Thu. Apr 18th, 2024

जीवन एवं जगत का रहस्यपूर्ण तारतम्य – देखें चिकित्सा जगत का खेल कोरोना दे रहा संदेश ।

  डा ० जी ० भक्त

 आरंभिक काल में सृष्टि का प्रकटीकरण कोई लक्ष्य या संकल्प लेकर नहीं उतरा था . ऐसा विचार में आया । शायद सृष्टिकर्ता इसका प्रारम्भ प्रयोगात्मक रुप में किया था कि इससे क्या प्रतिफलित होता है , यह जाना जाय । सम्भवतः इस प्रयोग में जीव और वनस्पति जैसे उपादान सृष्टि के विधान में क्रमागत कर्म का प्रयास चलता रहा और उत्तरोत्तर विकास में महत्त्व पूर्ण परिवर्तन देखे जाते रहे जिसमें प्रकृति की भूमिका प्रतिफलित पायी गयी और विकास की दिशा का भी निर्धारण देखा गया । फलतः यह मानवी सृष्टि में चेतना और अभिव्यक्ति दोनों ही प्रस्फुट रुप में काम करने लगी जिसका स्पष्ट उदाहरण आज हमारी सभ्यता और संस्कृति हमारे समक्ष खड़ी है ।

 जैसा ग्रंथें में वर्णित है या सामाजिक मान्यता है कि हम और हमारा परिवेश ये दो कारक बने है । यह भी प्रमाणिक लगता है कि हमारा परिवेश जो हमारे ईद – गिर्द विखड़ा फैला दिखता है , हमारी दृष्टि की सीमा में है , वह सर्वत्र ( हमारी दृष्टि सीमा के बाहर ) स्वधर्मी सत्ता के रुप में व्यवस्थित है , कार्य कर रही है जिसे हम घटित होते पाते हैं , हम उसी की इकाई हैं । हमारा कार्य कलाप उसी परिवेश के साथ है जिसे हमने प्रकृति बताई है ।

 प्रकृति को हम परिभाषित करेंगे तो हमें समस्त दृश्य जगत को , जिसमें जड़ – चेतन रुप में प्राप्त सारे उपादान , जीवन , वनस्पति , वन , पवर्त , नदियों , सागर , वातावरण , लहराती हवा . उड़ते पक्षी , आकाशीय पिड , प्रकाश , उल्का , आकाश गंगा , ग्रह , नक्षत्र सहित सूर्य और चन्द्रमा , दैनिक घटती घटनाओं के परिदृश्य , शीत , वर्षा और उष्मा , जीवों का भ्रमण , पौधों का विकास , जीवनीय क्रिया , श्वास और प्रजनन , भोजन , संचरण , सोच , भाव , प्रतिक्रिया , जीवन ( जन्म ) और मृत्यु , सुख – दुख के अनुभव आदि आते हैं ।

 जबतक मानव अपनी चेतना को प्राकृतिक घटनाओं के अवलोकन – निरीक्षण और प्रत्यक्षीकरण में जुड़कर चलता रहा . अनुभूतियों एकत्र करता रहा . सूचनाएँ एकत्र कर उसपर सोचता विचारता एक अपूर्व मानसिक प्रक्रिया विकसित की , मूल्यांकन किया , तदनुरुप प्रयोग की परंपरा चली और मानव के ज्ञान – विज्ञान और कर्म विधान की यात्रा शुरु हो गयी । ये बातें तो सीधे समझ में आ जाने वाली है . किन्तु यह प्रश्न खड़ा करना कि किसमें यह सृष्टि की और वह कौन और कैसा था , आदि का विचार हमे मार्ग से विचलित कर विकास के मार्ग में व्यवधान डालता है । इस पर चिन्तन आगे किया जाय ।

