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रोग और उपचार

 डा . जी . भक्त 

कोरोना ( कॉविड – 19 ) का दहसत आज यह सीख जन सामान्य के बीच दे गया की हर व्यक्ति को सामान्य जानकारी के रूप में रोग के लक्षण , कारण , काल और पूर्व में की गयी चिकित्सा के फलाफल के साथ उसका उपचार भी जानना आवश्यक होगा |
 यहाँ पर यह जानना आवश्यक है की कारण रूप अवस्था शरीर में प्राकृतिक रूप से पाया जाता है | जिसके फलस्वरूप व्यक्ति विशेष बाहरी कारणों से प्रभावित होता या मुक्त रहता है | सभी व्यक्ति एक प्रकार के नहीं होते जैसे – किसी को सर्द वातावरण , या खानपान प्रभावित करता है तो किसी को गर्म |
बाहरी कारण में वातावरण , भोजन , रहन – सहन , जलवायु , आकाष्मिक घटनाएँ , आदि होते है ।
 कुछ कारण निजी होते हैं जैसे खानदान में पाए जाने वाले आनुवांशिक रोग | अपने शरीर में अबतक जीतने रोग हो चुके | चोट , कटना , गिरना , हड्डी टूटना , आग में जलना , बिजली का झटका , पानी में डूबना , कृमि का काटना , जीवों का दंश , विष पान , कुचीकित्सा या दवा का दुष्प्रभाव आदि निजी कारणों में आते हैं | जो निजी स्वास्थ्य में बाधा डालते रहते हैं अथवा उनका प्रभाव जाता नहीं , कष्ट देता ही रहता है । अन्यथा उसके कारण समय – समय पर उसके लक्षण प्रकट होते रहते हैं ।
 अगर रोग आकाष्मिक रूप से आक्रमण करे तो उसके लक्षण ही प्रधान होते हैं इलाज के लिए बीमारी का नाम महत्व नहीं रखता | क्योंकि एक ही रोग के अनेक रोगी , रोग के मूल लक्षणों के साथ व्यक्तिगत अपने लक्षण भी प्रकट करते हैं जिसका कारण उनकी सक्रियता होती है या उनके शरीर में छिपा रोग बीज ( miasm ) – सोरा सिकलिश या सातेतिबद आयुर्वेद में – वात , कफ या पित्त दोष | इन्हें मिटाए बिना न रोग का निरोग होना संभव है न उसका पुनराक्रमण रोका जा सकता है | या पूर्णत : आरोग्य किया जा सकता |
एलोपैथिक चिकित्सा विपरीत पद्धति ( antagonistic method of treatment ) है | वे कभी जीवाणु को कारण मानते हैं । कभी कीटाणु को , कभी विषाणु ( virus ) को को , कभी ब्लड फैक्टर को , कभी शरीर के अंगों की स्थूल विकृति को , कभी मिनरल की कमी तो कभी विटामिन की । ये सभी स्थूल कारण हैं | कारणों का कारण मात्र हमारे शरीर की अपनी जीवनी शक्ति का कमजोर पड़ना मान्य है | इसे ही हम रोग निरोधी क्षमता ( immunity ) कहते हैं । बहुकारणवाद चिकित्सा में सर्वमान्य नहीं है , मूल कारण की परख ही महत्वपूर्ण है जिसकी नींव प्रकृतिप्रस्त है । कुपोषण से उत्पन्न होता है | बार बार रुग्णता झेलने से आता है या आनुवांशिक कारण होते हैं|
 इन दृष्टिकोणों से देखा जाए तो रोगोपचार कठिन विषय बनता है । फिर भी दुनिया में प्रचलित चिकित्सा पद्धतियाँ अपनी सेवाओं की अवधि में आरोग्य किए रोगियों से प्राप्त अनुभवों को आधार मानकर सामने के रोगियों को देख – समझ कर निदान निकालते एवम् तन्नत विषयों रोगों का उपचार प्रारंभ करते हैं ।
 विडंबना है की जो रोगी अपने बापान से अबतक ( माना की 45 वर्ष की अवस्था तक ) 6 बार बीमार पड़ा | उसकी एलोपैथिक या किसी भी पद्धति से इलाज किया गया आराम पाया । सभी आक्रमण अपने पृथक रूपों में पाए गये | हम जन्म लिए तो धरती पर आहार ग्रहण किए , बीमार पड़े तो दवा खाई , बार बार बीमार पड़ते रहे | आरोग्य हए कहाँ ? अब तो बुढ़ापा आई । ऐसे भी शरीर कमजोर पड़ेगा | अब कब इम्यूनिटी आएगी ?
 जिसे हम रोग बीज ( होमेयोपैथी में – miasm ) कहते है जो शरीर में प्राकृतिक रूप से या जीवन में प्राप्त ( inherited or aquired ) हए हैं । जीवकी शक्ति पर भारी पड़ते हैं । इस कारण से चिकित्साक्रम में होमेयोपैथिक चिकित्सक एंटी मियस्मेटिक दवा का प्रयोग कर रोगी को आरोग्य लाभ दिलाते हैं । अगर होमेयोपैथ गण शरीर को दोषमुक्ति हेतु दवा देते हैं तो जीवनी शक्ति स्वतन्त्र हो पाएगी । और शरीर पूर्णतः ( totally cured ) हो जाएगा | ऐसा हनीमैन साहब का मानना था |
 आयुर्वेदिक रसायन औषधि का सेवन कर और यौगिक क्रिया का साधन कर ऋषिगण रोग और बुढ़ापा पर विजय पाकर लंबी आयु जी पाए | आज भारत और कुछ अन्य देश अपने – अपने विधान का प्रयोग कर अच्छी स्थिति में कोरोना से निबट पा रहे हैं । बड़े – बड़े शक्तिशाली – विकसित देश की स्थिति जो कमजोर पड़ी है उसके संबंध में भी ऐसा सोचना पड़ेगा । होमेयोपैथी पर भी सोचें और अपनाएँ ।

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