Fri. Nov 22nd, 2024

प्रभाग-13 बाल काण्ड रामचरितमानस

 उस दिन तरह – तरह के तर्को – विमर्शो सहित सुनिश्चित दिनचर्या में दिन व्यतीत हुआ । रात्रि में चन्द्रमा के उदय होने पर चन्द्रमुखी सीता की उपमा पर खेद करते अतिरंजित होकर राम चन्द्रमा के दोषों और कमियों पर चिन्तित रहे । अधिक रात बीत जाने पर दोनों भाई गुरुजी के पास चले गये । प्रातः काल अरुणोदय वेला में हर प्रकार से शौचादि से निवृत हो पुनः गुरुजी को प्रणाम किया । उसी समय जनक जी के मंत्री न आकर विश्वामित्र जी को नमन किया और कहा कि जनक जी ने मुझे आपको बुला लाने के लिए भेजा है । चलते समय मुनि ने दोनों भाइयों को साथ ले लिया और यज्ञशाला की ओर बढ़े । रंग भूमि में पहुंचने पर यह खबर नगरवासियों में फैल गई बालक , युवा , वृद्ध , स्त्री – पुरुष सभी घर और काम छोड़कर चल पड़े । जब जनक जी ने देखा कि यज्ञ शाला में काफी भीड़ जम गयी है तो स्वयं सेवका को बुलाकर उचित सुआसन पर बैठने की व्यवस्था की । दोनों अवध किशोर विराजमान राज सभा में वैसे दिख रहे थे जैसे असंख्य प्रकाशमान नक्षत्र तारों के बीच दोनों पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित हों । इस धनुष यज्ञ मे जितने राजा निमंत्रित प्रतिस्पर्धी , दर्शक एवं नगरवासी नर – नारी थे सबों की दृष्टि में दोनों राजकुमार विशिष्ट लगते थे , साथ ही अपने लक्ष्य , गुण , भाव और उद्देश्य की दृष्टि से उन रुपों में देख रहे थे । ऐसे तो रामजी की शोभा अवर्णनीय तो थी ही , उनके पहनावे , शारीरिक सौष्ठव , आभूषण , शील और व्यवहार सब कुछ अप्रतिम अनुपमेय रहे । राजा जनक विश्वामित्र जी के पास जाकर पैर पकड़कर विनय किए कि चलकर यज्ञ भूमि को देखा जाय ।

 मुनि सहित दोनों भाई जहाँ – जहाँ जाते , सबों की निगाहें उन्हीं पर टिकी रहती । उन्हें देखकर प्रतिस्पर्धीगण को चिन्ता होती और तहर – तरह के अनुमान लगाते । यज्ञ शाला में एक मंच जो सभी मंचों से विशाल था , जनक जीने दोनों राजकुमारों सहित विश्वामित्र जी को उसी पर आसन दिया । ऐसा देखकर करीब सभी राजा एक तरह से हृदय गवाँ बैठे जैसे सूर्य के उदय लेते तारे गण विलुप्त हो जाते हैं । ऐसे उन्हें विश्वास हुआ कि राम धनुष नहीं भी तोड़ पायेंगे तो अब सीता उन्हीं के गले में जयमाला डाल देगी । अतः महारथियों ने विचारा कि यश , बल , तेज और प्रताप गँवाकर अपने – अपने घर चले । ऐसी वाणी सुनकर कुछ ऐसे भी राजा या भूप थे जो अविवकी और अन्ध अभिमानी थे वे कहने लगे कि धनुष तोड़ने पर भी हम अपन हाथ से सीधे तौर पर जाने नही देंगे और बिना धनुष तोड़े राजकुमारी से व्याह कौन कर सकता है । एक ने तो कहा कि काल ही क्यों न हो , सीता को पाने के लिए हम उससे युद्ध जीत लेंगे । ऐसा सुनकर जो धर्मात्मा , हरि भक्त और बुद्धिमान थे वे हँसने लगे । फिर उन्होंने कहा सभी राजाओं का दर्प दूर कर जो धनुष किसी से न टूटेगा उसे श्री राम चन्द्र जी ही तोड़कर सीता को व्याहेंगे । अब रही युद्ध जीतने की बात तो राजा दशरथ के रण वॉकुरे को युद्ध में जीत कौन सकता है । इस तरह झूठे गाल बजाया क्यों करते हो ? मन के लडू खाने से भूख नहीं मिटती । हमारी परम पवित्र सीख सुनकर सीता जी को जगज्जननी के रुप में स्वीकार कर उन्हें पाने की आशा ही छोड़ दो । रामचन्द्र जी को जगत पिता मानकर उन्हें अपनी आँखों में बिठाकर देखों । ये सुन्दर और सभी गुणों के भंडार दोनों भाई श्री शंकर जी के हृदय में बसने वाले हैं । अमृत के सागर को त्यागकर मृग तृष्णा में क्यों मरते हो ? इनकी दुराशा को त्यागकर जाओ , जहाँ जो इच्छा करें वह करना शुरु करो । सच पूछो तो हम अपने जीवन का फल पा चुके । ऐसा कहकर भले विचार क जो पुरुष थे उन अनुपम रुप वाले किशोर द्वप को निरखने लगे ।

