Mon. Apr 15th, 2024

प्रभाग-30 छठा सोपान लंका काण्ड रामचरितमानस

जब रावण सुना कि आते समय ही अंगद ने उसके पुत्र को मार डाला था , तब उसका हृदय अत्यन्त दुखी हुआ । दूसरी ओर वह अंगद से तो अपमानित हो चुका था । संध्या होने पर वह विलखते हुए अपने रनिवास में जाकर बैठा । मंदोदरी उसे समझाने लगी ।

हे प्रिये ! आप कैसे उनसे युद्ध जीत पाइएगा , जिनका दूत यहाँ आकर ऐसा कार्य कर गया । उनके ही सेवकों ने समुद्र को बाँधकर निर्भय लंका पर चढ़ाई कर दी । आपके रक्षकों को मार कर वाटिका को उजाड़ डाला । आपके देखते ही पुत्र अक्षय कुमार को मार पूरे लंका नगर को जलाकर राख कर दिया । वहाँ पर आपकी वीरता का गर्व कहाँ रहा । अब आप झूठी बकवाद बन्द कीजिए । मैं जो कहूँ उसे थोड़ा भी तो हृदय में विचार कीजिए । हे पति ! उन्हें आप सीधे राजाहीन मानिये , वे तो जगन्नाथ हैं । उन्हें अतुलित बल है । उनके वाण का प्रभाव मारीच जानता था उसने भी समझाया किन्तु आप नहीं माने राजा जनक के धनुष यज्ञ में असंख्य राजाओं के बीच में आप महान वीर माने जाते थे तो उसमें भी उन्होंने ही धनुष खंडित कर सीता से विवाह किया , आप क्यों न जीत पाये ? राजा इन्द्र का पुत्र जयन्त भी थोड़ा उनके बल को जानता था , जिसकी एक आँख फोड़ कर जान बचा दी । आपने तो अपनी बहन सूर्पनखा की हालत भी देखी है फिर भी लज्जा नहीं आती । विराध ओर खरदूषण को मारा और खेल ही में कबन्ध का भी बध किया हे दसशीश ! आपको तो पता है कि एक ही वाण में बालि मारा गया।

जब वे समुद्र पर सेतु तैयार कर लंका पर सुवेल पर्वत पर आ गये । सूर्य वंशी वीर राम अत्यन्त दयालु हैं । आपका ही हित समझकर उन्होंने अंगद को दूत बनाकर भेजा था । जिसने भरी सभा में आपके बल को चुनौती दी , जैसे हाथियों के बीच एक शेर हो वह अंगद और हनुमान जिसके सेवक है , वे कितने बांके वीर है । उन्हें आप बार – बार मनुष्य कहते हैं ? रामजी का विरोध आप काल के वश में आकर विवेक खो बैठे । आप तो बेकार मान , ममता और मद में बह रहे हैं । वह काल अपन हाथ में डंडा लेकर जिसे मारा , उसका धर्म , बल , बुद्धि और विचार सब कुछ मारा गया । काल जिसके नजदीक आ पहुँचता है उसे आपके ही समान स्थिति होती है । जहाँ दो पुत्रों की मृत्यु हो चुकी , नगर जल गया आज भी आपको उसकी चिन्ता नहीं । उस कृपा सागर राम को स्मरण कर निर्मल यश प्राप्त कीजिए ।

अपनी स्त्री की बातें सुनकर वाण के वेग से रावण राज सभा में सबेरा होते ही पहुँचा । सारा भय भुलाकर सिंहासन पर जा घमंड से बैठ गया । उसी समय अपने सैन्य शिविर में भगवान राचन्द्र जी न अंगद को बुलाकर रावण के उन चार मुकटों के शिविर में आने के संबंध में सारी जानकारी पूछी । अंगद ने विनय पूर्वक बताया कि यह मुकुट नहीं , राजा के धर्म नीति के ये चार सोपान है शाम , दाम , दण्ड और भेद । राजाओं में इन चारों पाया गया । इस हेतु ये चारों भागकर आपके पास पहुँच गये । अंगद के ये स्पष्टीकरण अति गूढ़ और मनोरंजक रहे । श्री भगवान सुनकर हर्षित हुए । बालिपुत्र भी इसे सुन्दर रचना माने । अपने शत्रु रावण के बारे में पूरी सूचना पाकर भगवान ने मंत्रियों को बुलाकर विचार लिया कि लंका के दुर्ग के चार दरवाजों का घेरने के लिए क्या तैयारी की जाय सुनते ही अलग – अलग सेनापति नियुक्त कर सैन्य समूह को पूरी शिक्षा देकर तैयार किया गया । सारे के सारे वीर बन्दर भालुओं का समूह योद्धा के रुप में पहाड़ और वृक्ष को हाथ में लिए हुए अपने ही मुँह से बहुत प्रकार की रण – भेरी बजाते और रामजी , लक्ष्मण जी , अंगद और सुग्रीव जी की जय जयकार करते हुए चारों ओर से दुर्ग को घेर लिए । उन बन्दर भालुओं की वीरता की सीमा नहीं ।

