प्रभाग-17 द्वितीय सोपान अयोध्या काण्ड रामचरितमानस
राम वन गमन के पूर्व का प्रसंग बड़ा कारुणिक और अविवेक पूर्ण है । कष्टों का समुद्र है जिसमें दशरथ डूबे पड़े हैं । परिवार सहित पूरी अयोध्या किनारे पर विवश खड़ी है । भरत ममहर में है । लीला बिहारी राम देवताओं के काम संवारने या पिता का वचन मानकर अयोध्या की संस्कृति जो दाव पर आपड़ी थी उसकी रक्षा में चौदह वर्षों का जीवन थामे अपनी पत्नी और अपने छोटे भाई के साथ बन की ओर बढ़े जा रहे है । अयाध्या वासी उनके पीछे इस आशा में जा रहे है कि कुछ दूरी से उन्हें लौटा लायेंगे । साथ में मंत्री , स्वयं तीनों अवध विभूति को रथ पर लिए दुखी और मौन तेजी से बढ़ते जा रहे हैं ।
लोग विकल मुरछित नरनाहू । काह करिअ कछु सझ न काह ।।
रामु तुरत मुनि वेशु बनाई । चले जनक जननिहि सिख नाई ।।
सजि वन साजु समाज सबु वनिता बन्धु समेत । वंदि विप्र गुरु चरण प्रभु चले करि सवहि अचेत ।। जब रामजी घर से निकले तब जाकर वशिष्ठ जी से मिले । देखा , लोग सब विरहाग्नि में जल रहे हैं । प्रिय वचन से लोगों को समझायें । फिर ब्राह्मणों को बुलाकर एक वर्ष के लिए खाने भर का अन्न देकर विदा किये । याचकों को भी दान दिये तथा मित्रों को प्रेम से संतुष्ट किये । सभी दास दासियों को बुलाकर , गुरुजी पर सौपकर उन्हें माता – पिता की तरह ध्यान रखने के लिए विनय किये । सबा से राम ने बारी – बारी से विनय पूर्वक कहा कि राजा को किसी प्रकार की पीड़ा न हो इसका ध्यान रखियेगा । पास पड़ोस के लोगों को भी कहा कि आप सब समझदार है । जो हमारे विरह में दुखी हो उन्हें ऐसा उपाय कर संतुष्ट करते रहेंगे । इस प्रकार सबों को समझा – बुझाकर गणश जी , पार्वती जी तथा शंकर जी को शिर नवा कर बन को चले ।
जब दशरथ जी की मूर्छा टूटी तब वे सुमन्तजी से बोले – राम तो वन चले गये परन्तु मेरे प्राण नहीं जाते । ये किस सुख के लिए शरीर में पड़े हैं । अब इससे बढ़कर कौन कष्ट होगा जिसे पाकर प्राण छूटेंगे ? दोनों राजकुमार और जनक पुत्री सुकोमल है उन्हें रथ पर चढ़ाकर दो चार दिनों में वन भ्रमण करवाकर लौटा लाइए । राम तो दृढ़ व्रती हैं अगर न लौटेंगे तो विनय कर सीता को लौट लायेगें । अगर जंगल में सीता को डर लगे तो अवश्य मेरा संदेश कहिऐगा कि तुम्हारे सास – ससुर कहे थे कि लौट आये । जंगल का जीवन कष्ट कारक होता है । कभी पिता के घर तो कभी ससुराल में जहाँ रुचि होगी वहीं ठहरेगी । ऐसा ही उपाय कीजिए कि वह लौट आये कि मेरे जीवन और प्राण को आधार मिलें । ऐसा न हुआ तो मेरा मरना निश्चित है । जब विधाता ही विपरीत ह तो कोई वश नहीं चलता है ! राम लक्ष्मण और सीता को लाकर दिखाओ । ऐसा कहते हुए फिर धरती पर गिर पड़े ।