 इस प्रकार विकास की कहानी अनोखी , आश्चर्य में डालने वाली , अनन्त और अपार है । इसने बड़ी लम्बी दूरी तय कर ली है । इसके बीच अनन्त आपतित घटनाएँ , विकराल रुप में दहलाने वाली , कष्ट में डालने वाली . आश्चर्य चकित करने वाली , भयानक किन्तु ज्ञान को मजबूती दिलाने वाली सीख सामने आकर , साहस , सहनशीलता . निर्भीकता , परिपक्वता . तत्परता , प्रगाढ़ता से विभूषित की । हमनें दुनियाँ को नये स्वरुप में ढालाहम विकसित कहलायें । समृद्धि पाये तो संयमित . सदाचारी , न रह पाये । बौद्धिक क्षमता बढ़ी तो विवेक से काम न ले पाये । सुख और आराम की सुधा , व्यसनी बना दी । हम प्राकृतिक न रहकर भौतिकवादी बने , प्रकृति के प्रवाह के विपरीत जीवन जीना प्रारंभ किये जिससे जीवन को नकारात्मक दिशा तो मिलनी ही थी । रोग , उपचार , निदान , संयम , व्यय , कौशल में कभी , कर्ज , कष्ट , और विकास में हास दिखने लगा ।

 अब जो हम दिशा पा लिये . दर्द जो अर्जित कर लिए . हम जितने पीछे पड़े , उसमें आज सुधार की अपेक्षा की जा रही है । परिवर्तन नितान्त जरुरी है जिसे सकारात्मक दिशा मिल पायें । इन परिस्थितियों में विचारधाराओं , प्रयत्नों , निदानों पर विवेक पूर्ण चिंतन भी जो प्रकृति की मूल धारा को विकृति न पहुँचायें । आज की शिक्षा और सोच भौतिवादी है किन्तु जीवन की धारा को प्रकृति से ही पोषण मिलता है । हमारे भौतिक उपादान प्रदूषण देते है पोषण नहीं । अतः कर्म और ज्ञान को प्राकृतिक दिशा से दूर करके विचारने एवं प्रयोग में लाने से सृष्टि पर अवश्यभ्यावी खतरे की आहट सुनाई पड़ती है ।

 यही विषय आज समाज के सामने पूरे विश्व को प्रभावित कर रखा है । हम चितित हैं । किंकर्त्तव्य विमूढ हैं । विचलित होकर भटक रहे हैं । हमारे संसाधन शुद्ध नहीं , कर्म में शुचिता नहीं समाधान की जड़ में आर्थिक चिन्ता प्रभावित कर गुणवता एवं सेवा में संकीर्णता के भाव अपेक्षित लाभ नहीं दिला पा रहे । कठिन समस्या खड़ी हो गयी । हम से आर्थिक विषमता सुधारने , प्रदूषण दूर करने , स्वस्थ संसार सृजन करने , रुग्नता पर विजय नहीं तो अपेक्षित कमी का प्रयास सफल होना चाहिए ।

 जो हमारी विकास की गति , सोच की शुचिता , मानसिक चेष्टाएं मिटाने और सकारात्मक जीवन जीने का मार्ग अपनाने में विश्व की मानव शक्ति को एक मार्ग पर उतरने का ठोस कदम विकसित करने की पहल शुरु होनी चाहिए , लेकिन हमारी दृष्टि सीमा पर है अंतरिक्ष पर है । जनशक्ति के उपयोग पर नहीं , प्रेम और सद्भाव पर नहीं । रडार , टैंक और राफेल हमें अपनी ओर खीच रहा है । देखा न कोरोना से कराहती दुनियों को दुर्दशा झेलते छोड़ हम कूटनीति पर उतर गये । चिकित्सा औ बचाव से मुहमोड घुटने टेक दिये । वैक्सिन ( टीका ) के आने की सम्भावना में हम अचेत पड़े मूभिगत होते जा रहे । राह ताक रहे । अवसर बीतता जा  रहा।

 कभी चेचक तो कभी , हैजा , प्लेग , कालाआजार , टीव्यी ० और क्या – क्या न आये , उपचार हुआ चले गये पर कमजोर पड़े । चिकित्सा क्षेत्र का विस्तार हुआ । नवीन चिकित्सा पद्धति के दो प्रवर्तक हिप्पो कैट और गैलेन क्रमशः ईसा के 460 वर्ष तथा 160 वर्ष पूर्व आये । परवत्ती डा ० गैलेन के प्रकृति विरोधी विधान ( Contrary method ) से एलोपैथिक चिकित्सा काम कर रोगों के तात्कालिक लक्षण मिटाकर बहादुरी हाशिल कर ली किन्तु रोग ने जो हमारे