अब तो लंका में कोलाहल मच गया अत्यंत अहंकारी राजा रावण भी सुना और हँसकर बोला देखा इन वानरों की दिठाई । यह बानरी सेना काल के वश में है । ठहाका मारकर हँसते हुए बोला चलो , घर बैठे ब्रह्मा ने अहार भेज दिया । जाओं वीरों , बन्दर भालुओं को पकड़ – पकड़कर खाओ । शंकर जी ने पार्वती जी से कहा कि जरा रावण का घमंड तो देखिये , शायद वह इन्हें टिड्डियों का समूह समझ लिया है । बड़ी संख्या में राक्षसगण तरह – तरह के युद्धक औजार लेकर दौड़ पड़े । लगता था जैसे लाल पहाड़ को मांस का ढेर समझ मूर्ख गीध उस पर चोंच मारते और टूट जाने पर भी उसकी परवाह नहीं करते है । उसी प्रकार राक्षस दौड़ रहे हैं । करोड़ों की संख्या में दुर्ग पर वीर राक्षस सुशोभित हो रहे हैं जैसे पहाड़ों पर बादल छाये हों । युद्ध के बाजे बज रहे हैं । इससे वीरों का उत्साह बढ़ रहा है तो कायरों का हृदय दरक रहा है । वानरों का झुण्ड देखते ही बनता है , वैसे ही भालुओं के सुभट वीर । वे जब दौड़ते है तो उँचा नीचा कुछ भी नहीं विचारते । पहाड़ों को तोड़ मार्ग बना लेते हैं । दाँतों को पीस कर गरजते है और दातों से ओठ दवाकर हल्ला करते हैं । एक दल रावण का तो दूसरा दल राम की दुहाई देता है । राक्षस जब पहाड़ों का शिखर ढ़ाहकर फेंकते हैं तो कपिगण उठे पकड़ कर उन्ही पर फेंक डालते है । कभी पत्थर के भारी खंड को भालू उनकी गढ़ पर फेंकतें है तो कभी राक्षसों को पकड़ कर झट – पट नचा कर पटक डालते हैं ।

रामजी के प्रताप बल से वानरों को समूह राक्षसों के योद्धाओं को घायल कर देते हैं और किले पर यत्र तत्र चढ़कर भगवान की जयकार मनाते हैं । राक्षसों के समूह वैसे भाग पराये जैसे हवा के वेग से बादल पलायन कर जाते हैं । पूरे नगर में हाहाकार मच गया । स्त्रियाँ और बच्चे विलाप करने लगे । सभी रावण को गालियाँ देने लगे । अपने दल की सेना को भागते देख वह उसे लौटाते हुए धमकाया कि जो युद्ध से विमुख होगा उस मैं स्वयं तलवार से काट दूंगा । हर प्रकार का भोग करके अब प्राण प्रिय लग रहा है । ऐसी कठोर बात सुनकर सभी डर गये । आमने – सामने लड़ने में वीर की शोभा है । ऐसा जानकर सबके प्राण का लोभ मिटा । हर प्रकार के आयुध का प्रयोग कर परिध और त्रिशूल से वानर भालू तबाह हो गये । शंकर जी ने पार्वती जी को समझाया कि यद्यपि ये भय से भाग रहे हैं किन्तु जीत उन्हीं की होगी ।