 अब समय पाकर जनक जी ने सीता को बुलाया । सुन्दर चुतर सखियाँ अपने साथ सीता को लेकर आयी । उस सीता की शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता । वह जगत की जननी है । शोभा की खान है । कविवर का कहना है कि यहाँ की सारी उपमायें छोटी है । ऐसा इस हेतु कहा जाता है कि वह लाकिक उपमाएँ है जिसे स्त्रियों के अंगों से प्रेम संबंध जोड़ता है । सीता अप्राकृतिक असाधारण महिला है इस हेतु वे उपमाएँ अनुपयुक्त लगती हैं । अगर ऐसी उपमा दी भी जाय तो वह अपमान होगा । किसी सामान्य स्त्री के साथ सीता की तुलना की जाय तो संसार में ऐसी सुन्दर है या हुयी कहाँ , जिससे उपमा दी जाय । पृथ्वी पर की स्त्रियों की तो बात छोड़े , अगर देवताओं की स्त्रियों से भी उनकी तुलना की जाय तो वे ज्यादा सुन्दर तो है , किन्तु सरस्वती को ध्यान में रखकर विचारें तो वह ज्यादा बोलने वाली है , पार्वती शंकर जी की अद्धांगिनी है , सति जो कामदेव की स्त्री है वह पति वियोगिनी है । लक्ष्मी को तो विष और वारुणी भाई ही है । उस रमा से सीता की तुलना कैसे हो , इत्यादि इनकी तुलना में प्रखर लगती है । तथ्यात्मक तौर पर विचारा गया कि समुद्र मंथन के बाद ही लक्ष्मी उत्पन्न हुयी । कथा सार का अभिप्राय यह है कि हम सुन्दरता की तुलना चाहते है तो उपादान भी सुन्दर होना चाहिए । समुद्र का जल खारा है । उसे मथने के लिए कच्छप के पीठ का प्रयोग किया गया जो कठोर है । वासुकीनाथ ( सर्पराज ) को रस्सी के रुप में प्रयोग किया गया । मथते समय देवता और राक्षस दोनों मिलकर काम किये । इन सारे उपकरणों में कोई सुन्दर नहीं , स्वभावतया कठोर ही है । ऐसे उपकरणों से उत्पन्न लक्ष्मी सीता की तुलना कैसे कर सकती । कल्पना कीजिए , अगर शोभा रुपी अमृत का समुद्र हो , परम रुपवान कच्छप हो , शोभनीय रस्सी हो और कामदेव मथने वाला और श्रृंगार रस को पर्वत सुमेरु मान ले तो त्रिगुणात्मक देहधारी कामदेव विकारी है , उससे उत्पन्न लक्ष्मी सीता की समता में तुलित न हो सकेगी । कविवर तुलसी दास की कला – कल्पना म सीता की रमणीयता अलौकिक है । तब तो-

