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रोगी, डाक्टर, रोग और चिकित्सा

डा. जी. भक्त

मेरे एक पड़ोसी मित्र बड़े हँसमुख , मजाकिया किन्तु तीव्र बुद्धि के जिज्ञासु व्यक्ति हैं । किसी विषय पर तर्कपूर्ण चर्चा के प्रखर मर्मज्ञ हैं । कल संध्या सात बजे रोगी क्लिनिक से छँट चुके थे , तत्क्षण प्रवेश कर अभिवादन कर बैठ गये । कुशल क्षेम सम्बाद के पश्चात उन्होंने एक ऐसी चर्चा छेड़ी , जिसका हल कुछ घंटो में हो सकता था । समय तो था किन्तु नास्ता का समय था । तस्त क्लिनिक में ही व्यवस्था हो गयी । उनके दो साथी भी थें हम तीनों इस विधान में जुटे और मैंने उनसे पूछा- मित्र आज का फरियाद क्या है ?

उन्होंने फरमाया- उनका कथन इस प्रकार था कि मै दूर देश में जाकर सम्मेलनों समिनारों में विश्व स्तर के चिकित्सकों से मिला अपना विषय रखा , दूसरों से सुना आप स्वंय भी अध्ययन शील , जानकार और अनुभवी है । मैं देखता हूँ सुनता भी हूँ कि चिकित्सा के क्षेत्र में बड़ी – बड़ी उपलब्धियाँ देखी जा रही हैं । असाध्य मारात्मक रोगों से छुटकारा पाता हैं जिन्हें जीवन में बार – बार कठिन से कठिन रोग परेशान करते है उनका भी निदान हो जाता हैं । सर्जरी द्वारा कठिन प्रकार की विकृतियों में सुधार लाकर जिन्दगी लौटायी जाती है , वहाँ पर मुझे अभी आपसे जानने की इच्छा हुयी कि दुनिया में ऐसा कोई चिकित्सक किसी भी पेथी का आयु बढ़ा कर सौ – दो सौ पाँच सौ वर्ष का जीवन जीने का कीर्त्तिमान चिकित्सा से अबतक कर पाया अथवा नहीं । इसके सम्बन्ध अगर आप जानकारी रखते है तो मुझे बताकर सन्तुष्ट करें ।

मैने कहा- अच्छी बात रखी आपने यह विषय चिकित्सा का नहीं है । अगर हो भी सकता है तो अबतक चिकित्सा जगत में आयु विस्तार पर सुनियोजित खोज या प्रयोग नहीं हुआ है । प्रकृति में जीव और वनस्पति में आयु की सीमा हैं । उस सीमा का अर्थ यह होता है कि जीव का शरीर यंत्र वत कार्य करता है । कार्य शीलता को जीवन कहते है । कार्य शुन्यता अर्थात प्राणान्त या मृत्यु शरीर से जीवन जैसी गत्यात्मकता या बोधगम्यता का पूर्ण अभाव , शरीर से प्राण का विच्छेद कहा जाता है । अगर रोग या दुर्घटना इस विच्छेद का कारण न बने , उस स्थिति में शरीर के तन्तुओं का क्षय या निष्क्रियता क्रमशः आती है जिसका कारण बार्द्धक्य , बुढ़ापा , निधारित जीवन क्षमता से अधिक आयु पहुँचते – पहुंचते शरीर के तन्तु कार्य करना छोड़ देते है । उस क्षण मृत्यु हो जाती है । जिसे आयु की समाप्ति माने लेते हैं ।

इस आयु के विस्तार या दीर्घ जीवन की प्राप्ति पर मानव चिन्तन की ज्ञान सम्पदा में यह विषय आया हैं । आयुर्वेद में रसायन औषधि का वर्णन हैं । महात्मा बुद्ध ने रोग , बुढ़ापा और मृत्यु पर शोध के लिए गृह का त्याग कर तपस्या की थी । किन्तु वे मध्यम मार्ग पर आकर स्थिर हो गये , सभ्यक जीवन जीना , जिसका अर्थ हुआ प्राकृतिक अवस्था को आवश्यकतानु कूल वरतना ( कर्म करना ) आहार , निद्रा और ब्रहाचर्य पर सम्यक साधन किया जाय तो प्रकृति द्वारा निर्धारित पूर्णायु जीवन भोग सभ्भव है । ………… फिर भी आज के बुद्ध सम्प्रदाय के अधिकारी भी इसके प्रमाण नहीं दीखते । श्रीमान नायराण दत्त श्रीमाली ने कही यह बात प्रकाशित की है कि हिमालय के क्षेत्र या तिवत में ऐसे सन्त है जो पाँच सौ वर्ष की आयु के बताये जाते हैं ।