सभी अंगद , हनुमान , नील , नल आदि बलवान बन्दरों को पुकारने लगे जो पश्चिमी द्वार पर मेघनाथ से लड़ रहे थे । दरवाजा टूट ही न रहा था । इससे पवन पुत्र को बड़ा क्रोध आया । वे जोर से गरज कर लंका गढ़ पर चढ़ गये । मेघनाथ पर्वत शिखरों पर दौड़ा फिर रहा था- रथ टूट गया । सारथि भाग पराया । रावण के दूसरे पुत्र को व्याकुल देखा । अंगद को जब पता चला कि हनुमान अकेले उसके साथ हैं तो वे भी गढ़ पर चढ़कर युद्ध के विरुद्ध दोनों ने अपने मन में भगवान के प्रताप का स्मरण किया । राम जी की दुहाई मनाते हुए दोनों रावण के घर पर चढ़ गये । कलश सहित उस भवन को ढ़ाह गिराया । तब रावण को बड़ा भया लगा । स्त्रियाँ तो छाती – पीट – पीट कर रोती थी । कहती थी कि अब ये दोनों उत्पाती बन्दर आ गये । दोनों ही कपिलीला करके डरा रहे थे और रामजी का गुणगान करते थे । फिर सोने के खम्भ को हाथ से पकड़ कर क्यो न उत्पात मचाया जाय । एक बार गरजकर शत्रु के खेमें में जाकर चारों हाथों से प्रहार करने लगे कोई लात मारता था तो कोई उसे पकड़ कर नचाता था . भला राम विमुख होने की क्या सजा हो सकती है ?

एक दूसरे को मारता था । फिर सिर तोड़ कर चला देता था जो रावण के सामने जाकर गिरता था जैसे मानो दही की हाड़ी फूटी हो । जो वीरों के समूह के मुखिया होते थे उनका पैर पकड़कर रामचन्द्र जी के पास फेंक देत थे । जब विभीषण जी उसका नाम बतलाते तो भगवान उन्हें अपने धाम भेज देते थे । वे दुष्ट राक्षस जो ब्राह्मणों को मार कर खाने वाले थे वे भी उसी गति को पाते थे जिसकी चाह योगी लोग करते हैं । शंकर जी कहते है – श्रीराम इतने कोमल हृदय और दयालु है कि जो राक्षस वैर भाव त्याग देते है उसे परम गति देत हैं । हे भवानी , ऐसी कृपा करने वाले कौन होंगे ? जो ऐसा सुनकर भी भ्रम नहीं त्यागते न भगवान का स्मरण करते , उससे बढ़कर मतिमंद कौन होगा ?

अंगद और हनुमान जी का लंका में प्रवेश करना किला की ऐसी स्थिति कर दी कि अवधपति रामजी कहते है कि ऐसा लगता है ये दोनों समुद्र को मथ रहे है । सूर्यास्त होने पर है । अपने भुजवल से शत्रु दल का दलन करते हुए दोनों वीर किला से नीचे कूदकर आराम पाये और प्रभु के पास पहुँचे । फिर इन दोनों के आने पर अन्य वीर बन्दर और भालूगण भी लौटे । शाम का समय पाकर रावण की दुहाई देते हुए राक्षस योद्धा भी लौट चले । निशाचरो की सेना देख फिर बन्दर भालू भी लौटे । दाँत पीसते दोनों आपस में लड़ने लगे । दोनों ही दलो ने लड़ते हुए हार न मानी । दोनों दल एक समान बली है । तरह – तरह के खेल करते हुए सक्रोध लड़ रहे हैं । फिर जल्दी में अंधकार छा गया । रक्त की धारा पर धूल छा गया । चारो ओर अंधेरा देख वानरों के दल दुखी थे । कोई किसी को देख नहीं पाता । उक दूसरे को पुकारते हैं ।

