एक चमगादर विश्व को वर्षों पीछे पछाड़ फेंका
डा ० जी ० भक्त
आज चिकित्सा जगत ( प्रचलित समस्त और वैकल्पिक पद्धतियों ) के अनुभव से इस प्रश्न का उत्तर जानना अनिवार्य होगा कि जो चिकित्सा पदाधिकारी या कार्यकर्ता अगड़ी पंक्ति के माने जा सकते है , उनके अधिक संख्या में संक्रमित होने का कौन – सा कारण हो सकता ह , जब वहाँ सारी संभावित सुविधाएँ करीब उपलब्ध और सावधानियाँ स्वीकार्य मानी जाती है । यह तो चिकित्सा क्षेत्र के लिए परमावश्यक है कि सम्बद्ध विषय वस्तु को सकारण जानकारी में लिया जाय तो आगे दिन के लिए मार्गदर्शक एवं लाभप्रद हो । इस दिश में शवों का विच्छेद ( P.M. Report ) और विसरा ( भीतर के अंगों ) एवं विकृत तन्तुओं के संबंध मे स्पष्ट ज्ञान प्राप्त कर समस्या का खुलासा प्रस्तुतीकरण एवं सविस्तार विवेचन सामने आ पाये । अगर किसी अपरिहार्य कारण से ऐसा करना ज्ञानार्जन और शोध कार्य में बाधक हो तो मानवता की क्षति और व्यवस्था की दुर्गति देखते हुए कानून का संरक्षण कहाँ तक अपेक्षित माना जा सकता है ?
ऐसे प्रश्नों पर कब और किस रुप में ज्ञान की झलक को पारदर्शिता प्राप्त हो ? जब जीवन का डोर अपनी जानकारी और अपेक्षा को भूलकर आगे बढ़ना अपना कर्त्तव्य मान ले तो विज्ञान को जीवन रक्षक कहा जाना कितना सार्थक माना जाय । दुनियाँ के धर्म ( मजहव ) रिलिजन अब तक मानवता एवं जीवात्मा के हितार्थ अपना सर्वस्व त्याग के साथ पुत्र तक के शिर पर शस्त्र चलाना स्वीकार किया है । शिवि , दघियि , मोरध्वज , वीखर आदि ने ऐसा कर भारत भूमि को धर्म क्षेत्र की संज्ञा दिलायी तो हम भय क्यों खा रहे । यह सत्य नही है कि अपने देश में निजी क्लिनिक चलाने वाले चिकित्सक किस प्रकार अन्डर ग्राउण्ड होकर रोगी को दूर से ही देख रहे है । यह सेवा है या व्यवसाय ? चिकित्सकों के लिए तो लॉक – डाउन नहीं है । ” सन्निमित्ते वर त्यागों विनाशे नियते सति ” ।
सृष्टि स्वयं विज्ञानमय है । प्रकृति भी विज्ञान मय है । दैनिक जीवन की दिनचर्या भी विज्ञानमय है । प्रकृति की सजीव – निर्जीव सत्ता और चर – अचर प्राणी के व्यवहार भी विज्ञान मय है । ब्रह्माण्डीय रचना और उसके संचालन के संबंध में विज्ञान ही आधार है । देहधारी एवं वनस्पति का जीवन चक्र , जीवन क्रिया , प्रजन्न , विकास तथा उसका पर्यावरण से तारतम्य भी विज्ञान है , तो रोगोत्पत्ति , स्वास्थ्य और आरोग्य विधान भी विज्ञान है । ज्ञान कर्म का संधान , आधान , विधान और अवधान भी विज्ञान है । प्रकृति के चेतन और जड़ जीवन की विविधता में भी विज्ञान ही कार्यरत है ।
सिर्फ चेतन मानव की महत्त्वाकांक्षी प्रवृतियाँ ही वैज्ञानिक समरसता में विरमता लान का कार्य करती है जो जीवन में शारीरिक , मानसिक और क्रियात्मक व्यवस्था में अप्रत्याशित परिवर्तन लाती है । मन , बुद्धि और विवेक इसके संचालक और नियंत्रक है तो मनोकांक्षा के अतिरेक से उत्पन्न जीवन की विवसता से विनाश की शुरूआत होती है । मृत्यु भौतिक सत्ता का परिवर्तन है जो ब्रह्मांडीय संतुलन का अंतिम विज्ञान है । वह काल और परिस्थिति वश रुपान्तरित पाया जाता है । आत्मा चिर अमर है । ये परिस्थितियाँ भौतिक होती है । भौतिक जगत में दिखाई देने वाली विविधता का एकीकरण ( अर्थात मूल प्रकृति या पंचतत्त्व में विलय ) ही प्रलय शब्द से सूचित है । फिर कार्य कारण का संबंध उस रुपान्तरित अदृश्य सत्ता के साथ काल में ही समाहित पाया जाता दीखता है किन्तु वेदान्त उस सत्ता को अमर मानता है । अतः भय को कारण बनाकर अपना कर्त्तव्य भूलना मानवता पर धब्बा तो अवश्य माना जायगा । ज्ञानी , आध्यात्मिक , प्रकृतिवादी भी आत्मा को अमर मानते है । अमर परमेश्वर शब्द का एकार्थक या समानार्थक भाव रखता है अतः आत्मा जो अव्यय है उस पर दाग नही लगनी चाहिए ।
नैन छिद्यन्ति शस्त्रापि , नैन दहति पावकः ।
न चैन क्लेद्यन्त्यापो न शोषयति मारुत ।।