डा० जी० भक्त
अनुमान किया जाय तो मानव सृष्टि के बाद से चेतना का विकास और अनवरत प्रयास ने मानव सभ्यता और संस्कृति में सकारात्मक उत्थान की श्रृंखला कायम कीकिन्तु सुख , सुविधा , आराम और व्यसन के प्रवेश से बुराइयाँ पनपी । व्यवहार में दूषण आये । अस्मिता की आग सुलगने लगी । सामाज्य वाद की ललक ने युद्ध को निमंत्रण दिया । इस प्रकार भले – बुरे कर्मो के इतिहास भी झेले तो आधुनिक जगत मानव के कीर्तिमानों को लेकर एक नई दुनियाँ दीखने लगी । … और आज हमने उपभाक्तावादी बनकर विज्ञान की धारा ही पलट दी और उसके अभिशाप झेल रहे हैं ।
इसका कारण कुछ तो समृद्धि है , साथ – साथ महत्त्वाकांक्षाओं की प्रखरता और राजनैतिक सत्ता एवं सत्ता सुख की प्रतिस्पर्धा कई प्रकार से राष्ट्रीय गरिमा में बाधक हुयी है । इसी बीच देश में भौतिक विपदाए भी तवाही के कारण बनती रही है । देश की तरक्की में मानवीय मूल्यों की जो भूमिका होनी चाहिए वह भारतीय गरिमा के अनुरुप नही रही । फलतः देश को कमजोर होना था । इसकी झलक मिलने लगी थी किन्तु ध्यान पिछड़ता गया । कालान्तर में आज कोरोना काल ने स्पष्ट किया कि देश को स्वावलम्बी बनाना सबसे आवश्यक था किन्तु ऐसा न हुआ ।
फिर कोरोना से जंग में भारत अपने को विजयी बता रहा है किन्तु यह मान्यता सरकार की है । स्वास्थ्य विभाग द्वारा जो कदम उठे वे सर्वथा समयोचित कदम नहीं माना जा सकता । यह भी विचारणीय है कि कोरोना पर चिकित्सा वैज्ञानिकों द्वारा विचारों एवं क्रिया कलापों की विभिन्नता भी एक कारण बनती है जिसके कारण अब तक जंग जीता जाना असम्भव रहा । हम जो अपना सुहावना लक्ष्य बना रहे है “ सबका साथ ” यह अपने आप में इम्परफेक्ट है । अगर जीवन जोना मात्र है तो किसी भी तरह जी सकते है किन्तु चिकित्सा से जीवन हासिल करना है तो उसमें परफेक्ट होना अनिवार्य है अन्यथा क्रमिक रुप से रोग का रुपान्तरण एवं कुचिकिठिस्त विधान का प्रतिफल , अनुपयुक्त दवा के प्रयोग का दुष्परिणाम एवं दूरगामी प्रभाव से बचा नही जा सकता , साथ ही पैतृक रुग्नता का भावी वंशानुगत प्रभाव भी स्वीकारना होगा तो ऐसी परिस्थिज्ञति में चिकित्सा शास्त्र पूर्ण स्वस्थता का संरक्षक हो और उसे चरितार्थ करना चाहिए ।
डा ० हैनिमैन जो होमियोपैथी के जन्मदाता बने वे स्वयं लोपैथी के विद्वान चिकित्सक रहे किन्तु उन्हें जब अपने चिकित्सा कार्य के क्रम में एलोपैथिक दवाओं में ऐसा जान पड़ा कि य रोग को प्रशमित ( Suppress ) करते है , मात्र लक्षणों को दवा देते है । क्षणिक काल के लिए वास्तविक रोग दब जाता है और पुनः नये रुप में परिवत्तित रुप में और अन्य पूर्व में दवाएँ गये रोग से संयोगकर एक जटिल रोग उपस्थित कर पाते हैं ।
उपरोकत को सत्यप्रभावित कर एवं निरापद चिकित्सा पद्धति की खोज में अपनी प्रैक्टिस बन्द कर 15 वर्षों तक खोज में जुटे रहे और नवीन पद्धति की स्थापना की जिसे उनके समकालीन चिकित्सकों ने भी स्वीकारा ।