अब सारी बात रामजी जान गये तो अंगद और हनुमान को बुला लिए । यह सुनकर हाथी की तरह वानर क्रोधित मुद्रा में आये । फिर रामचन्द्र जी अग्नि वाण चलाये जिससे अंधकार मिट गया जैसे ज्ञान के प्रकट होते ही मन से संका मिट जाती है । प्रकाश पाकर थकान और भय जाता रहा । हनुमान और अंगद रण – भूमि में ही हैं । उनके गर्जन से राक्षसगण भागते है । भागते हुए वीरो को पकड़ कर धरती पर पटकती विलाते हैं । इस प्रकार बन्दर भालू अद्भुत कार्य करते हैं । पैर पकड़कर समुद्र में डाल देते हैं जिन्हें पकड़ कर मगर , सर्प और मछलियाँ खा जाती है । कुछ तो मारे गये कुछ घायल हुए कुछ भागकर गढ़ पर चढ़ गये । उनकी गर्जना से दुश्मन की सेना विचलित हो गयी । रात्रि समझकर चारो ओर सेनाएँ जहाँ रामजी ठहरे थे , वहाँ पहुँचे ।

लंका में रावण ने मंत्रियों को बुलाया । जितने योद्धा मारे गये थे उन सबों को सबाके बताकर कहा कि आधी सेना का संहार हो चुका । अब बतलाओं कि क्या करना चाहिए । माल्यवत नाम का एक वृद्ध राक्षस था । वह मंत्री भी था । वह रावण की माता का पिता अर्थात उसका नाना था । उसने नीति युक्त पवित्र बात कही । हे तात , कुछ मेरी भी बात सुनो । जबसे तुम सीता का हरण कर लाये , हो , तबसे इतने अपशकुन हो रहे है जिसका वर्णन नही किया जा सकता । वेद पुराणों में जिसका यशगान हुआ है , उन श्रीरामजी से विमुख रहकर कोई सुखी न रहा । राजा हिरण्य कशिपु और हिरण्याक्ष सहित बलवान मधु और कैटभ को जिन्होंने मारा था , वही राम रुप में अवतार लिए है । उनसे वैर न कर सीता को उन्हें लौटा दीजिए । रावण को उनके वचन वाण स लगे । उसने फटकार कर कहा- अरे अभागे तुम अपना मुँह काला करके यहाँ से चला जा तू बूढ़ा हो गया , नहीं तो तुम्हें मैं मार डालता । अब तुम मेरी आँखों से दूर हट जा । रावण की बात सुनकर माल्यवंत को ऐसा लगा अब भगवान की नजर से इसे दूर जाना ही है ।

रावण इस प्रकार दुर्वचन बोलता हुआ उठकर चला गया । तब रावण पुत्र मेघनाथ क्रोधित होकर बोला सवेरा होने दो , तब मेरी करामात देखना । पहले मैं क्या कहूँ । इसे सुनकर रावण को कुछ भरोसा हुआ । उसने प्रेम से पुत्र को गोद लिया । सोचते – विचारते सवेरा हो ही गया । वानर फिर चारों दरवाजों को जा घेरे । वे उस दुर्गम गढ़ को घेर डाले । नगर में कोलाहल फैला । सभी राक्षस अस्त्र – शस्त्र धारण कर दौड़े और किले के उपर से पहाड़ों के शिखर ढ़ाहने लगे । गोले की तरह बरसाने लगे । बूढ़े , जर्जर और घायल वानर सेना भी पहाड़ों के चट्टान उनपर फेंकने लगे वानरों ने राक्षसों को जहाँ के तहाँ मार डाले । मेघनाथ जब जाना कि किला शत्रुओं से घिर चुका है तो क्रोध के मारे डंका बजाकर किला के बाहर आया । पुकार कर चुनौती दिया कि विश्व प्रसिद्ध धनुषधारी दोनों भाई राम लक्ष्मण , नल , नील , द्विविद , सुग्रीव , अंगद और हनुमान कहाँ है । भाई से द्रोह करने वाला विभीषण कहाँ है । आज मैं सबों को और उस विभीषण को भी अवश्य माऊँगा । ऐसा कहकर धनुष तान दिया ।

