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प्रभाग 24 चतुर्थ सोपान किष्किन्धा काण्ड रामचरितमानस

फिर जब पम्पापुर से आगे राम और लक्ष्मण जी बढ़े , तो ऋष्यमूक पर्वत समीप आ गये । वहाँ पर ही सुग्रीव अपने मंत्रियों सहित रहते थे । उन्होंने बलों की सीमा दोनों तपस्वी बालकों को देखा । उनके मन में ऐसा भय लगा कि कहीं हमें ही मारने के लिए नहीं तो ये दोनों आ रहे हैं । ऐसा उनका मन मला था कि हनुमान से आग्रह किया – तुम ब्रह्मचारी के वेष में होशियारी से जाकर जानकारी ला , अगर कुछ हो तो हमें इशार से बतला देना तो मैं इस पर्वत से भाग चलूँगा । हनुमान जी आज्ञानुसार ब्राह्मण के रुप में जाकर मिले और पूछा :-

 को तुम श्यामल गौर शरीरा । छत्री रुप फिरहु वन वीरा ।।
 कठिन भूमि कोमल पद गामी । कवन हेतु विचरहु वनस्वामी ।।
 
 मृदुल मनोहर सुन्दर गाता । सहत दुसह वन आतप वाता ।।
 की तुम्ह तीन देव मह कोउ । नर नारायण की तुम्ह दोउ ।।
 
 दो ० जग कारण तारन भव भंजन धरनी भार ।
 की तुम्ह अखिल भुअन पति लीन्ह मनुज अवतार ।।
 
 कौशलेस दशरथ के जाय । हम पितु वचन मानि वन आये ।
 नाम राम लछिमन दोउ भाई । संग नारि सुकुमारी सुहाई ।।
 
 इहा हरी निसचर वैदेही । विप्र फिरहि हम खोजत तेही ।।
 आपन चरित कहा हम गाई । कहहु विप्र निज कथा बुझाई ।।
 
 जब हनुमान जी प्रभु को पहचान लिए तो पॉव पकड़ लिए । उस दृश्य की शोभा शंकर जी भी नहीं वर्णन कर पाये । मुँह से न बोली निकलती , मन अन्दर से प्रफुल्लित था किन्तु वे एक टक प्रभु की सुन्दर रचना निहारते रह गये । फिर धैर्य धारण कर हनुमान जी ने भगवान से कहा कि बहुत दिनो पर मेरी आपसे भेंट हुयी । आपकी माया के वश में मैं भटकता रहा । आपको पहचाना नही । मैं तो यो ही मंद बुद्धि हूँ । दूसरे मोह के वश में हूँ , तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञानी हूँ । हे प्रभु आपने भी तो मुझे भुला दिया । यद्यपि मुझमें बहुत से अवगुण है तथापि सेवक को स्वामी की विस्मृति में नही आना चाहिए । हे स्वामी ! जीव तो आपकी माया से मोहित है । वह आपकी ही कृपा से मुक्ति पा सकता है । उस पर भी मैं आपकी दुहाई देकर सोचता हूँ कि मुझसे भक्ति भजन कुछ भी सम्भव नहीं । आप जानते है कि सेवक स्वामी के भरोसे और शिशु माता के भरोसे रहता है । इसलिए स्वामी को सेवक का सहारा बनना ही पड़ेगा । इतना कहकर हनुमान जी रामचन्द्र जी के पॉव पकड़ लिए तब उनके हृदय में भक्त के प्रति अविरल प्रेम जगा और उन्होंने उठाकर अपने हृदय से लगा लिया और कहा अपने हृदय में कभी हीन भाव मत लाना , मैं तुणे लक्ष्मण से भी दूना प्रेम भाव रखता हूँ । लोग तो मुझे सबके लिए एक समान मानते हैं परन्तु भक्तों के लिए मैं सबसे प्रिय हूँ । ऐसा प्रिय ( अनन्य भक्त ) तो वही है जिसकी बुद्धि से सेवक और स्वामी का भाव दृढ़ रुप में भरा रहता है । हनुमान जी को विश्वास हुआ कि रामजी उनके बिल्कुल अनुकूल है तो उन से कपि पति सुग्रीव के संबंध में सारी जानकारी दी और कहा कि आप उससे मित्रता करें । वह सभी दिशाआ में अपना दूत भेज कर पता लगायेंगे कि सीता जी कहा हैं । इतना कह कर दोनों भाईयों को अपनी पीठ पर बैठाकर सुग्रीव के पास ले गये । रामजी को देखकर सुग्रीव अपने को धन्य माना और सोचने लगे कि भगवान क्या मुझसे मित्रता करेंगे ? इस पर हनुमान जी ने दोनों पक्षा की हित की बातें समझाकर अग्नि को साक्षी रखकर परस्पर की मित्रता दृढ़ करा दी । तब सुग्रीव ने बचन दिया कि सीता मिल जायेगी । एक बार जब मैं यही बैठकर विचार कर रहा था तो किसी अनजान शत्रु के वश में पड़ी असहाय रुदन करती सीता को आकाश मार्ग से जाते देखा । हमें देखते ही उन्होंने ” हे राम ” ” हे राम ‘ कहकर एक वस्त्र गिरा दिया था । रामजी ने जब वह वस्त्र मांगा तो शीघ्र लाकर दे दिया । रामचन्द्र जी उसे हृदय से लगाकर सोच में पड़ गये ।
 कह सुग्रीव सुनहु रघुवीरा । तजहु सोच मन आनहु धीरा ।।
 सब प्रकार कारिहउँ सेवकाई । जेहि विधि मिलहि जानकी माई ।।
 
