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आध्यात्म बोध-5

युग बोध ही आत्म बोध लाता हैं ।

डा० जी० भक्त

जीवन में काल और परिस्थिति की भूमिका अस्वीकारी नहीं जा सकती । परिस्थितियाँ समस्या खड़ी करती ही है । उन परिस्थितियों को समझने और सुधारने में विचार मंथन करना और निदान ढूंढ़ना समय लेता हैं । पुनः संसाधन जुटाने और सामंजस्य बैठाने में भी । तीसरी बात भी उसके साथ जुड़ती है अपनी परिस्थिति को उसके अनुरुप सक्षम बनाया जाय तथा विषम परिस्थितियों , और चूक जाने पर धैर्य अपनाने की भी आवश्यकता अनुभव होती हैं । फिर आत्म तुष्टि दोनों ही दिशाओं में चाहिए , कार्यारम्य के पूर्व और उपलब्धि पर भी । हमारे चिन्तन में युग के प्रचलन और संस्कृति का तालमेल भी आवश्यक है , अन्यथा समाज उसे मान्यता न भी दें ।

एकता सहमति , सवोपलब्धता सामाजिक जीवन को समरसता प्रदान करती है अतः हमें अपने परिवेश के मानस और युगीन आवश्यकताओं पर ध्यान रखकर ही बढ़ना हमारा युग बोध होगा । युग के विचार सत्ता की नीति नियमावली पक्ष विपक्ष में औसत अन्तर और मूल समस्याओं की विकरालता या उसके दूगामी प्रभावों पर भी चिन्तन जरुरी हो । हम वर्तमान युग को उपभोक्तावादी नाम दे चुके हैं । यहाँ पर महत्त्वाकांक्षाओं का बाजार गर्म पाया जाता हैं । वैचारिक समन्वय सन्तुलन नहीं पाता । कदाचित सामूहिक सहमति में कूटनीति प्रविष्ट होकर धोखा का जाल समाज को विश्वराव की ओर खींखता या धकेलता दिखता हैं । विचार वैषम्य से एकता पर संकट आना स्वाभाविक हैं । युग धर्म की चेतना आवश्यक हैं किन्तु यह पथ सामान्जस्य जुटाने का हैं । जहाँ वादों बहुलता हैं । विभेद की परिस्थिति अपना – अपना राज अलापती हैं , राजनीतिक दलों में सैद्धान्तिक दृढ़ता नहीं , गठबंधन का योग एक प्रयोग मात्र हैं । वह जनतंत्र हमेशा खतरे में रहेगा ।

वर्त्तमान वैश्विक राजनीति महत्त्वाकांक्षाओं का बिगुलबजा चुकी हैं । सम्भव है वह अपने – अपने राष्ट्र के लिए पोषक भी हो , सहायक और सहानुभूतिक भूमिका रखता हो किन्तु विश्व का विखंडित गठबन्धन किसी अनुबन्ध को दिल से स्वीकार कर पायेगा ? शान्ति का प्रयास पुराना पड़ गया । प्रस्तावक रहे न समर्थक । एक कागजी दस्तावेज पड़ा हुआ है । कभी समस्या को टालने हेतु वह उपकरण बनता हैं । किन्तु एक इतिहास तो हैं ।

यहाँ युग बोध को भूलना नही है । साथ ही आत्मबोध अपनाना है । अपनापन पैदा करना पारदर्शिता के साथ प्रेम और सौहार्द्र के साथ मित्र वत । आप क्षणों में उत्तर दे बैठेंगे- यह कल्पना मात्र हैं । जीता जागता एक उदाहरण लें , महात्मा गाँधी जी का अंग्रेजों के साथ नहीं अंग्रेजी सत्ता के साथ ” सविनय अवज्ञा आंदोलन ” । कुछ काल लगा अंग्रेज सहमत हो गये । लड़ाई तो हम भी लड़े किन्तु रक्त नही बहा , जिन्हें हम दुश्मन मानते थे । थोड़ा दुख है कि वही हमारा देश है जो लड़ना चाहता है , अपने विरोधी देशों से , हथियार जुटाता है , किन्तु हथियार का प्रयोग वह पहले नहीं करना चाहता । धीरज से काम लेता है । भारत उन्हें दुश्मन नही मानता ।

आत्मीयता बनायें रखने का ही लक्ष्य है विश्व शान्ति । युग है परमाणु शक्ति का । लेकिन हम युग धर्म का पालन कर रहे हैं । हम भाई चारे का हाथ बढ़ायें । हम सभी मानव में एक ही आत्मा को स्वीकारते हैं ।

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