वाणों की वर्षा होने लगी । जहाँ के तहाँ वानर घायल होकर गिरने लगे । उस समय वहाँ सामने कोई न हुए । बन्दर भालू सभो भागने लगे । सबों ने युद्ध की इच्दा छोड़ दी । कोई भी युद्ध क्षेत्र में नहीं दिख रहा लगा कि किसी के शरीर म प्राण न रहा । सभी को घराशामी कर मेघनाथ सिंह की भाँति गरजने लगा । सारी सेना को बेहाल देखकर हनुमान जी काल की भाँति क्रोध से दौड़कर एक बड़ा सा पहाड़ उखाड़कर मेघनाथ पर फेंके । वह पहाड़ को आते देख आकाश में उड़ गया । उसके रथ सारथि घोड़ सभी नष्ट हो गये । हनुमान जी बार – बार उसे ललकार रहे हैं किन्तु वह उनकी शक्ति का अनुमान कर सामने नहीं आ रहा । वह श्रीराम जी के पास जाकर भले – बुरे सब कहे । अस्त्र – शस्त्र चलाये । प्रभु ने अपने वाणों से उसे विफल कर दिये । उनके प्रभाव को देखकर वह क्रोध के मारे तरह – तरह की माया दिखलाने लगा । जिनकी माया के वश में शिव और ब्रह्मा सभी देवता हैं उन्हें वह राक्षस अपनी माया से वैस डराता है जैसे गरुड़ के सामने सफेराज नाग दिखलाय ! भगवान ने एक ही वाण में उसकी सारी माया काट डाली जिससे वानर भालुओं में नयी शक्ति का संचार हो गया । अब फिर युद्ध रुक नहीं सकता ।

अब तो सभी एक साथ धनुष वाण के साथ तैयार होकर चले तो रावण भी बलवान राक्षसों को युद्धायुद्ध के साथ युद्ध क्षेत्र में भेजा । आकाश से अंगारे गिरने लगे । धरती से जल की धारा बह चली नाना प्रकार के भूत – पिशाच और पिशाचिनियाँ मारो – काटो की आवाज के साथ नाचने लगी । विष्टा , पीव रक्त कीचड़ और हड्डियों की वर्षा होने लगी । कभी ऊपर से पत्थर फेंके जा रहे थे । कभी धूल बरसा का विकट और घिनौनी माया देख वानरी सेना व्याकुल हो उठी , लेकिन इस लीला को देख राम मुस्कुराये । उन्होंने जाना कि वानर भयभीत हो रहे । उन्होंने एक ही वाण में माया का निराकरण कर दिया । सभी प्रवलता से रण में जा भिड़े । लक्ष्मण जी भी रामजी की आज्ञा पाकर अंगद आदि के साथ धनुष वाण लेकर चले । पहाड़ , नख और वृक्षों को धारण करने वाले वीर वानर भालू रामजी की जयकार कर जोड़ी में जोड़ी मिलाकर लड़ने लगे । मुष्टिका लात और दाँत के सहार विजयशील वानर मार करते और डॉट लगाते हुए :-

” मारु – मारु धरु – धरु धरू मारु । सीस तोरि गहि भुजा अपारु ” ।। की आवाज देते थे । इस प्रकार की आवाज पूरे आकाश मैं फैल रही थी । प्रचण्ड घड़ बिना सिर के दौड़ रहे थे । देवतागण उसे कौतुक भरी नजर से देख रहे थे । गढ़ो में खून जाम है । उस पर धूल पड़ रही है । घायलों की तो दशा ऐसी दिख रही है मानों फूल से लदे पलारा के पेड़ । लक्ष्मण और मेघनाथ की जोड़ी में घमासान युद्ध चल रहा है । लड़ाइ अजय लगा रही है । राक्षस अनीति के तहत हर प्रकार के छल – बल का प्रयोग कर रहे हैं । तब अत्यन्त क्रोधातुर लक्ष्मण जी ने तुरंत ही उसके रथ को तोड़कर सारथि के टुकड़े – टुकड़ कर डाले । शेषावतार लक्ष्मण के विविध प्रहार से मेघनाथ के प्राण संकट में आ गये । रावण पुत्र मेघनाथ मन में अनुमान किया कि उसके प्राण संकट में है । तब उसने वीर घातिनी शक्ति के प्रयोग से तेज पूर्ण शक्ति लक्ष्मण जी की छाती में लगी । वे मूर्च्छित हो गये । तब मेघनाथ का भय मिटा । वह रामजी के पास चला गया ।