 दो ० सखा वचन सुनि हरणे , कृपा सिन्धु बल सींव ।।
 कारण कवन बसहु वन मोह कहहु सुग्रीव ।।
 
 ( पृष्ठ 686 दो ० 5 से पृष्ठ 694 दो ० 13 तक फिर यहाँ से दो ० 17 तक परिशिष्ठांक पर । )
 
 किष्किन्धा पर्वत पर रहते हुए वर्षा ऋतु समाप्त हो गयी । सुहावना समय आ गया । सीता की सुधि किसी ने अबतक न दी । अगर एक बार किसी तरह उसकी जानकारी मिल जाय तो काल को भी जीत कर पल भर में सीता जी को ले आउँ । हे लक्ष्मण अगर कहीं भी सीता जीवित हो तो यत्न करके उसे लाया जाय । सुग्रीव तो राज्य , पत्नी , खजाना , नगर सब पा लिया और उसके चलते सब कछ भूल गया । जिस वाण से मैंने बालि को मारा था , उसी वाण से कल उसे मारूँगा । शंकर जी ने पार्वती जी से कहा जिनकी कृपा से सारे – मोह मद स्वतः छूट जाते हैं वह भगवान आज क्रोधित हो रहे हैं यह तो उनकी लीला मात्र है । जो ज्ञानी श्री रामचन्द्र जी के चरणों की भक्ति से अपने को जोड़ लिए हैं वही उसे जान सकते हैं । लक्ष्मण जी ने जब देखा कि मेरे भाई क्रोध में आ चुके हैं तो उन्होंन भी धनुष धारण कर लिया , तब रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण जी को समझाकार कहा कि किसी
प्रकार भय दिखलाकर सुग्रीव को बुला लाओ । उसे मारना नही है , उधर हनुमान जी के मन में भी सीता जी का पता लगाने की बात याद आयी । वह उसे भुला चुका । वे सुग्रीव के पास जाकर साम , दाम , दण्ड और भेद इन चारों प्रकार से नीति सुझाकर समझाया । सुग्रीव सुनते ही भय खा गया । वासनाओं ने मेरे ज्ञान का हरण कर लिया । बोला – हे हनुमान , जगह – जगह पर वानरों के समूह बसे हुए है , वहाँ दूत भेजकर कह डालो कि पन्द्रह दिनो के अन्दर अगर वह नहीं आया तो मेरे हाथों उसका बध हो जायेगा । हनुमान जी ने दूतों को बुलाया और सबों का सम्मान किया । भय और प्रेम की नीति दिखलाकर सभी सिर नवाकर चले । उसी समय क्रोध की मुद्रा में लक्ष्मण पहुँचे । उन्हें देखते ही वानरों के समूह दौड़ते हुए प्रस्थान कर गये । लक्ष्मण जी ने धनुष वाण चढ़ाकर कहा कि सारे नगर को जलाकर राख कर दूंगा । इससे नगर को व्याकुल देख बालिपुत्र अंगद उनके पास आये । पैर छूकर प्रणाम किया । लक्ष्मण जी ने दोनो हाथ उठाकर कहा कि डरो मत । अंगद तो अपने कानों से लक्ष्मण जी को क्रोधित मुद्रा में बोलते हुए सुना था । इसलिए वह भयभीत होकर हनुमान जी से बोला – हे हनुमान जी , आप तारा को साथ लेजाकर राजकुमार को समझाओं । हनुमान जी ने वैसा ही किया । लक्ष्मण जी की वन्दना कर उन्हें सादर बुलाकर अपने घर ले गये । पलंग पर बैठाकर वानर राज सुग्रीव उनके पाँव पकड़े तो लक्ष्मण जी उसे बॉह पकड़ गले से लगा लिए । सुग्रीव ने कहा :-
 नाथ विषय सम मद कछु नाही । मुनि मन मोह करई छन माही ।।
 सुनत विनीत वचन सुख पावा । लछिमन तेहि बहु विधि समुझावा ।।
 
