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जीव जीवन और मलोत्सर्जन

 इस सृष्टि के अन्दर जितने सूक्ष्म – स्थूल , चर – अचर सजीव – निर्जीव , दृश्य – अदृश्य पदार्थ पाये जाते है वे पाँच भौतिक तत्त्व ( मिट्टी , जल , अग्नि , वायु और आकाश ) के मिलने से निर्मित हैं । उनका बनना टूटना ही निर्माण और विनाश की प्रक्रिया है । इसी में हम धरती , उसके अन्दर पाये जाने वाले की प्रक्रिया है । इसी में हम धरती , उसके अन्दर पाये जान वाले खनिज और आकाशीय पिंडों को पाते हैं । देह धारी जन्तु कीट और पक्षी के अतिरिक्त वनस्पति पर्वत और सागर भी पाते हैं । इन सबों में जीव कहलाने वाले सप्राण होते है । इनकी एक आयु होती है । जीवन में गति और विकास के साथ वाणी और अभिव्यक्ति ( अपने अन्दर निहित भाव ) को प्रकट करने की क्षमता होती है । वनस्पति में कुछ गुण प्रकट होते पाये जाते हैं कुछ नहीं ।

 जन्म के बाद विकास , विकास के लिए पोषण , पोषण के लिए भोजन और गति ( कार्य ) के लिए ऊर्जा की जरुरत होती है । इन समस्त क्रियाओं को जीवन क्रिया ( लाइफ ) और क्रिया का रुकना मृत्यु ( डेथ ) कहा जाता है । जीवन में शरीर का अस्तित्तव और कार्य कलाप ही महत्त्व रखता है । भोजन ( बाह्य पदार्थ का ग्रहण ) , पाचन , पोषण और मलोत्सर्जन , शरीर से खाद्य पदार्थ क अवशिष्ट का शरीर से बाहर आना , जैसे मल – मूत्र – पसीना और साँस छोड़ना कहलाता है । मलों का शरीर में टिकना विकार उत्पन्न करता है । इससे रोग उत्पन्न होता है ।

 मल संचय का कारण शरीर के अन्दर की क्रिया में आयी गड़बड़ी ही होती है । यह विकृत आहार ग्रहण करने उसके पाचन में कोई प्रकार का अवरोध होने या शरीर के पोषण क्रिया में कमी होने से एवं शरीर के कार्यकारी संस्थान के अन्दर अवरोध से होता है । यह शारीरिक रोग के रुप में प्रकट होता है ।

 हमारे शरीर को छोड़कर उसके परे जो स्वरुप और विस्तार है वही हमारा परिवेश है , सृष्टि का वातावरण है । इसका भी महत्त्व है । हम उसी परिवेश से भोजन , जल , वायु ग्रहण करते है । जैसे एक व्यक्ति ( जीव ) के शरीर में रोग या विकार उत्पन्न होता है उसी तरह हमारे परिवेश में पाये जाने वाले स्थान , जल स्त्रोत , वायु , वनस्पति भी विकार ग्रस्त हो तो विकृत आहार , जल , हवा , खाद्य पदार्थ आदि भी विकृत ही प्राप्त हो , ऐसी स्थिति में वातावरण का विकृत , प्रदूषित और रुग्न होना एक गम्भीर समस्या बने , कोई आश्चर्य की बात नहीं ।

 आज तो हम सभी नीचे से उपर तक स्मार्ट है । अर्थात हम शालीन जीवन जी रहे है । हमारे वस्त्र , ज्ञान , बोल – भाव , बात – व्यवहार , संबंध – लगाव , जीवन स्तर सभी सुधरे हुए है । केवल लॉकडाउन का अनुसासन पालने में थोड़ी कमी हो रही है जिसके कारण आज गले में संक्रमण का माला अटका हुआ है फिर भी हम भारतीय मस्त है । रोग इसलिए पीछा कर रहा है कि हम बीमारियों के खजाना संजोय सब दिन दवा के गुलाम बने है । अब एन्टी बायोटिक वं एन्टी पायेरे टिक भी दम तोड़ रहा है । कोरोना के स्वागत के लायक ये सब नही रहे । इन्हें पहले क्रोनिकलो हटाने वाली दवा चाहिए । नोसोलॉजीकल ( एन्टी मियाज्मेटिक ) रोग बीज नाशक दवाएँ , जो पूर्व पुरुषों ( खानदानी ) से आये रोग तथा अब तक जीवन में ग्रसित रोगों के दष्प्रभावों को समाप्त कर रोगी को सम्पूर्ण आरोग्य दिला सके ।

 हमारी दैनिक दिनचर्या में शरीर की आन्तरिक एवं बाहरी सफाई , वस्त्र की सफाई , घर की एवं घर के पास – पड़ोस की सफाई सड़का , नालों की सफाई , वातावरण की सफाई , पर्यावरण की सफाई आदि को ही स्वास्थ्य का संरक्षक माना जाता है । आत्म संयम और विशुद्धाचार ही स्वास्थ्य का मूल मंत्र है । ज्ञान की पराकाष्ठा मिटी । जिसे हम आत्मविश्वास कहते हैं वही आज का अंधविश्वास है । पूरा विश्व अंधविश्वास को ही जीवन का आधार मान चुका है । स्माट युग की यही कहानी है । जीवन पर संकट बना रहेगा जब तक मनुष्य अपने कर्तव्य का निवाह न कर बाहरी दुनियाँ क प्रदूषित परिवेश में सावधान होकर नहीं चलेगा तो जैसा कोरोना से जूझ रही मानवता की दशा है वह मिट नही पायेगी । वैक्सिन और पारंपरिक स्वास्थ्य व्यवस्था सिर्फ विकल्प मात्र है । चिकित्सा शास्त्र प्रकृति के विज्ञान का अवलम्ब चाहता है ।

 रोग , शोक , पश्चाताप , सजा भोगना एवं व्यसन का शिकार बनकर जीवन बर्वाद करना अपने ही द्वारा किये गये अपराध के फल है ।

 दुनियाँ में बुरी लते ( अच्छाई का त्याग ) अपनाना शरीर को सताती है । मन और शरीर उसकी आग ( दुष्प्रभाव ) से जलता है । दवा जिसके पास है वह भी व्यापार बुद्धि रखने वाला अर्थात ठग की भूमिका में बैठा है । इस अवस्था में हम स्वस्थ कैसे रह सकते । नकली दवाएँ , मिलावटी खाद्य पदार्थ , दूरस्थ प्रभाव ( साइडइफेक्ट ) रखने वाली दवाएँ स्वास्थ्य को प्राकृतिक ( नेचर क्योर ) स्वास्थ्य नही दिला सकता । अतः अपने शरीर को जिसमें आपकी आत्मा स्थित है , उसके रक्षार्थ मानव को विशुद्धाचरण और सुचिन्तन के साथ मन की पवित्रता सर्वोपरि स्थान रखेगा ।

 व्यक्ति को सत्पात्र बनना चाहिए अन्यथा उसका जीवन अपूर्ण होगा । उसके व्यवहार व्यापार दोनों ही में कमी पायी जायेगी । उसी प्रकार कुपात्र समूह के बीच जीने का फल भी कमजोर होगा तो मानवता कब तक टिकेगी ? ये सारे शरीर के मल दूषण है । इनका परित्याग ही सुजीवन है ।

 डा ० जी ० भक्त

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