मेघनाथ के समान अनगिनत योद्धा श्री शेषजी ( लक्ष्मण जी ) को उठा न सके तो वे सभी लज्जा के मारे चल पड़े । शंकर जी कहते है कि हे पार्वती , जब प्रलयकाल आता है तो शेषनाथ की अग्नि की ज्वाला सम्पूर्ण संसार को जला देती है जिनकी सेवा सृष्टि के सबदेवता सहित सचराचर जीव करते हैं । उनसे संग्राम जीतना आसान नहीं इस रहस्य को सब कोई नहीं जानते ।

शाम होने पर फिर दोनों दल अपनी – अपनी सेना सम्भालने लगे । रामचन्द्र जी ने पूछा लक्ष्मण कहाँ है ? तब हनुमान उन्हें उठाकर लाये । उनकी मूर्च्छित दशा देख प्रभु को दुख हुआ । जामवन्त जो ने कहा कि इसी लंका में एक सुषेण वैद्य रहता है उसे बुलवाया जाय । तुरंत छोटा – सा रूप धारण कर हनुमान गये और उस वैध को घर सहित सोये हुए उठाकर ले आये । सुषेण ने आकर भगवान को सिर नवाया । दवा का नाम बतलाकर पहाड़ पर से उसे लाने के लिए हनुमान जी को कहा । हनुमान जी तो चले किन्तु रावण ने मार्ग में बाधा डाला । एक गुप्तचर ने जाकर रावण से सारी बात कह सुनाया । रावण झट कालनेमि नामक राक्षस से मिला । रावण ने सब हाल कह सुनाया तो वह राक्षस बार – बार अपना सिर पीटकर बोल पड़ा । तुम्हारे दखते जो लंका को जला डाला , उसका मार्ग कौन रोक सकेगा ? कालनेमि ने बहुत कुछ समझाया । राम शरण में जाने से ही कल्याण सुझाया । ममता त्यागने को कहा । महा मोह से उबरने का संदेश दिया । तथापि उस रावण ने उसे फटकारा । कालनेकि विचार किया कि यह दुष्ट पाप कर्म में संयक्त है अतः अच्छा है कि राम के ही दूत के हाथ से मरूँ । यह राक्षस रावण का कार्य करने चला । रास्ते में मायावी रचना कर तालाव और सुन्दर मंदिर बनाया । मुनि का वेष धारण कर राम के दूत को मोहित करना चाहा मार्ग में तालाब देखकर हनुमान जी ने जल पीकर थकान मिटाना चाहा । वह उनके सामने सिर नवाकर रामजी का गुणगान किया । रामजी और रावण के बीच गम्भीर युद्ध चल रहा है । रामजी जीतेंगे इसमें संदेह नहीं । मैं यही से सबकुछ देख रहा हूँ । मेरे पास ज्ञान बल की अधिकता है पहले यह कमंडल देता हूँ । पानी पी लो फिर मुझसे ज्ञान भी ले लो । हनुमान जी ने कहा कि थोड़े जल से प्यास नही मिट पायी । मैं जल्द ही तालाब में जाकर जल पीकर तृप्त हो आता हूँ आपसे ज्ञान भी ले लूँगा । पानी में प्रवेश करते ही एक मादा मगरमच्छ उनका पैर पकड़ ली । हनुमान जी ने उसे मार डाला वह दिव्य देह पाकर विमान से आकाश की ओर बढ़ी और बोली मैं तुम्हारे दर्शन से पाप मुक्त हो गयी । मुनि को शाप से मुक्ति मिली । यह मुनि नही पापी है । उस मगर के स्वर्ग गमन के बाद हनुमान जी उस मुनिवेशधारी राक्षस के पास गये । उन्होंने कहा कि पहले आप मुझसे गुरु दक्षिणा ले ले बाद में मैं मंत्र ले लूँगा । उन्होंने उसके सिर में लंगूर लपेट कर मार डाला फिर प्रसन्न होकर अपनी राह ली । वहाँ पहाड़ पर तो पहुँच गये किन्तु बूँटी नहीं पहचान में आने से पहाड़ को ही उखाड़ कर ले चले । पहाड़ को लिए पूरी रात दौड़ते बने । जब वे अवधपूरी के ऊपर से गुजर रहे थे तो भरत जी ने देखकर समझा कि यह कोई राक्षस है । झट धनुष का निशान साधकर उसे मार डालना चाहे वाण लगते ही हनुमान मूर्च्छित होकर धरती पर गिरे । राम नाम का स्मरण किये । भाई का नाम सुनते ही भरत जी दौड़ते हुए उनके पास पहुँचे उन्हें बेचैन पाकर भरत जी ने हृदय से लगा लिया । जगाने का प्रयास विफल गया तब भरत अति दुखी हुए आँखों में आँसू भर आये ।