 पवन तनय सब कथा सुनाई । जेहि विधि गये दूत समुदाई ।।
 
 दो ० हरषि चले सुग्रीव तब , अंगददि कपि साथ ।।
 रामानुज आगे करि आये जहें रघुनाथ ।।
 
 नाई चरण सिरु कह कर जोरि । नाथ मोहि कछु नाहिन खोरि ।।
 अतिसय प्रवल देव तब माया । छूटइ संग करहु जौ दाया ।।
 
 विषय वश्य सुर नर मुनि स्वामी । मैं पॉवर पशु कपि अति कामी ।।
 नारि नयन सर जाहि न लागा । घोर क्रोध तम निशि जो जागा ।।
 
 लोभ पास जेहि गर न बँधाया । सोवर तुम समान रघुराया ।।
 यह गुन साधन जे नहि होई । तुम्हरी कृपा पाव कोई – कोई ।।
 
 तब रघुपति बोले मुसकाई । तुम्ह प्रिय मोहि भरत की नाई ।।
 अब सोई जतन करहु मनलाई । जेहि विधि सीता कै सुधि पाई ।।
 
 इसी ढंग से बातें हो रही थी कि बहुत से वानरों के समूह जुट गये । सबों ने भगवान के चरण छूए एवं प्रभु ने भी सबसे हाथ मिलाये या ऐसा मानें कि भगवान तो सबों में विराजमान हैं ही । सभी वानर सुग्रीव की आज्ञा पाकर तैयार खड़े थे । उन्होंने कहा कि यह रामचन्द्र जी का कार्य है । मैं अपनी ओर से आग्रह कर रहा हूँ । जानकी जी को जाकर खोज लाइए । एक महीना में लौट आना है , अगर अवधि समाप्त होते सीता न मिली तो सभी मृत्यु के घाट उतार दिए जायेंगे । यह सुनते ही सभी वानर चलते बने । तब अंगद , नल , हनुमान आदि को सुग्रीव बुलवाये और कहा :-
 सुनहु नील अंगद हनुमाना । जामवन्त मतिधीर सुजाना ।।
 सकल सुभट मिलि दच्छिन जाहूँ । सीता सुधि पूछह सब काहूँ ।।
 
 मन क्रम वचन सो जतन विचारे । रामचन्द्र कर काज संवारेहु ।।
 भानू पीठि सेइअ उर आगी । स्वामिहि सर्व भव छल त्यागी ।।
 
 तजिमाया सेइअ पर लोका । मिटहि सकल भाव संभव सोका ।।
 देह घरे कर यह फलु भाई । भजिअ राम सब काम बिहाई ।।
 
 सोइ गुनम्य सोइ बड़ भागी । जो रघुवीर चरण अनुरागी ।।
 आयसु मांगी चरण सिरु नाई । चले हरषि सुमति रघुराई ।।
 
 पाछे पवनतनय सिरु नावा । जानि काज प्रभु निकट बुलावा ।।
 परसा सीश सरारुह पानी । कर मुद्रिका दीन्हि जन जानी ।।
 
 बहु प्रकार सीतहि समु झायहु । कहि बल विरह वेगि तुम्ह आयहु ।।
 हनुमत जन्म सुफल करि जाना । चलेउ हृदय धरि कृपा निधाना ।।
 