 रंगभूमि जब सिय पगुधारी । देखि रुप मोहे नर – नारी ।।

 जब सीता जी के हाथ में जयमाला दिखा तो सभी राजागण चकित होकर उन्हें देखन लगे । उधर सीता जी भी चकित चित्त से रामजी की ओर देखने लगी । सभी राजागण मोहित हो गये । सीताजी ने मुनि के पास बैठे दोनों भाईयों को देखा तो आँख अपनी वस्तु देख उसी में लीन हो गयी किन्तु अपने गुरुजनों तथा अपार संख्या में उपस्थित समाज की लाज का ध्यान कर सीता जी संकोच में पड़कर रामजी को हृदय में लेकर सखियों की ओर देखने लगी । रामजी का रुप और सीताजी की सुन्दरता को देखते हुए नर – नारी एक टक ताकते रह गये । सबों का सोचना यही है किन्तु सोचते हुए संकोच होने से मन ही मन भगवान से विनय करते है कि हे विधता राजा जनक की विमूढ़ता का हरण कर हमारी ही तरह की सोच उन्हें दे ताकि वे अपना प्रण त्यागकर रामजी से सीता का विवाह कर दें । सबों की यही लालसा थी कि जानकी के योग्य वर तो श्यामल शरीर वाले हैं । जनक जी ने बन्दी जनों को बलाकर अपने प्रण की घोषणा करवायी । जो शिव के धनुष को तोड़ पायेगा वह सीता सहित तीनों लोक जीत लेगा । उसी से सीता व्याही जायेगी । यह सुनते ही सभी राजा ललचा उठे । अपनी वीरता में अभिमान रखने वाले तमतमाए , कमर कसकर व्याकुल हो गये । तमकत्तमक कर शिवजी के धनुष पकड़ अजमाते किन्तु विचारवान राजा उसके पास नहीं जाते । जो मूर्ख थे वे तमककर धनुष पकड़ते और नही उठ पाने पर लज्जा के मारे चल पड़ते । लगता था कि वीरों का बाहुबल देख धनुष की गुरुता बढ़ जाती थी । जब दस हजार वीर राजाओं ने एक बार प्रयास किया तब भी वह टाले नहीं टला । लगता था जैसे सती स्त्री के ऊपर कामो पुरुषों का एक न चलता है । जैसे बिना वैराग्य पाये सन्यासी की भत्स्ना होती है वैसे ही सभी राजा अयोग्य साबित हुए । वे अपने – अपने आसन पर लज्जित होकर जा बैठे तो जनक जी व्याकुल होकर कठोर वाणी बोल ।

 दीप दीप के भूपति माना । आये सुनि हम जो पनु ठाना ।।

 देव दनुज धरि मनुज शरीरा । विपुल वीर आये रणधीरा ।।

 

 दो ० कुँअरि मनोहर विजय वड़ कीरति अति कमनीय ।

 पावनिहार विरंचि जनु रचेउ न धनु दमनीय ।।

 

 कहहु काहि यहु लाभ न भावा । काहु न शंकर चाप चढ़ावा ।।

 रहउ चढ़ाउब तोड़ब भाई । तिलु भरि भूमि न सके छुड़ाई ।।

 

 अब जनि कोउ माखे भरमानी । वीर विहीन मही मै जानी ।।

 तजहु आस निज निज गृह जाहू । लिखा न विधि वैदेहि विवाहू ।।

 

 सुकृत जाई जौ पनु परिहरउँ । कुँअरि कुमारि रहउ का करउँ ।।

 जौ जनतेउँ विनु भट मूवि भाई । तौ पनु करि होतउन हँसाई ।।

 

 जनक वचन सुनि सब नर – नारी । देखी जानोविहि , भये दुखारी ।।

 माखे लखन कुटिल भई भौहे । रद पट फड़कत वचन रिसौंहे ।।

 

दो ० कहि न सकत रघुवीर डर लगे वचन जनुवान।

 नाइ राम पद कमल सिरु बोले गिरा प्रमाण ।।

 लक्ष्मण जी ने कहा कि जहाँ रघुवंशियों म से कोई भी रहता है उस समाज में ऐसे वचन कोई नहीं बोलता । जैसा अनुचित बचन रामचन्द्र जी की उपस्थिति देखते हुए जनक जी ने कहा ।

 सुनहु भानुकुल पंचज भानू । कहउँ सुभाव न कछु अभिमानू ।।

 जौ तुम्हरि अनुशासन पावां । कंदुक इव ब्रह्माण्ड उठावा ।।

 

 कॉचे घट जिमि डारै फोरि । सकउँ मेरु मूलक जिमि तोरि ।।

 तब प्रताप महिमा भगवाना । को वापुरो पिनाक पुराना ।।

 

 नाथ जानि अस आयसु होउ कौतुक करो विलोकिअ सोउ ।।

 कमल नाल जिमि चाप चढ़ावा । जोजन सतप्रमाण लै धावै ।।

 

 दो ० तोरौ छत्रक दंड जिमि तब प्रताप बल नाथ ।

 जौ न करौं प्रभु पद सपथ कर न घरौं धनु भाथ ।।

 

 लखन सकोप बचन जे बोले । डगमगानि महि दिग्गज डोले ।।

 सकल लोक सब भूप डेराने । सिय हियँ हरषु जनक सकचाने ।।

 