जेहि विधि राम विमुख मोहि कीन्हि। तेहि पुनि यह दारुण दुख दीन्हि ।।
जौ मोरे मन बच अरु काया। प्रीति राम पद कमल अमाया ।।

तौ कपि होउ विगत श्रम सूला । जौ मो पर रघुपति अनुकूला ।
सुनत वचन उठि बैठ कपीसा । कहि जय जयति कोशलाघीसा ।।

तात कुशल कहु सुखनिधान की । सहित अनुज अरु मातु जानकी ।।
कपि सब चरित समास वखाने । भये दुखी मन महु पछिताने ।।

अहह दैव मै कत जग जायउँ । प्रभु के एकहु काम न आयउँ ।।
जानि कुअवसरु मन धरि धीरा। पुनि कपि सन बोलै बलवीरा ।।

बात गहरू होइहि तोहि जाता । काजु नसाइहि होत प्रभाता ।।
चहु मम सायक सैल समेता । पठवाँ तोहि जहँ कृपा निकेता ।।

सुनि कपि मन उपजा अभिमाना । मोरे भार चलिहि किमि वाना ।।
राम प्रभाव विचारि बहोरि । वंदि चरण कह कपि कर जोरि ।।

दो ० तब प्रभाव उर राखि प्रभु जैहउ नाथ तुरंत ।
अस कहि आयस पाइ पद वंदि चलेउ हनुमंत ।।

भरत बाहुवल शील गुण , प्रभु पद प्रीति अपार ।
मन महु जात सराहत पुनि – पुनि पवन कुमार ।।

उहाँ राम लछिमन ही निहारी । बोल वचन मनुज अनुहारी ।।
अर्धराति गई कपि नही आयउ । राम उठाई अनुज उर लायउ ।।

सकहूँ न दुखित देखि मोहिकाउ । बन्धु सदा तब मृदुल सुभाउ ।।
ममहित लागि तजहु पितु माता । सहेउ विपिन हिम आतप बाता ।।

सोअनराग कहाँ अब भाई । उठहुँ न सुनिमम वच विकलाई ।।
जौ जनतेरों वन बन्धु विछोडू । पिता वचन मनतेउँ नहि ओहूँ ।।

सुत वित नारि भवन पखिरा । होहि जाहि जग वारहिवारा ।।
अस मम जीवन वन्धु बिनु तोही । ज्यो जड़ दैव जिआवै मोही ।।

जै हो अवध कवन मुह लाई । नारि हेतु प्रिय भाई गँवाई ।।
वरु अपजस सहतेउ जग माही । नारि हानि विशेष छति नाही ।।

सौंपसि मोटि तुम्हहि गहिपानी । सब विधि सुखद परम हित जानी ।।
उतरु काह दैहउँ तेटि जाई । उठि किन मोहि सिखावहु भाई ।।

इस प्रकार विलाप करते हुए :-

बहु विधि सोचत वमोचन । स्रवत सलिल राजीव दल लोचन ।।
उमा एक अखंड रघुराई । नरगति भगत कृपाल देखाई ।।

दो ० प्रभु प्रलाप सुनि कान , विकल भये वानर निकर ।
आई गयउ हनुमान जिमि करुणा महँ वीर रस ।।

हरषि राम भेंटेउ हनुमाना । अति कृतज्ञ प्रभु परम सुजाना ।।
तुरत वैध तब कीन्ह उपाई । उठि बैठे लछिमन हरषाई ।।

हृदय लाई प्रभु भेंटेउ भ्राता । हरषे सकल भालु कपि व्राता ।।
कपि पुनि वैध तहाँ पहुचावा । जेहि विधि तबहि ताहि लई आवा ।।

यह वृतांत दसानन सुनेउ । अति विसाद पनि पुनि सिर घुनउ ।।
व्याकुल कुंभकरण पहि आवा । विविध जतन करि ताहि जगावा ।।

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