 यद्यपि प्रभु जानत सब बाता । राजनीति राखत सरत्राता ।।
 
 अपने शरीर का मोह छोड़कर सभी नदी , तालाब , गिरी , कन्दरा आदि में खोजते हुए रामजी के कार्य में तल्लीन वन में भ्रमण करते चले । जहाँ कोई राक्षस मिलता उसे मार डालते । कोई मुनि मिलते तो उन्हें रोक घेरकर सीता के बारे मे पूछते । वन सबों को प्यास सताने लगी । कहीं पानी दिखता नहीं । पानी की खोज में सभी जंगल में खा गये । हनुमान जी ने समझा कि ये सभी पानी के अभाव में मरना चाहते हैं , वे स्वयं पर्वत पर चढ़कर चारो ओर देखे । उन्हें धरती के अन्दर खोह मिला , जिसमें तरह – तरह के पक्षी जाते – आते रहते थे । पहाड़ से उतर कर हनुमान लौटे और सबों को एक साथ लेकर वह खोह दिखलाया । आगे – आगे तो हनुमान ही गये । शीघ्र बिल में प्रवेश कर देखा कि वहाँ एक सुन्दर बगीचा है । उसमें एक तालाब है । वहाँ एक मंदिर में तपस्विनी नारी दिखी । उसे दूर से ही सबों ने प्रणाम किया । पूछने पर सब ने अपना वृतान्त सुनाया । तब उसने उन्हें पानी पीने और फल खाने की अनुमति दी । सभी खापीकर उस नारी के पास पहुंचे । वह अपने संबंध की जानकारी देकर बोली । अब मैं श्री रामचन्द्र जी के पास जाउँगी । उन सबों को कही कि तुम लोग आँखे मूंदकर उस खोह से बाहर हो जाओ । आँख मूदते ही सबों ने अपने को समुद्र तट पर पाया ।
 वह नारी तो भगवान के पास चली गयी । वहाँ भगवान से विनती की । भगवान ने अपनी अनपायनी भक्ति प्रदान की जिसे वह हृदय में धारण कर बदरिकाश्रम चली गयी । वहाँ समुद्र तट पर बैठे हुए वानरगण अपने मन ही मन विचार रहे है कि कुछ भी काम हुआ नहीं । आपस में बातें करते हुए कभी कहते कि बिना सीता की खबर पाये हम सब क्या कर सकते हैं ? अंगद आँखों में आँसू लिये बोले – हमारी तो दोनों प्रकार से मृत्यु निश्चित है । यहाँ सीता की खबर नहीं इसकी चिन्ता और वहाँ जाने पर मारे जायेंगे । चाहते तो रामजी उसी समय मुझे मार डालते जब वे मेरे पिताजी का बध किये थे किन्तु वही राम मुझे बचाने वाले भी हैं । अंगद की करुण वाणी सुन वीर बन्दर क्या करें । अश्रु पूर्ण उनके नेत्र किन्तु मुँह से कोई बचन नहीं । अन्त में सबों ने कहा हम सब बिना सीता का पता लगाये हे अंगद , हम नहीं लौटेंगे । जामवन्त अंगद को दुखी देख कई कथाएँ कहीं । हम सभी बड़े भाग्यवान है कि सदा सगुण ब्रह्म रुपी रामचन्द्र जी के सेवक बने है । भगवान किसी की इच्छा से नहीं , अपनी इच्छा से द्विज , देवता , गौ और पृथ्वी के रक्षार्थ अवतार लिए है । ऐसा जब – जब होता है सभी सगुणोपासक भक्तगण मोक्ष को त्याग सेवा क साथ रहते हैं । इस प्रकार की चर्चा को सुनकर खोह से सम्पाती नाम जटायु का भाई बाहर आया तो भारी संख्या में वानरों के समूह को देखकर बोला बड़ी कृपा से भगवान आज मेरे लिए भर पेट भोजन का उपाय कर भेजा है । यह सुनकर वानरगण तो समझ गये कि अब सबों की मृत्यु निश्चित है तब वानरों को अति भयभीत पाकर तीव्र बुद्धि अंगद ने कहा कितना भग्यशाली जटायु था जो भगवान की इतनी बड़ी सहायता की । भाई का नाम सुन सम्पाती को एक ही साथ हर्ष और शोक दोनों हुआ । वह भयातुर बन्दरों के पास आया । पहले उनका भय दूर किया फिर सब हालत पूछा । सबों ने उसे जानकारी दी । अपने भाई के यश की महिमा का वर्णन करते हुए बन्दरों से कहा कि मुझे समुद्र के किनारे पहुँचाकर मुझसे अपने भाई