राजा की आज्ञा पाकर सुमन्त जी ने शीघ्रता से रथ तैयार की और जहाँ जाकर राम , लक्ष्मण और सीता ठहरे थे , पहुँचकर राजा का संदेश सुनाये । बारी – बारी से सब स्थ पर सवार हुए । अयोध्या की धरती को नमन करते हुए वन को चले । राम के वनगमन से अयोध्या अनाथ हो गयी । लोग व्याकुल होकर साथ चल दिये । भयावना राम ने उन्हें समझाया । कुछ लोग लौटे । फिर लौटकर चले आये । अब वह सब कुछ भगवान लगने लगा । सभी भागे फिरते रहे ।
विधि कैकेई किरातिनी कीन्ही । जेहि दव दुसह दसहूँ दिशि कीन्ही ।
सहि न सकहि रघुवर विरहागी । चले लोग सब व्याकुल भागी ।।
सवहि विचारु किन्ही भ्रम माही । राम लखन सिय बिनु सुख नाही ।।
जहाँ राम तह सबुहू समाजू । बिनु रघुवीर अवध नही काजू ।।
चले साथ अस मंत्रु दुढ़ाई । सुर दुलभ सुख सदन विहाई ।।
राम चरण पंकज प्रिय जिन्हहि । विषय भोग बस करइ कितिन्हहि ।।
इस प्रकार रामचन्द्र जी तीनों बनवासी और सुमन्त सहित अयोध्यावासी तमसा नदो के तट पर पहुँचे । वहाँ पर अयोध्या की प्रजा को प्रेम वश साथ में देखकर दयालु रामचन्द्र जी को भी कष्ट हुआ । व दयालु है । परायी पीड़ा को जान जल्द दुखी हो जाते हैं । वे लोगों को प्रेम पूर्वक बहुत भाँति धर्म का उपदेश देते रह , किन्तु लौटने की बात होने पर भी लौट नही पाते । शील स्नेह छुड़ाये नहीं छुटते । इसे समझते हुए रामजी असमंजस के पड़ गये । लोग शोक और थकान के कारण सो गये और कुछ तो देवताओं की माया से भी उनकी बुद्धि काम न कर सकी । जब दो पहर रात बीत गयी तो रामचन्द्र जी ने सुमंत जी से आग्रह किया कि वे ऐसे रथ को हांके कि उसके चक्के का चिन्ह धरती पर पहचाना नहीं जा सके । उनके चले जाने का मार्ग समझ में नही आय । सवेरा होने पर जब उन सबों की नींद टूटी तो एका एक राम के रथ सहित गायब होने का हल्ला शुरु हुआ । इधर – उधर दौड़ने पर भी रथ का पता नहीं चला । लोगों अनुमान लगाया कि जंगल में उन्हें अधिक कष्ट होगा , इस हेतु छोड़ चले । अब उदास होकर एक विषम वियोग झेलते हुए अयोध्या लौट और चौदह वर्षों के बीतने की आशा को ही आधार मान रखा । बस , सभी नर – नारी उनके दर्शनों के लिए नियम व्रतादि करने लगे । दुख में जीवन काटने लगे ।
इधर सीता , सचिव सहित दोनों भाई श्रृंगवेरपुर पहुंचे । राम ने रथ से उतर कर देव सरि गंगाजी को देख उन्हें प्रणाम किया । नदी की तरंगों को देखते हुए अनेक कथा प्रसंगों के सहारे राम जी ने मंत्री , पत्नी और भाई को गंगाजी की महिमा की बड़ी प्रसंशा की । सबों ने नदी में स्नान किया । इससे उनकी थकान मिटी । जलपान करने से मन प्रसन्न हुआ । जिसके स्मरण मात्र से मनुष्य को जन्म मरण से छुटकारा मिल जाता है उन्हें थकान अनुभव होना तो मात्र एक लौकिक व्यवहार या नर लीला मात्र है ।