 गुर रघुपति सब मुनि मन माही । मुदित भये पुनि पुनि पुलकाही ।।

 सपनहि रघुपति लखनु नेवारे । प्रेम समेत निकट बैठारे ।।

 

 विश्वामित्र समय शुभ जानी । बोले अति सनेहमय वानी ।।

 उठहु राम मंजहु भव चापा । मेटहु तात जनक परितापा ।।

 

 सुनि गुरु वचन चरण सिरुनावा । हरष विसादु न कछु उर लावा ।।

 दाढ़ भये उठि सहज सुभाएँ । ठवनि युवा मृगाराजु लजाए ।।

 

 बंदि पितर सुर सुकृत सँभारे । जो कछु पुण्य प्रभाउ हमारे ।।

 तो शिव धनु मृणाल की नाई । तोरहु रामु गणेश गोसाई ।।

 

 दो ० रामहि प्रेम समेत लखि सखिन्ह समीप बोलाई ।

 सीता मातु सनेह वस बचन कहइ विलखाई ।।

 माता सुनयना ने कहा – हे सखि सभी लोग देखने ही वाले हैं , कोई ऐसा नहीं है जो गुरु विश्वामित्र को समझाकर कहे कि राम बालक है । इनके लिए यह हठ अच्छा नहीं । जो धनुष रावण और वाणासुर जैसे जगत विजयी वीरों के हिलाये नहीं हिल सका , उसे तोड़ने के लिए विश्वामित्र जी का रामचन्द्र जी को आज्ञा देना और राम का धनुष तोड़ने के लिए चल देना रानी को लगा कि यह भी हठ मात्र है । हस के बच्चे कभी क्या मंदरा चल पर्वत उठा सकते हैं ।

 और तो और कम – से – कम राजा तो बड़े समझाए हैं , उन्हें विश्वामित्र जी को समझाना चाहिए लेकिन उनकी भी समदारी जाती रही । लगता है विधाता की गति ही कुछ अलग है । ऐसा कहकर रानी चुप हो गयी । तब , एक चतुर सहेली जो राम तत्त्व को जानती थी , कहने लगी । रानी , आपतो जानती है कि कुंभज ऋषि जो घड़ा से जन्म लिए वह समुद्र को सोख गये जिनका यश ससार जानता है । सूर्योदय के समय रवि मंडल कितना छोटा लगता है किन्तु उदय होते ही तीनो लोक में उजाला फैल जाता है ।

 एक छोटे से मंत्र के प्रभाव से ब्रह्मा , विष्णु और शिव सहित देवता वश में हो जाते है । मतवाले गजराज को छोटा सा अंकुश वश में कर लेता है । कामदेव तो फूलों का ही धनुष लेकर सारे संसार को अपने वश में कर रखा है । इस हेतु आप अपने मन से संदेह हटा ले । रामचन्द्र जी अवश्य धनुष तोड़ेंगे ।

 सखि बचन सुनि भै परतीति । मिटा विषादु वढि अति प्रीति ।।

 तब रामहि विलोकि वैदेही । सभय हृदय बिन वति जेहि तेहि ।।

 रामचन्द्र जी ने सभी सभासदों को सन्न देखा । फिर सीता जी की ओर देखकर उन्हें व्याकुल समझा । उनका एक – एक पल कल्प के समान बीत रहा था । उन्हाने सोचा कि कोई प्यासा पानी बिना मर जाय तो बाद में अमत भरा तालाब किस काम आयेगा । खेत के सूख जाने पर वर्षा होने से ही क्या लाभ । ऐसा ही कुछ सोचकर बड़ी फूर्ति से धनुष को उठा लिया । तब वह धनुष बिजली कीतरह आकाश में मंडलकार हो गया ।

 लेत चढ़ावत खेचत गाढ़ । काहुन लखा देख सबु वाढ़े ।।

 तेहि छन मध्य राम धनु तोरा । भरे भुवन धनि घोर कठोरा ।।

 

 दो ० संग सखि सुन्दर चतुर , गावहि मंगल चार ।।

 गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार ।।

 

 आई समीप राम छवि देखी । रहिजन कुंवरि चित्र अवरेखी ।।

 चतुर सखि लखि कहा बुझाई । पहिरावहु जयमाल सुहाई ।।

सुनत जुगलकर माल उठाई । प्रेम विवस परिराई न जाई ।।

 

 रघुवर उर जयमाल देखि देव वरिषहि सुमन ।

 सकुचे सकल भुआल जनु विलोकि रवि कुमुदगन ।।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *