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चिकित्सा तत्त्व


जैविक सृष्टि में देह और प्राण दो ऐसे विषय सामने दिखते है जिनका पोषण और क्रियान्वयन ही जीवन की संज्ञा बनती है और उस जीवनावधि को हम आयु कहते है ।
 सृष्टि के कार्य विन्यास और जीवन काल का संबंध स्वास्थ्य पर निर्भर करता है । स्वास्थ्य अथवा प्राण का स्थायित्व उस तेज ( ऊर्जा ) ही जीवन की संज्ञा बनती है और उस जीवनावधि को हम आयु कहते है ।
 सृष्टि क कार्य विन्यास और जीवन काल का संबंध स्वास्थ्य पर निर्भर करता है । स्वास्थ्य अथवा प्राण का स्थायित्व उस तेज ( ऊर्जा ) की अपेक्षा रखता है जो हमें आहार से प्राप्त होती है और संयम से संरक्षित पायी जाती है । संयम जो प्रकृति का साथ पाकर जीवन को दिशा देता है वही स्वस्थ जीवन कहलाता है । विपरीत दिशा पाकर जीवन में अस्वाभाविक गतिविधियाँ स्वास्थ्य नष्ट कर प्राण पर संकट लाती है । उस अस्वस्थता का निराकरण कर प्राण रक्षा की प्रक्रिया ही चिकित्सा तत्त्व है ।
 हमने जिस संयम शब्द को यहाँ स्थान दिया है वह एक महत्त्वपूर्ण रहस्य है । देह का उपयोग हम यंत्रवत करते है । आहार पौष्टिक एवं संतुलित होना चाहिए । आहार उर्जा का स्त्रोत है । प्राकृतिक आहार का सात्त्विक सपाच्य , काल , मात्रा और योग सम्यक ( हीन और अति मात्रक नही ) होना ही संयम कहलाता है । इसके अतिरिक्त आराम , निद्रा और ब्रह्मचर्य का पालन ही देह और प्राण की यथा स्थिति बनाये रखने में अर्थात स्वस्थता मूल रहस्य है । यही जीवन का भौतिक आधार है । इसके परे हम असवस्थ या रुग्न कहे जाते है ।
 अपरंच , जीवन में सात्विकता , शुचिता मन , शरीर और हृदय , यानी मनसा , वाचा कर्मणा सदाचारी जीवन जीना भी स्वस्थता का मूल मंत्र है । अपितु , जीवन को विपरीत दिशा देना ” स्व ” का अहित अर्थात प्राण और देह का विच्छेद ( मृत्यु ) ही सम्भावित है । उपरोक्त भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनो ही आधार असंतुलन की स्थिति पा ले तो जीवन में सदा संकटापन्न स्थिति रहेगी , वेद वाक्य है ।
 दुर्वासना मम सदा पर्रिकर्षयन्ति , चितशरीरंमपि रोग गणाः दहन्ति ।
 सजीवनं च परहस्त गतं सदैव , तस्मात्तत्वमेव शरणं हे दीन बन्धु ।।
 भावार्थ : बुरी वासनाएँ हमारे मन को सताती है , हृदय एवं शरीर को रोगों के समूह जलाते है । ऐसी दशा में ( सदाचार खोकर ) रोग की दवा पर हमारा वश ( संयम के अभाव में ) न रहने अर्थात दूसरे पर निर्भर रहने के कारण हम सदा अस्वस्थता के शिकार होने की स्थिति म है । भगवन ! तुम्हारी ही शरण एक मात्र सहारा है ।
 आज वही समय सामने आकर बोल रहा है , हम सहारा ( दवा और उपचार ) खो चुके , ऐसी स्थिति में संयम को ही मात्र सहारा माने या इश्वर की शरण ( मृत्यु ) ही संवरणीय है । यहाँ एक नूतन भाव अपनाना अपेक्षित लगता है । पुनः वेद कहता है :-
 नो सोदरो न जनको न जननी न जाया , नैवा त्मजो न च कुलं विपुलं बलंवा ।
 संदृश्यते किल को $ पति सहायकोमे , तस्मात्त्वमेव शरणं हे ! मम दीन बधो ।।
 भावाथ : न भाई , नपिता , न माँ , न पत्नी न अपने पुत्र न पुत्रियाँ ही , न फुल वाले , न पड़ोसी न संबंधी अपार सम्पत्ति , न बल ही , जैसा इस कोरोना संकट में दिखा कि कोई भी साथ नही दिया तो मरने के बाद या संक्रमण की स्थिति में जहाँ के तहाँ शव पड़े दुर्दशा झेलते पाये गये । इस देह और प्राण की असीम सत्ता में भी हम इसकी महत्ता खोकर तुम्हारी ही शरण में जैसे – तैसे पाये गये । ऐसी है निस्सारता इस शरीर की । हमारा देश गर्व से कहा कि हमने कोरोना की जंग जीत ली । विश्व का विशाल शक्तिशाली राष्ट्र अमेरिका ने जब अपनी वैक्सिन का समुचित पयोग कर अपने को सुरक्षित और संक्रमण मुक्त पा लिया , जो काफी क्षति उठाया था , कहा कि अब हम सुरक्षित है , हमे अब मास्क लगाने की कोई जरुरत नही । आज वही बोल रहे है कि हमने मास्क लगाना छोड़ा तो फिर परेशानी झेलनी पड़ रही ।
 मानना पड़ेगा कि ज्ञान कर्म और भक्ति ही जीवन की सुगति , सुमति और स्थिति का प्रदाता है । हृदय का दरवाजा खोलिए , मानस में शुचिता लाइए । प्रकृति का साथ न छोड़िए , संयम बरतिये । यही चिकित्सा का मूल मंत्र है । न विज्ञान न राजनीति न संस्कृति का गीत गायन काम देगा । प्रेम और त्याग ही सच्चा सम्बल है ।
 चिकित्सा जगत जो कोरोना के योद्धा बने है , उनकी सफलता संदिग्ध है । सेवा को व्यवसाय बनाया । आज क्वारेन्टाइन क्षेत्र से ही मृतक निकलते है , कोरोना से से नही , घरा से नही निकलते । चिकित्सक मास्क लगाकर , सेनेटाइजर अपनाकर , दूरी बनाकर घरों में बन्द , नेपथ्य से रोगी देखा करते है तो वे क्यों मरते है ? वह जनता कोरोना का योद्धा है जो निर्भीक , लाचार और अभाव ग्रस्त रहकर सुरक्षित है ।
 विज्ञान आकाश का बादल है जो दीखता अवश्य है , किन्तु बूंद के लिए दुनियाँ टकटकी लगाए रहती है तो कभी बाढ़ की विभीषिका में विनाश का आलिंगन करतो है । मृतक गाँवों

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