शरीर के तन्तुओं को प्रभावित किया उसे मिटा न पायें और रोग शरीर से नही मिट पाये , गौण रुप में शरीर में रोग बीज बनकर अगली पीढ़ी तक को प्रभावित कर रहा है । उसे चिकित्सक भली प्रकार से जान रहे हैं ।

 आज चिकित्सा जगत समृद्ध है । सबकुछ है । लेकिन रोग सार्वजनिक हो गया । आरोग्यता नही फल रही । रोग दिन प्रतिदिन जटिल हो रहे । रोगी के परिवारों की सारी कमाई सम्पति और कर्ज की राशि समाप्त होने के बाद मानव असाध्य घोषित होकर , विकलांगता बना परिवार का बोझ बना , आज भी दवा का गुलाम बनकर जी रहा है । दवाओं के दुष्परिणाम का जायजा लेना मानवता का काम रहा । तब तो विश्व के कोने – कोने से आवाज आयी कि कोरोना के लिए न चिकित्सा की दवा है न रोक थाम के लिए वैक्सिन , इतना बड़ा सच । दुनियाँ का सिर झुक गया । ग्रहों पर पाँव रखकर शक्तिशाली राष्ट्र क्या शोच अपना रहे है ? यह विश्व की आत्माएँ सोच रही होगी ।

 उसी दुनियाँ में पश्चिम जर्मनी में जन्मे थे होमियोपैथी के जन्मदाता हैनिमैन 1755 की 10 अप्रील को । उसी पैथी के ( Allopathy ) प्रकाण्ड चिकित्सक हुए । उनकी दृष्टि में यह पैथी अनुपयुक्त लगी । आरोग्यदायिनी नहीं , सिर्फ रोग को दवाने वाली साबित हुयी । उन्होंने चिकित्सा कार्य छोड़कर 15 वर्षों तक शोध कार्य किया । अन्ततः उनके प्रयास से आरोग्य का विधान खोजा जा सका । उनका सिद्धान्त बना Similia Similiburs Curantur ( Like is cured by like ) गैलेन का सिद्धान्त रहा ( Contraria Contraries ) विपरीत चिकित्सा पद्धति रोग को विपरीत दिशा देती हैं , यह हुआ अर्थ एलोपैथी का । Antagomistic Medicine जो दवा रोग को शरीर से विदा न कर शरीर में ही दबाकर छोड़ दे , जैसा कि उपचार के बाद आराम पाये रोगी पर पुनः रोग का आक्रमण साबित करता है कि रोग समूल शरीर को नहीं छोड़ पाया । यह भी हुआ कि उसके दवाये जाने पर विकृत रुप में या अन्य रोगों से जुड़कर नये ( कम्पलेक्स ) पाये गये । होमियोपैथी का सिद्धान्त है कि जो दवा स्वस्थ शरीर पर जैसा अस्वाभाविक लक्षण उत्पन्न करे , वही दवा वैसे लक्षणों वाले रोग का पूर्णतः आरोग्य दिला सकेगा । अर्थात रोगोत्पादक क्षमता रखने वाली दवा ही रोग निवारक दवा होगी । यह सिद्धान्त हर औषधीय पदार्थ में प्राकृतिक रुप से पाया जाता है । इस हेतु होमियोपैथिक चिकित्सा से आरोग्य रोगी को नेचुरली क्योर्ड माना जाता है । हनिमैन का अनुभव ऐसे सिद्धान्त yfte :- Rapid , gentle and permanent restoration of symptoms को cure मानता है ।

 Total annihilation of morbid symptoms , erradication of physical and mental discom forts and obliteration of morbid signs in whole extent is physicians mission .

 A homoeopathic physicians is a minute observer to find each and everycause of disconfort expressed in symptom narrated and signs of morbid phenomena observed in patients .

 More over a homoeopathic physician is not only a minute observer , but a preserver of health , He knows what is curable in this patient in hand and what is curative in our medicines . For this fact homoeopathiye midicines are provied on human beings not on lower being like allopathy .

 This pathy in the latest inveation or discovaryof a curative system of medicine based on trail and sound natures law .

 “ विषस्य विषमौषधम् । ” It has all the possiblities of maintaing health and making capable of leadinalife of better prospeer for higher purposes of human existence in human concerned too . And so , with epidemies or pandemic cases to control and cure .

 There is no doubt as our experience detcils even after the used vaceines which invada the peoprlee with incurable surgical complaints , only homoeopathy rules out and cures them .

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