को विलांजलि दिलवाओं । मैं तुम्हे अपने वचन से जैसे हो पता लगाकर सहायता करूँगा । जटायु का श्राद्ध संस्कार करके अपने और अपने भाई के जीवन की सारी कथा का वर्णन किया । कहा कि हम दोनों भाई बड़े वीर थे । बचपन में ही सूर्य के पास जाने का प्रण साधकर उड़े । जाते – जाते निकट पहुँचने पर अत्यन्त ताप अनुभव कर मेरा भाई तो लौटा किन्तु मै हठ करके आगे बढ़ते रहा । फलतः मेरा पंख जल गया और मैं धरती पर आ गिरा । वहाँ पर चन्द्रमा नाम के एक मुनि ने मेरी करुण पुकार सुनी । दया से द्रवित होकर अपने ज्ञानोपदेश से मेरी देह का कष्ट मिटाया । बताया कि त्रेता युग में भगवान मनुष्य का रुप लेकर अवतरेंगे । उनकी पत्नी को हरण कर राक्षस लेजायेगा उस समय तुम उन्हें खोजकर उसकी खबर उनतक पहुँचाओंगे तो उसी से तुम्हारी मुक्ति होगी । आज उसकी वाणी सच्ची हुयी । मेरी बात सुनकर तुम सब भगवान के कार्य में लग जाओं ।
 त्रिकूट पर्वत पर लंका नगर वसा है । वही पर शंकरहित राक्षस पति रावण रहता है । वही पर अशोक वाटिका में सीता सोच वश पड़ी है । मुझे तो यह सूझ रहा है । तुम्हें नही सूझेगा । मैं बूढ़ा हो चला , नहीतो तुम्हारी और सहायता कर सकता था ।
 जो चार सौ कोस समुद्र लांघेगा , वही बुद्धिमान होगा , वही श्री राम जी का कार्य कर सकेगा । निराश होकर मत घवराओं । मुझे देखकर धीरज रखो । देखो , भगवान की कृपा हुयी तो देखते – देखते मेरा शरीर कैसा स्वस्थ हो गया । पंख बिना बेहाल था , वह पंख भी जम गया ।
 पापी भी जब उनका नाम स्मरण कर अपार भव सागर पार कर जाता है । तुम तो उनके दूत हो , कायरता छोड़ो । उनका ध्यान धर कर काम करो ।
 काक भुशुण्डि जी कहते है कि जब गीध चले तब वानरों के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ । सबों ने अपना – अपना बल अनुमाना और सबों ने समुद्र पार करने में संदेह प्रकट किया । रीछ राज जामवन्त ने अपना हाल सुनाया अब मै बूढ़ा हो गया । शरीर में पहले वाला बल अब नही रहा । जिस समय रामचन्द्र जी बावन रुप में अवतरित हुए थे , उस समय मैं पूर्ण युवावस्था में था । बालि राजा को बांधने के समय जब भगवान अपना शरीर बढ़ाये तो मैने दो घड़ी में ही सात वार उनकी परिक्रमा कर ली थी ।
 अंगद कहा कि मैं उस पार जा सकता हूँ किन्तु लौटने में संकोच लगता है । जामवन्त जी ने कहा कि तुम जा सकते हो , किन्तु सबके नेता हो , इसलिए तुम्हें नही जाना है ।
 तब उन्होंने हनुमान जी से कहा आप बलवान हैं । चुप क्यों बैठे हो ? तुम पवन पुत्र पवन की तरह बलवान और बुद्धि विवेक तथा विज्ञान की खान हो । श्री राम जी के कार्य के लिए ही तुम्हारा अवतार हुआ है । इतना सुनते ही श्री हनुमान जी पर्वताकार हो गये । सोने जैसा रंग और शरीर तेज से सुशोभित हो गया । बार – बार सिंहनाद कर कहना शुरु किया कि मैं इस खारे समुद्र को खेल में लांघ सकता हूँ और सहायकों सहित त्रिकूट पर्वत क उखाड़ कर ला सकता हूँ । हे जामवन्त जी , आप मुझे उचित शिक्षा दें कि मुझे क्या करना है।
 हे तात ! तुम इतना ही मात्र वहाँ जाकर सीता जी का पता लगाकर लौट जाओ और उनको खबर दो । भगवान राम स्वयं वहाँ जाकर अपने ही बाहुबल से राक्षसो का संहार कर सीताजी को ले आयेंगे । बानरी सेना तो वे मात्र दिखाने के लिए ही ले जायेंगे ।

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