हमारे देश में जब हामियोपैथी का पॉव पड़ा वह अंग्रेजों के साम्राज्य की बात है । पंजाब केशरी राजा रणजीत सिंह के पैर का घाव होमियोपैथिक दवा से ठीक हुआ और भारतवासियों ने अपनाया ।
फ्रेंच पादरी भारत में जब अपने धर्म के प्रचारार्थ आये तो होमियोपैथिक चिकित्सा का प्रचार भी साथ – साथ किया । उसके लिए उन्होंने आन्ध्र प्रदेश के भगलूर में फादर मूलर पुअर होमियो डिस्पेन्सरी कानकनाडी स्थापित की साथ – साथ दवा निर्माण शाला की स्थापना की ।
बंगाल के राजेन्द्रनाथ दत्त तथा महेन्द्रलाल सरकार होमियोपैथ बने । उस जमाने डा ० यदुवीर सिंह आदि पूरे भारत के दर्जनों होमियोपैथ के प्रयास से 1953 में आजाद भारत में होमियोपैथी को स्थान दिलाया । राज्यों के स्टेट बोर्ड की स्थापना हुयी । डा ० राजेन्द्र प्रसाद , महात्मा गाँधी , रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि ने होमियोपैथी की सराहना की । भारत जैसे गरीब देश के लिए उन्होंने होमियोपैथी को एक वरदान माना । भारत सरकार ने भी पूरे मनोयोग से इसको विकसित स्वरुप दिया । किन्तु कालक्रम ने इसकी जड़ को कमजोड़ किया जिसके कारण अकथनीय है जिसकी झलक आज सामने है ।
हमने सुना कि जागृति के अभाव में कोरोना पर हमे विजय मे देर हुयी । 1857 का हारा हुआ भारत 1947 में जागृत होकर स्वतंत्रता हाशिल किया । 70 वर्षों में भारत शायद सो गया । इस बीच इसे जागृति का पाठ किसी ने नही पढ़ाया । सम्भव है हमारे देश को नेतृत्व देने वाले जागृति का मूल मंत्र अच्छी तरह नही अपना सके ।
इस अवधि में भारत की शिक्षा के क्षेत्र में गिरावट आयी जिसे सरकार स्वीकार कर रही है । हम ज्यादा क्या कहे , स्वतंत्रता पर कटुकटाक्ष करते हुए तुलसी दारु जी ने राम चरित मानस मे ऐसा स्वीकारा :-
अर्क जवास पात बिन भयउ ।
जस सुराज लखि उद्यम गयउ ।।
अर्क-आँक , अकवन , मदार तथा जवासा नामक औषधीय पाधे बरसात मे अपनी पतियाँ खो डालते है ( झड़ ) जाते है । जैसे स्वराज्य पाकर लोग मिहनत करना छोड़ देते है ।
विषय प्रासंगिक है । युग बोध चाहिए । युग धर्म पर विचारना होगा । हमारी मानसिक गुलामी मिटे , इस पर विचारना होगा । कार्य छोटा नहीं , त्याग और अथक परिश्रम की जरुरत है । कुछ लाग अपना प्रोफाइल समाचार पत्रो पर साझा किये ह जो सच्चे अर्थ मे होमियोपैथी को आगे लाने के लिए यथेष्ट नही है ।
हम जो है जहाँ है , उससे आगे बढ़ना है । डा ० अरविनिद धोष ने अपनी आध्यात्मिक सूत्रावली मे लिखा है , कि गेलन की पद्धति रोग को दवान वाली है । जितनी टीका संक्रामक रोग का दवाने में सक्षम हुयी वे सभी आगे चलकर प्रयोगकत्ता के शरीर में कष्ट साध्य या सर्जिकल रोग ही पैदा किया । इसके लिए होमियोपैथी ही उपयोगी है ।