हम तो रामचन्द्र जी को प्रकृति में दिख रहे त्रिगुणों से दूर माया से प्रभावित न होने वाले कल्याणकारी रुप में भगवान माना है । वे सूर्य वंश के रघुकुल में जन्म लेकर सच्चिदानन्द संसार रुपी सागर पार कराने में पुल के समान है । उनका गंगा तट पर आकर ठहरने की खबर निषादराज केवट को हुयी । वह अपने जनों को बुला लाया तथा अनेकों भेंट देने के लिए कन्द , मूल , फल लेकर बहंगियों में भरकर चले । वे बड़े खुश दिख रह थे । रामचन्द्र जी के आगे भेंट की सामग्री रखकर प्रणाम किया । सहज प्रेम के विवस होकर पास में बैठकर कुशल पूछी । कवट ने कहा हे नाथ ! आपक पद पंकज से ही सब कुशल है । आज मैं भाग्यवान पुरुषों की गिनती में आ गया यह घर , यह धरती , धन , सब कुछ आपका ही है , मैं तो बस परिवार के साथ आपका छोटा सेवक हूँ । कृपा करके आप मेरे घर चलें । रामजी ने उन सबों से कहा कि पिता की आज्ञा है कि चौदह वर्ष तक वन में मुनि के वेष , व्रत और आहार करते हुए ग्राम वास से दूर रहना है । ऐसा सुनकर केवट राज को बड़ा दुख हुआ । तीनो वनवासियों को देखकर ग्रामीण नर – नारियाँ कहने लगी कि वे माता पिता कैसे है जो इन राज कुमारों को वन में भेज रखा । किसी ने कहा कि राजा ने अच्छा ही किया कि हम सभी उन्हें देख नन लाभ पाये । केवट एक शीशम की छाँह में कुश का सुन्दर और आरामदेह विछावन लगाया । राम संध्या करने चले । अन्य लोगों ने उनके लिए दोने में कन्द , मूल , फल सजा रखे । जल ला दिये । सभी तपस्वी और मंत्री खाकर आराम करने लगे । भाई लक्ष्मण उनके पॉव दवाने लगे । जब लक्ष्मण जी जाने कि बड़े भाई सो गये तो मंत्री को कहकर कुछ दूर जाकर धनुष वाण से सजकर वीर की तरह आसन पर बैठ गये । केवट अच्छे – अच्छे पहरे दारों को कुछ – कुछ दूरियों पर नियुक्त कर स्वयं भी तरकस बांध लक्ष्मण के साथ जा बैठे । वन भूमि में कुश की विछावन पर बिना किसी वस्त्र डाले सोये राजकुमार और सीता को देख कैसा दुख केवट और उनके परिवार को हुआ , इसका मन में विचार कर सभी रो पड़े और वनवास की दुखद कहानी कहाँ तक कही जाय । राम भवन में सभी सुखद भोगों के बीच जो भली प्रकार सुरक्षा के साथ रहा करते थे वे जंगल का जीवन किस प्रकार जीना प्रारंभ किये , उसका पहला अवसर कैसा अनुभव दे रहा होगा ।
जोग वियोग भोग भलमंदा । हित अनहित मध्यम भ्रम फदा ।।
जनम मरण जहँ लगि जग जालू । सम्पति विपति करमु अरु कालू ।।
तात कृपा करि कीजिए सोई । जाते अवध अनाथ न होई ।।
मंत्रिन्ह राम उठाई प्रबोधा । नाथ धरम मतु तुम सबु सोधा ।।
शिवि दधिचि हरिचन्दनरेशा । सहे धरम हित कोटि कलेशा ।।
रति देव बलि भूप सुजाना । धरम धरेउ सहि संकट नाना ।।
धरमु न दोसर सत्य समाना । आगम निगम पुराण बखाना ।।
मैं सोइ धरमु सुलभ करि पावा । तजे तिहुपर अपजस पावा ।।
काहू न कोउ सुख दुख कर दाता । निज कृत करम भागू सव भ्राता ।।
प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अपश की प्राप्ति करोड़ो मृत्यु के समान संताप देने वाली है । हे तात ! मैं आपसे अब अधिक क्या कहूँ । लौटकर उत्तर देने में भी तो पाप का भागी होना पड़ेगा । आप जाकर पिताजी से विनय पूर्वक कहियेगा । आपका भी सब प्रकार से वही कर्तव्य है जिसमें पिताजी हम लोगों के सोच में दुख न पायें । सुमन्त जी और रघुनाथ जी का यह सम्वाद सुनकर निषाद राज कुहुम्वी जन सहित याकुल हो उठे । इस पर लक्ष्मण जी के मुँह से कुछ कड़वी बाते निकल पड़ी । प्रभु श्री रामचन्द्र जी उसे अनुचित जानकर मना किये कि ये बातें वहाँ पर नकहियेगा ।
