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प्रभाग-29 रावण अंगद संवाद प्रभाग, छठा सोपान लंका काण्ड रामचरितमानस

इधर जब सवेरा होने पर रामजी जगे तो उन्होंने सभी मंत्रियों को बुलाकर पूछा कि क्या किया जाय । जामवंत जी ने विनय पूर्वक सिर झुका कर कहा- हे सर्वज्ञ , सबके हृदय में बसने वाले बल बुद्धि तेज और गुणों के भंडार सुनिए , मैं अपनी बुद्धि के अनुसार सलाह देता हूँ कि बालिकुमार अंगद जी को दूत बनाकर भेजा जाय । यह सुन्दर सुझाव सबको पसन्द आया । कृपा निधान भगवान जी बोले- हे बल , बुद्धि और गुणों के धाम अंगद , तुम मेरे काम के लिए लंका जाओ । तुम्हें ज्यादा समझा कर क्या कहूँ । मैं तुम्हारी चातुरी जानता हूँ । शत्रु से वही बात करना जिससे मेरा काम और उसका कल्याण हो । प्रभु की आज्ञा शिरोद्धार्य कर उनके चरण की बन्दना कर अंगद चल पड़े । वैसे ही दया के सागर राम है जो जिन पर कृपा करते है वे ही गुणों की खान बन जाते हैं । अंगद ने विचारा- भगवान के सारे कार्य स्वयं ही सिद्ध हो जाते हैं । वे तो हमें सम्मान रुप आज्ञा दिये हैं । ऐसा कहते हुए अंगद अत्यन्त प्रसन्न दिखे । इन वानरों में सेवा भावना कूट – कूट कर भरी थी । ये स्वयं नीति निपुण थे । उस पर भी भगवान की अपार कृपा निर्भय होकर अंगद लंका पहुँचे ।

नगर प्रवेश करते ही रावण का पुत्र खेल रहा था , उससे भेंट हो गयी । बात – बात में दोनों में झगड़ा हो गया । दोनों बलवान एक पर एक पड़ते थे । उसमें भी युवावस्था । उसने ज्योंही अंगद पर लात उठायी कि पैर पकड़ कर नचाते हुए धरती पर ऐसा पटकन दिया कि वह मर गया राक्षसों का समूह उन्हें भारी योद्धा समझकर जहाँ – तहाँ चले गये । डर के मारे किसी को पुकार भी न पाये । एक दूसरे को कोई असली मर्म नहीं बतलाता था । सबों ने चुप्पी साध ली । उसे मरा जानकर भय के कारण सारे नगर में कोलाहल मच गया कि जो बानर लका को जलाया था वह फिर आ पहुँचा है । न जाने अब विधाता की कैसी इच्छा ? सभी भयभीत है । बिना पूछे ही अंगद जी को राज भवन जाने का रास्ता बतला दिया । अंगद की दृष्टि जिन राक्षसों पर पड़ती थी सभी भय से सिंहर जाते थे ।

अब अंगद राज सभा के दरवाजे पर पहुँचे तो धीर – वीर बल पुज शेर के बच्चे की तरह इधर – उधर निभय झाँक रहे थे । एक राक्षस तुरंत जाकर रावण को सूचित किया रावण को सुनकर हँसी आयी । उसने अन्दर बुला लाने को कहा कि देखें , कहाँ का वानर है आज्ञा पाकर बहुत से दूत दौड़े और हाथी के समान दीखते उसे पकड़ कर लाये । अंगद ने रावण को एक काजल के पहाड़ जैसा बैठा देखा । उसकी भुजा बड़े पेड़ की तरह और सिर पहाड़ जैसा था । शरीर के बाल वृक्ष पर फैली लताओं की तरह मुँह , नाक , कान और आँखें पहाड़ों की खोह सी दिख रही थी । राज सभा में प्रवेश करते उन्हें तनिक भी भय न रहा ऐसा बलवान वॉकुरा अंगद ! सारी सभा उठकर खड़ी हो गयी । रावण तो क्रोध से जल उठा ।

अंगद उस प्रकार राज दरवार में निर्भय होकर बैठ गये जैसे हाथियों के बीच में शेर । रावण बोला-अरे बन्दर ! तुम कौन हो ?अंगद ने कहा- हे दशग्रीव , मैं श्री रघुवीर का दूत हूँ । मेरे पिताजी से तो तेरी मित्रता थी । इस हेतु मै तेरी भलाई के लिए ही आया हूँ । तुम तो-

उत्तम कुल पुलस्ति कर नाती । शिव विरंचि पूजेहुॅ बहु भाँति ।।
वर पायउ कीन्हेसि सब काजा । जीतेहु लोकपाल सब राजा ।।

नृप अभिमान मोहवस किंवा। हरि आनेहु सीता जगदम्बा ।।
अब शुभ कहाँ सुनहु तुम्ह मोरा । सब अपराध छमेहु प्रभु तोरा ।।

दसन गहहु नप कंठ कुठारी। परिजन सहित संग निजनारी ।।
सादर जनक सुता करि आगे । एहि विधि चलहु सकल भय त्याग ।।

दो ० प्रणत पाल रघुवंशमणि त्राहि – त्राहि अब मोहि ।
आरत गिरा सुनत प्रभु अभय करै गौ तोहि ।।

तब क्रोध में आकर रावण बोला :-

रे कपिपोत बोलु संभारी । मूढ़ न जानहि मोर सुरारि ।।
कहु निज नाम जनक कर भाई। केहि नाते मानिए मिताई ।।

अंगद नाम बालि कर बेटा । तासो कबहु भयी हीं भेंटा ।
गर्म न गयउ व्यर्थ तुम जायहु। निज मुख तापस दूत कहायहु ।।

अब कहु कुशल बालि कह रहई । विहॅसि वचन तब अंगद कहई ।।
दिन दस गये बालि पहि जाई । बूझेउ कुशल सखाउर लाई ।।

राम विरोध कुशल जसि होई । सो सब तोहि सुनाइहि सोई ।।
सुन सठ भेद होई मन ताके ।श्री रघुवीर हृदय नही जाके ।।

दो ० हम कुल धालक सत्य तुम्ह कल पालक दशसीस ।
अंधेउ वघिर न अस कहहि। नयन कान तब वीस ।।

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