा नहीं सताती तो प्रवासी बनकर कमाने प्रदेश या विदेश की ओर पलायन न होता | कोरोना से उसे आँखें चार न होती | प्रवासियों का पलायन स्वदेश कीओर न होता तो देश को परेशानी न आती । गजब हो गया । हमारी सोच में भल हई । हमारा मेडिकल सिस्टम हमें साथ न दिया । जाँच के परिणाम पुख्ता काम न आए | – – – – – – –  कोरोना का रोना रो रहे हैं ।
 मैं तो कहूँगा , सरकार जल्द अपना विचार बदले | अपने निश्चयों पर अटल न रहे । अपनी पुरातन संस्कृति की ओर लौटे , जहाँ परदेशी भारत आकर समृद्धि पाते थे ।
 प्रवासी को पुनर्वास प्रदान करें ।
 भटकाव से भला अपने आप में झाँकें ।
 डा . जी भक्त |

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