राजा ने जिस दीनता और प्रेम से विनती की है वह मुझे कहा नहीं जाता ।
मइके ससुरे सकल सुख । जबहिं जहाँ भनु भाव ।।
तब तहँ रहहि सुखेन सिय । जब लगि विपति विहान ।।
कृपा निधान भगवान श्री रामचन्द्र जी ने यह संदेश सुनकर सीता को अनेक प्रकार से समझाया । शिक्षा दी । इस पर सीता जी ने अपनी बात रखी । हे प्राण नाथ ! हे परम स्नेही , हे प्रभु , आप करुणामय और ज्ञानी है । जरा विचारिये तो शरीर को छोड़कर कभी छाया अलग रोकी जा सकती है ? सूर्य का प्रकाश सूर्य को छोड़कर कहाँ जा सकता है । उसी तरह चन्द्रमा भी अपनी चांदनी को छोड़ कही जा नहीं सकती । बड़े पम से विनय पूर्वक सीता जी ने सुमंत जी से कहा आप मेरे ससुर जी और विमाता जी के समान ही मेरे हितकारी है । जो उत्तर मै बदले में दे रही हूँ वह मुझे स्वयं अनुचित लगता है ।
आरति वश सन्मुख भयउ । विलगु न मानव तात ।।
आरज सुत पद कमल विनु वादि जहाँ लगि नात ।।
पितु वैभव विलास में डीठा । नृप मनि मुकुट मिलित पद पीठा ।।
सुख विलास अस पितु गृह मोहे । प्रिय विहीन मन भाव न भोरे ।।
ससुर चक्कवई कोशल राउ । भुवन चारि दश प्रकट प्रमाउ ।।
आगे होइ जेहि सुरपति लेई । अरध सिहासन आसन देई ।
सुसर एतादृश अवध निवासु । प्रिय परिवाररु मातु सम सासू ।।
बिनु रघुपति पद पदुम परागा । मोहि केउ सपनेह सुखद न लागा ।।
अगम पंथ वन भूमि पहारा । करि केहरि सर सरित अपारा ।।
कोल किरात करंग विहंगा । मोहि सब सुखद प्रापपति संगा ।।
अतः आप मेरे सास – ससुर के पॉव पड़कर मेरी ओर से विनती कीजिएगा । वे मेरा कुछ भी सोच न करें । मैं वन में स्वभाव से ही सुखी हूँ
प्राणनाथ प्रिय देवर साथा । धीर धुरीन धरे धनु भाथा ।।
नहि मग श्रभु भ्रमु दुख मन मोरे । मोहि लगि सोच करिय जनि भारे ।।
सीता जी की बात सुनकर समंत्र जी व्याकुल हो उठे । कुछ कहने से असमर्थ थे । रामचन्द्र जी ने बहुत प्रकार से समाधान समझाया , फिर भी उनका मन शान्त न हुआ । सुमंत्र जी ने भी अनेकों प्रयत्न किये , किन्तु प्रभु श्री रामचन्द्र जी ने सबका उचित उत्तर दिया । रामजी की आज्ञा टाल नहीं सकती । कर्म की गति कठिन है । इस पर कोई वश नहीं चलता । सीताजी , लक्ष्मण और श्री रामचन्द्र जी को सिर नवाकर मंत्रिवर श्री सुमंत्र ऐसे चले जैसे कोई व्यापारी अपना मूल धन गँवाकर लौटे ।
जब सुमन्त्र जी ने रथ हाँका , घोड़े रामचन्द्र जी की ओर देख – देखकर हिनहिनाते रहे । यह देखकर निषादगण विषाद वश सिर धुनकर पश्चाताप करने लगे ।
जासु वियोग विकल पशु ऐसे । प्रजा मातु पितु जीअहिहि कैसे ।।
वरवश राम सुमंत्र पठाये । सुरसरि तीर आप तब आये ।।