योग क्रिया के अभ्यासी योगी , तपस्वी मुनियों की आयु के सम्बन्ध में जीवन मुक्त या ब्रह्मलोन योगियों द्वारा ऐसी सिद्धि मिल पाने की सम्भावना ठकड़ायी नहीं जा सकती । हमने आध्यात्मिक साघको द्वारा लिखित पुस्तकों में इसका आख्यान पाया हैं । रही चिकित्सा शास्त के चिकित्सा विषयक सिद्धान्त पर खुलाशा , ऐसा सामने आता है कि सदा स्वस्थ जीवन निर्वाह करने एवं जीवन रक्षा अर्थात रोग से बचने और रूग्न होने पर पुनः स्वास्थ्य लौटाने हेतु चिकित्सा विधान अपनाने का प्रचलन आदिकाल से आ रहा हैं । आपके प्रश्न के सार रूप में यह कहा जा सकता है कि रोज और आकष्मिक दुर्घटनाएँ शरीर के संस्थानों की क्रिया विकृति , तन्तुओं के क्षय और रस , रक्त एवं वीर्य के क्षरण मानसिक अवसाद , मन के आवेग से स्नायु के तनाव तथा जल्दी बुढ़ापा आना आयु का क्षय के साथ शरीर को निर्वल बनाते है । क्षुधा , पिपासा , क्रिया – कलाप , मन और शरीर की अक्षमता से एक दिन मृत्यु को स्वीकरना पड़ता है ।

व्यक्तिगत जीवन में व्यतिक्रम आने , दुव्यसन अपनाने स्वास्थ्य नियमों को नही अपनाने , नकारात्मक जीवन यापन , रहन – सहन कुसंयम , अल्प , अति और विषम आहार बिहार से रोगोत्पत्ति होती हैं । सभ्यक योग से शरीर की स्वस्थता एक – सी बनी रहती है । इस नियम के अपनाने से निरोगता के साथ दीर्घ जीवन की प्राप्ति अवश्यंभावी है ।

चिकित्सा रोग की होती है । रोग के लक्षण होते है , जो दृश्य भी है और अनुभवगम्य है । एक को सुना समझा जाता है जो रोगी या उसके घर वाले बतलाते है । डाक्टर अपनी आँखों से देखते है । उसी प्रकार देख सुन और समझकर अनुभवी चिकित्सक रोग का निदान और समुचित दवा का उपाचार करते तथा आरोग्य लाभ कराते हैं । विश्व में चिकित्सा पद्धतिया अनेक है । उनके सिद्धान्त और चिकित्सा विधान तथा प्रचलन अलग – अलग है । कोई शामक है तो कोई निवारक है । रोग निवारण ही आरोग्य है । लेकिन रोग का समपूर्ण निवारण आवश्यक है । रोग के कारण सहित आरोग्यता प्राप्त करना लभ्वी क्रिया है । रोगी के अन्दर शरीर और मन दोनों की अस्वाभविकताएँ जब स्वाभाविक रूप से लौट जाये और रोगी अपनी पूर्वावस्था में आ जाये तो उसे हम स्वस्थ तो कहेंगे किन्तु वे आरोग्य नही भी हो सकते है ।

आरोग्यता का मुख्य और सही भाव है शरीर उस रोगोत्पति का कारण सहित दोषों और विकारों का सदा के लिए मिट जाना । पुनराक्रनण न होना , उसके सन्तान में भी उसका संक्रमण न हो । ऐसी प्रद्धति होमियोपैथ है किन्तु आरोग्य के लक्ष्य तक की पहुँच न होने पर रोग निवारण आंशिक ही रह पायेगा । टाटल क्योर ( सम्पूर्ण आरोग्य ) मानना गलत ही होगा । एलोपैथिक पद्धति रोग शामक है । उसकी दवाये दूरस्थ प्रभाव दुष्परिणाम लाते है । आरोग्यता उसमें फलित नहीं होती । आयुर्वेद में यह पूर्ण सम्भव था लेकिन आज वह कमजोर पड़ा है । अन्य कही व्यावहारिक कारण है चिकित्सा के क्षेत्र में जिन्हें सुधारना कठिन है । चिकित्सा के चार मुख्य तत्त्व रोगी , रोग , डांक्टर और चिकित्सा विधान ।

  1. रोगी अगर अपना लक्षण स्पष्ट नहीं करता तो दवा उचित नहीं सोची जा सकती ।
  2. रोगी की पहचान भी तब तक नहीं हो सकती जब तक रोगी अपने रोज का सही – सही आख्यान प्रस्तुत नही कर पाता तो फिर किस चीज की चिकित्सा हो पायेगी ।
  3. चिकित्सक चिकित्सा विज्ञान का व्यावहारिक ज्ञान और अनुभव रखता हो । वह मानवता का सच्चा सेबक हो व्यावसायिक नही ।
  4. चिकित्सा विज्ञान है , उसे चिकित्सा तत्त्व और दवा का सही ज्ञान होने के साथ दवा का प्रयोग में वह पारागत हो तब उसकी चिकित्सा फलवती होगी । मूलतः आयु विस्तार की जगह जब जीवन पर से खतरा का निवारण न होगा तो दीर्घता की आशा तो सपना है ।

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